Child Marriage: कहने को तो सरकार ने बाल विवाह, दहेज प्रथा, बेमेल विवाह आदि जैसी सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ तमाम तरह के कानून बना रखे हैं, लेकिन धरातल की हकीकत यह है कि आज भी हमारे देश में हर दस में से एक शादी ऐसी ही हो रही है. इसके लिए सरकार से कहीं ज्यादा दोष उन लोगों का है, जो आज भी अपनी बेटियों को बोझ समझते हैं और उनके जन्म के बाद से ही उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के बजाय बस ‘किसी तरह उनके हाथ पीले करके अपने सिर से बोझ निपटा लेने’ की सोचते रहते हैं. ऐसे में बेटियों के पास बस एक ही उपाय बचता है और वह है- खुल कर अपने खिलाफ हो रहे ऐसे अन्यायों का विरोध करना और अपने हिस्से का आसमां पाने के लिए अपने दम पर आगे बढ़ना. आज जानें ऐसी ही कुछ बहादुर बेटियों के बारे में.
झारखंड के गुमला जिले के भरना पाना गांव के आदिवासी समुदाय से आनेवाली सोमारी कुमारी वर्तमान में 12वीं कक्षा में पढ़ती हैं, लेकिन उच्च शिक्षा पाने का उनका सपना तब साकार नहीं होता, अगर आज से छह वर्षों पूर्व वह अपने बाल विवाह का विरोध नहीं करतीं. सोमारी बताती हैं- ”मैं जब मैं सातवीं कक्षा में थी, तभी आस-पड़ोस के तानों तथा रिश्तेदारों के बहकावे में आकर मेरे मां-बाप ने मेरी शादी तय कर दी थी, लेकिन मुझे शादी नहीं करनी थी. मैं आगे पढ़ना चाहती थी. इसी कारण मैंने शादी के लिए मना कर दिया. इसमें मेरे भाई ने भी मुझे काफी सपोर्ट किया. हालांकि मां तो जल्दी मान गयी, लेकिन पापा को समझाने में करीब एक साल लग गया. इस बीच मेरा दसवीं का रिजल्ट आया, जिसमें मैंने 75% अंक स्कोर किया, जिस वजह से ग्राम पंचायत से लेकर जिला स्तर तक मुझे सराहना मिली. मुझे पढ़ाई में अच्छा करते देख धीरे-धीरे पापा भी मान गये.
आज ‘आस्था’ संस्था से जुड़ कर सोमारी न सिर्फ अपनी आगे की पढ़ाई पूरी कर रही हैं, बल्कि सक्रियता के साथ बाल विवाह के खिलाफ जंग भी लड़ रही हैं. वह संस्था के अन्य सदस्यों के साथ मिल कर इस कुरीति के खिलाफ लोगों को जागरूक करने के लिए समय-समय पर नुक्कड़ नाटक, सभा, पैदल यात्रा आदि भी करती हैं. भविष्य में उनका उद्देश्य समाज सेवा के क्षेत्र में अपना करियर बनाना है.
”लॉकडाउन के दौरान झारखंड के आदिवासी समुदायों में डुकू प्रथा से जुड़े मामलों में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है. इस प्रथा के तहत लड़का या लड़की अपनी पसंद और मर्जी से एक-दूसरे के साथ रहते हैं, भले ही वे किसी भी उम्र के हों. ऐसी स्थिति में बाल विवाह के मामले बढ़ना स्वाभाविक हैं. बात दें डुकू प्रथा शहरों में प्रचलित लिव-इन रिलेशन की अवधारणा से अलग है, क्योंकि लिव-इन में जहां साथ रहनेवाले दो लोग एक-दूसरे के साथ शादी करने के लिए बाध्य नहीं हैं, वहीं डुकू प्रथा के तहत रह रहे प्रेमी जोड़ों को शादी करने की बाध्यता है, अन्यथा उन्हें समुदाय से बहिष्कृत कर दिया जाता है. इसके अलावा, शादी योग्य कानूनी उम्र बढ़ने की खबर ने भी बाल विवाह के मामलेां में बढ़ोतरी की है. लोगों को लग रहा है कि अब तीन साल और बेटियों को घर में बिठाना पड़ेगा. इससे बचने के लिए वे जितनी जल्दी हो, उनके हाथ पीले कर दे रहे हैं. ”
– अजय जायसवाल, अध्यक्ष एवं संस्थापक, आशा ‘द होप’ एनजीओ, खूंटी, झारखंड
झारखंड के खूंटी जिला के बासजारी गांव की रहनेवाली सीमा खल्खो बताती हैं कि उनके गांव में ट्रैफकिंग की समस्या बेहद आम है. कई बार रिश्तेदार तो कई बार आस-पड़ोस के लोग छोटी लड़कियों को बला-फुसला कर शहर ले जाते हैं और फिर वहां शुरू होता हैं उनका शोषण. इससे बचने के लिए माता-पिता जितनी जल्दी हो, बेटियों की शादी कर देते हैं. इसके लिए कई बार तो फर्जी आधार कार्ड बनवा कर लड़कियों की उम्र अधिक बता दी जाती है, ताकि अभिभावक कानूनी शिकंजे से बच सकें.
दसवीं क्लास में पढ़ने के दौरान सीमा के माता-पिता ने भी उसके ‘सुरक्षित भविष्य’ को ध्यान में रखते हुए उसकी मर्जी के बगैर उसकी शादी तय कर दी. आश्चर्य की बात तो यह रही कि सीमा को अपने आसपड़ोस के लोगों और अपनी सहेलियों से अपनी शादी तय होने की बात पता चली. तब उसने अपने परिवारवालों से इस शादी का विरोध करते हुए पुलिस थाने में उनके खिलाफ केस दर्ज करने की धमकी दी. आखिरकार सीमा के परिवारवालों को उनकी बात माननी पड़ी.
फिलहाल सीमा संस्था में रह कर ग्रेजुएशन प्रथम वर्ष की पढ़ाई कर रही है. भविष्य में उसका सपना पुलिस सेवा में जाने का है.
इनपुट : रचना प्रियदर्शिनी