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अंधकार का आलोक पर्व

दीपावली को माता लक्ष्मी को आहवान से रजगुणो का अपने जीवन में विस्तार करते है. फिर जीवन की चेतना में इसके क्षणभंगुरता की अनुभूति होती है, तब हम कार्तिक के दूसरे पक्ष में जगद्धात्री माता की पूजा लोक जीवन में सात्विकता के संचार के लिए करते हैं.

प्रकृति, मानव और देवता की दीपावली के माध्यम से मानव की चेतना को देवत्व में प्रतिष्ठित करने का अनुष्ठान चातुर्मास के अंतिम माह में चलता है. यह यात्रा तम, रज से सत की ओर आरोहण का है. इसकी शुरूआत शक्ति की आराधना से होती हैं, शक्ति एवं साधना से परिपूर्ण मानव मन और तन को सुख तथा समृद्धि की कामना होती है. नवरात्रा में माता दुर्गा की आराधना से शक्ति का संचयन शुरू होती है. दीपावली को माता लक्ष्मी को आहवान से रजगुणो का अपने जीवन में विस्तार करते है. फिर जीवन की चेतना में इसके क्षणभंगुरता की अनुभूति होती है, तब हम कार्तिक के दूसरे पक्ष में जगद्धात्री माता की पूजा लोक जीवन में सात्विकता के संचार के लिए करते हैं. कौमुदी पूर्णिमा में रास से जीवन संगीत की यात्रा शुरू होती है और कार्तिक पूर्णिमा को कामना शून्य होकर जीवन को दिव्यता एवं ईशरस में रंगने का कर्म शुरू होता है.

अंधकार से आलोक की यात्रा में हम अविद्या से अमृत की ओर आरोहण करते है. कहा गया है कि अविद्या के द्वारा वे मृत्यु के परे चले जाते हैं और विद्या द्वारा अमरता को प्राप्त करते हैं… अजन्म के द्वारा वे मृत्यु को पार करते है और जन्म के द्वारा अमरता का रस लेते हैं. (ईशोपनिषद 11.14) रात का अर्थ अंधेरा है. इससे डर लगता है. लेकिन अंधकार हमें रोशनी के अलावा कई बातें सिखाती हैं. इसके साथ सवाल जुड़ा होता है कि जीवन में अंधेरे का साथी कौन बने? चंद्रमा को देखने से मानसिक शक्ति प्राप्त होती है, जीवन में मिठास का संचार होता है. जीवन में आये अंधेरा को अर्थ मिलता है. हम मानते हैं कि शुभ की शुरुआत ब्रह्मबेला से होती है. सूरज का क्षितिज पर आगमन हुआ, तो जीवन में ऊर्जा का संचार हुआ. यह संदेश सर्वव्यापक है. इस चिंतन ने जीवन के आधे भाग यानी रात की महता को गौण मान लिया. हम रात को सो कर बीता देते हैं. अच्छा करना हो, तो सुबह का इंतजार. लेकिन ऐसी बात नहीं है. अंधकार केवल शून्य नहीं. यह प्रकाश की तुलना में ज्यादा सबक देता है. इसे स्वीकार करें, तो शब्दों के स्वर सुनाई पड़ेंगे. यह परेशानी दूर करने का कारगर हथियार बनेगा.

तब रात में एक प्रकाश होता था, जिसमें हम अपना संबंध बनाते थे. आज भी यह संबंध कायम है. थोड़ा परिवर्तित रूप में. तब ध्रुव तारा के बहाने रास्ता एवं दिशा का ज्ञान करते थे. आज उन्हीं तारों में हम अपने नाते रिश्तेदारों को खोजते हैं. चंदा को मामा बनाते हैं, तारे को अपने पूर्वज यानी दादा, नाना, भाई बंधु. यही तो बचपन में सिखाया और बताया गया. जो इस दुनिया से चले जाते हैं, वे ही तारे बन जाते हैं.

