Climate Change And Himalayas: एक्सपर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन और हिमालय में मानवीय हस्तक्षेप ने आपदाओं के प्रति पहाड़ों की संवेदनशीलता को बढ़ा दिया है, जिसके परिणामस्वरूप संपत्ति और मानव जीवन के नुकसान में कई गुना वृद्धि हुई है. हाल में बादल फटने के कारण अचानक आई बाढ़ ने जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में अमरनाथ गुफा मंदिर के पास एक आधार शिविर स्थल को नष्ट कर दिया, जिसमें 15 तीर्थयात्री मारे गए. मणिपुर के नोनी जिले में 30 जून को जबदस्त भूस्खलन में प्रादेशिक सेना के सैनिकों, रेलवे कर्मचारियों और ग्रामीणों सहित 56 लोगों की मौत हो गई. जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और पूर्वोत्तर में भारी बारिश के कारण हुए भूस्खलन के कारण कई प्रमुख सड़कें वर्तमान में अवरुद्ध हैं. हिमालय भारी बारिश, अचानक बाढ़, भूस्खलन आदि के प्रति स्वाभाविक रूप से संवेदनशील है, क्योंकि नए पर्वत अब भी बढ़ रहे हैं और भूकंपीय रूप से बहुत सक्रिय हैं.
साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर एंड पीपल (SANDRP) के समन्वयक हिमांशु ठक्कर के अनुसार जलवायु परिवर्तन ने इसकी संवेदनशीलता में एक और परत जोड़ दी है. यह भूस्खलन, अचानक बाढ़ और बादल फटने की घटनाओं को और अधिक विनाशकारी बना रहा है. ठक्कर ने कहा, हम पर्यावरणीय प्रभाव का सही आकलन नहीं करते हैं, न ही हम पहाड़ों की वहन क्षमता को ध्यान में रखते हैं. हमारे पास हिमालय के लिए एक विश्वसनीय आपदा प्रबंधन प्रणाली भी नहीं है. वे कहते हैं- पहले हमारे पास जलग्रहण क्षेत्रों में घने जंगल थे जो बारिश के पानी को जमीन में रिसने में मदद करते थे और यह जल मानसून के बाद जल स्रोतों के रूप में उपलब्ध हो जाता था. अब जंगलों के कटने से बारिश का पानी बह जाता है, इसलिए जलाशय गायब हो रहे हैं और सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता कम हो रही है.
अगस्त 2018 में नीति आयोग द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय हिमालयी क्षेत्र (IHR) में लगभग 50 प्रतिशत झरने सूख रहे हैं. भारत भर में 50 लाख झरने हैं, जिनमें से लगभग 30 लाख अकेले आईएचआर में हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 20 करोड़ से अधिक लोग झरनों पर निर्भर हैं, जिनमें से पांच करोड़ लोग क्षेत्र के 12 राज्यों में रहते हैं. अनियोजित मानवीय हस्तक्षेपों – बांधों, जल विद्युत परियोजनाओं, राजमार्गों, खनन, वनों की कटाई, भवन निर्माण, अनियमित पर्यटन और तीर्थयात्रा के कारण पहाड़ नाजुक हो रहे हैं. विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के तहत एक स्वायत्त संस्थान, वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के 2020 के एक अध्ययन के अनुसार, गंगोत्री ग्लेशियर के पास ‘ब्लैक कार्बन’ सांद्रता जंगल की आग और कृषि कचरे के जलने के कारण गर्मियों में 400 गुना बढ़ जाती है, जो प्रकाश अवशोषित करने की ‘ब्लैक कार्बन’ की प्रकृति के कारण ग्लेशियर के पिघलने का कारण बन सकते हैं.
उत्तराखंड में चार धाम राजमार्ग परियोजना के लिए उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित उच्चाधिकार प्राप्त समिति के सदस्य हेमंत ध्यानी के अनुसार ग्लेशियर के नीचे ढलान की ओर 100-150 किलोमीटर तक हरित आवरण बनाए रखने की आवश्यकता है. इन क्षेत्रों को ‘पर्यावरण के प्रति संवेदनशील क्षेत्र’ घोषित किया जाना चाहिए. समृद्ध एवं घने जंगल बफर जोन के रूप में कार्य करेंगे और ग्लेशियर से पानी जमा करेंगे. उन्होंने कहा कि जलवायु परिवर्तन अनियोजित निर्माण परियोजनाओं और अनियमित पर्यटन के परिणामों को बढ़ा रहा है.
ध्यानी ने कहा कि एजेंसियां चौड़ी सड़कों के निर्माण के लिए पहाड़ों में गहन कटाई कर रही हैं. यह ढलानों को अस्थिर करता है और भूस्खलन को बढ़ावा देता है. उन्होंने कहा कि जलविद्युत परियोजनाएं नदी घाटियों को अवरुद्ध कर रही हैं, जिससे फरवरी 2021 की ऋषि गंगा आपदा हुई. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, अलकनंदा और भागीरथी घाटियों में लगभग 36 जलविद्युत परियोजनाएं हैं. 2015 में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि बांध निर्माण, क्षेत्र में अचानक बाढ़ की घटना बढ़ने के कारणों में से एक है. एक हिमखंड के दरकने से ऋषिगंगा नदी में बाढ़ आ गई थी, जिससे क्षेत्र में जलविद्युत परियोजनाओं को व्यापक नुकसान हुआ था. रैनी में ऋषिगंगा परियोजना स्थल और तपोवन में तपोवन-विष्णुगढ़ परियोजना स्थल के 200 से अधिक लोग आपदा में लापता हो गए थे. कुल 80 से अधिक पीड़ितों के शव मिले थे.
Also Read: छुट्टियां लेने से प्रोडक्टिविटी में 40% तक होता है सुधार लेकिन कुछ लोग इस वजह से नहीं लेते काम से ब्रेक
ध्यानी ने कहा कि ग्लेशियर के फटने के लिए जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, लेकिन सरकारों और परियोजना समर्थकों की आपराधिक लापरवाही ने इसे एक आपदा में बदल दिया. उन्होंने कहा कि सड़कों और अन्य बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए पहाड़ों में अंधाधुंध विस्फोट से पहले से ही नाजुक इलाकों में भूस्खलन बढ़ गया है. पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा 2020 में जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि हिंदु कुश हिमालय (एचकेएच) में वार्षिक औसत सतह-वायु-तापमान में 1901-2014 के दौरान प्रति दशक लगभग 0.1 डिग्री सेल्सियस की दर से वृद्धि हुई है और 1951-2014 के दौरान प्रति दशक 0.2 डिग्री सेल्सियस की तापमान वृद्धि दर रही, जो मानवजनित जलवायु परिवर्तन के कारण है. एचकेएच के कई क्षेत्रों में हाल के दशकों के दौरान हिमपात में कमी और अपने स्थान से हटते ग्लेशियरों का रुझान दिखा है. मंत्रालय ने कहा कि उच्च ऊंचाई वाले काराकोरम हिमालय के कुछ हिस्सों में पश्चिमी विक्षोभ में भिन्नताओं के कारण सर्दियों में वर्षा में वृद्धि हुई है.