जीवन द्वंद्व है. अच्छा और बुरा. प्रकाश और अंधकार. इस कारण प्रकाश की तरह भी अंधकार जरूरी है. कई बातें जीवन की रौशनी में नहीं सीखी जा सकती. वह रात के अंधेरे में संभव है. हमें अंधेरे को स्वीकार करना होगा. अमेरिकी आध्यात्मिक गुरु बारबारा ब्राउन टेलर की एक किताब है- ‘लर्निंग टू वॉक इन द डार्क’. इसमें वह इस मान्यता को चुनौती देती है कि अंधकार डराता है. वह खराब है. यह मान्यता प्रायः व्यापक है कि आप अंधेरे में है यानी ईश्वर का आप पर विश्वास नहीं है. जबकि ऐसी बात नहीं है. भगवान श्रीकृष्ण का जन्म भादो कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को हुआ. इस तिथि को सबसे ज्यादा अंधेरा रहता है. मानव का ईश्वर के साथ नजदीकी के लिए अंधेरा जरूरी है. यह ईश्वर को जानने का आधार देता है. आमंत्रण देता है. अंधेरा एवं एकांकी में साधना कर गौतम बुद्ध ने दुनिया को प्रकाशमान किया. टेलर अपनी किताब में यह बात लिखती है कि मानसिक और शारीरिक शक्ति, लक्ष्य की प्राप्ति और सच्ची आस्था अंधेरे में ही हासिल की जा सकती है. अंधेरा हमें रोशनी के अलावा कई और बातें सिखाती है. अंधेरा में धीरे-धीरे चले. इससे बुद्धि और विवेक पैदा होता है. हमारे जीवन में भय से मुक्ति मिलती है. और तब हम ईश्वर के समीप होते हैं. वह कहती है कि ऐसा करने के लिए चंद्रमा को आधार बनाना चाहिए. उसके उदय और अस्त का समय निश्चित है. उदय के साथ योजना बनाइये और जब सारी रोशनी खत्म हो जाए, तब परीक्षण करे. अंधेरा में भी एक रोशनी होती है. उसे पहचाने.

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जीवन में प्रकाश के एक दूसरे क्षितिज को उद्भाषित करना है, तो रात को रहबर बनाना होगा. अंधेरे के साथ बैठे. यह जीवन में प्रकाश देगा. पहले अंधेरा होता है, तब प्रकाश का आगमन होता है. जीवन पहले मां के गर्भ में रहता है. बीज पहले जमीन के अंदर सोया रहता है. वहां अंधेरा वास करता है, लेकिन वही ऊर्जा है, जो जीवन को प्रकाशित करता है. बीज को वृक्ष बनाता है. ऊर्जा और प्रकाश एक ही सिक्के के दो हिस्से है. मां के पेट में जीव का निर्माण नौ माह तक अंधेरे में होता रहता है. कोई भी महान सृजन अंधेरा में ही होता है. हरेक प्राणी, वनस्पति या जीव जंतु का निर्माण या सृर्जन अंधेरे में धरती या जननी के गर्भ में चलता है. अंधेरा सृर्जन काल होता है. खिलने के लिए सूर्य की जरूरत है. प्रगति के लिए रोशनी चाहिए, लेकिन सृजन एवं शक्ति संचयन दिन में संभव नहीं. दिन में शक्ति का क्षय होता है.

अंधकार इस आत्म प्रकाश से आलोकित करने में पोषण का काम करता है. सारी रात घर में प्रकाश के तले रहनेवाला व्यक्ति को भी सोने के लिए, ध्यान-साधना के लिए अंधकार को ओढ़ना ही पड़ता है. दिन में भी सोने और साधना के लिए प्रकाश को मद्धिम कर दिया जाता है, ताकि भीतर के आलोक को उद्भाषित किया जा सके.

एक बार झारखंड के संताल की परिस्थिति देखने के लिए काका कालेलकर घूम रहे थे. सांझ के समय एक गांव में पहुंचे. वहां लोगों के साथ वार्तालाप शुरू हुआ. धीर-धीरे प्रकाश कम होने लगा. वहां के एक गृहस्थ को काका ने कहा कि -अंधकार हो चला है, दीया ले आयें, तो अच्छा होगा ! गांव का वह व्यक्ति आश्चर्य से काका को देखने लगा और बोला-दीया? हम लोग दिया कभी इस्तेमाल नहीं करते हैं. सूरज छिप गया कि हमारा कारोबार समाप्त हो जाता है. फिर सुबह की पौ फटी की हमलोग अपने अपने काम में लग जाते हैं. काका कालेलकर स्मरण में लिखा कि- मनुष्य की बस्ती में अंधेरे का यह साम्राज्य? मैं बड़ी चिंता में डूब गया. पर इन लोगों को इसका कोई बुरा नहीं लगता. अंधेरा तो रात को आयेगा ही . उसका दुख मनाना चाहिए, यह बात भी इन लोगों के दिमाग में नहीं आती. काका लिखते हैं कि-भारतीय संस्कृति, जीवन और भारतभूमि पर बराबर बोलते रहने वाले, मुझे इस दीप विहीन जीवन की तब कल्पना ही नहीं थी. थोड़ी देर सोचने पर मुझे लगा कि, वस्तुतः इन लोगों पर तरस खाने के बदले मुझे खुद अपने आप पर ही तरस खाना चाहिए.

कवि नरेश मेहता कहते हैं कि जैविकता में संस्कार भरने के लिए ही यह उद्घोष किया गया है. जीवन का प्रायोजन ही काव्य है. असुरतत्व से सुरत्व की ओर जाना ही काव्यात्मकता है और उपनिषद उसे ही ‘तमसो मा ज्योर्तिगमय’ कहता है. यह एक आह्वान जगाने का काम है, ताकि हमारे शब्द, रूप, सत्य, प्रकाश को अमरत्व ऋतु रूप में प्रस्थापित किया जा सके. प्राकृतिक प्रकाश में मनुष्यता होती है, तो प्राकृतिक अंधकार में आत्मीयता का वाश होता है. यह अंधकार चिंतन का अवसर प्रदान करता है. अंधकार आत्मनिरीक्षण का स्थान है. जब हम ज्योति की ओर गमन की बात कहते हैं, तो उसका अर्थ होता है कि भीतर के तम और कलुष को मिटाकर आत्म प्रकाश से स्वयं को आलोकित करें. अंधकार इस आत्म प्रकाश से आलोकित करने में पोषण का काम करता है. सारी रात घर में प्रकाश के तले रहनेवाला व्यक्ति को भी सोने के लिए, ध्यान-साधना के लिए अंधकार को ओढ़ना ही पड़ता है. दिन में भी सोने और साधना के लिए प्रकाश को मद्धिम कर दिया जाता है, ताकि भीतर के आलोक को उद्भाषित किया जा सके. व्यक्ति के थकान को दूर करने में जितना नींद का योगदान होता है, उतना ही उस अंधकार को भी होता है, जिसके आगोश में व्यक्ति निश्चिंत होकर सोता है.

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इसलिए कहा गया है कि अंधेरे में ऊर्जा की खोज करें, शक्ति संचय करें, तो, आलोक से जीवन भर जायेगा. अंधकार में ईश्वरीय रहस्य छिपा है. कदाचित इसी कारण ध्यान का उपयुक्त समय संधिबेला को बताया गया. जब न अंधेरा रहे, और न प्रकाश. ध्यान में व्यक्ति सदैव ही ऊर्जा के संरक्षण में रहता है. इसीलिए रात्रि पहर में, जब प्रकृति शांत होती है, हम ईश्वर के नजदीक होते हैं. मानव को ईश्वर का सान्निधय अंधेरा में प्राप्त हुआ. मुहम्मद साहब हो या संत फ्रांसिस या कोई हिंदू संत. सभी विभूतियों ने पहाड़ों की कंदराओं में साधना की और प्रकाश पाया. कहते हैं कि ईश्वर ने अब्राहम से रात में मुलाकात की थी और सिनाई के पहाड़ पर अंधेरे में मोजेज को टेन कमांडमेंट्स सौंपे थे. ईसा मसीह का पुनर्जीवन अंधेरे में हुआ, श्रीकृष्ण अंधेरे में इस धरती पर आये. सभी धर्मों ने अंधेरे में ही ईश्वर की खोज की. प्रार्थना हो या साधना, इसके लिए अंधेरे को उपयुक्त माना. अंधेरे के शून्य में ईश्वर हमारे ज्यादा समीप होते हैं. उनकी ऊर्जा का प्रवाह हम पर बेरोकटोक होता है.

रात हमारी दोस्त है. वह दिनभर के थकान को मिटाता है. दुख के आंसु को नींद की मिठास देता है. दर्द को रात में ही मरहम मिलता है. रात के अफसाने हजार हैं. वह हमारे गम को अंधेरे में छिपा लेता है. दिन तो हमसे भागता है, लेकिन रात ही है, जो हमारे साथ ठहर जाता है. खूबसूरत चांद के साथ, रात की रानी की महक के साथ, हरसिंगार से पटी धरती के साथ. झींगुर के गुनगुनाहट और जुगनू की चमक के साथ एक स्वर देता है- रात सहेली है, जल गये दीये. रात ही है, जिसमें आत्मा रूपी दीये आलोकित हो पाते हैं. दिन में समय कहां? समय है, तो चैन कहां? रात है, तो शांति है. और शांति है तो सुकून. एक रास्ता है. जब हम समस्त जीवन का विचार करते हैं, तो यह प्रतीत होता है कि जगत का अंधकार और हदय का अज्ञान दो भिन्न बातें नहीं हैं- एक ही है. अंधकार का भी उतना ही व्यापक और सार्वभौम सत्ता है, जितना प्रकाश का होता है.

यही कारण है कि बचपन में इन रातों का इंतजार रहता था. तब भरापूरा परिवार साथ होता था. मां साथ रहती थी. दादी की कहानियां रास्ता दिखाती थीं. शक्ति की एक पूंज जिसके माध्यम से सितारों में ध्रुवतारा खोजते थे. मंगल और शुक्र को तलाशते थे. उसके माध्यम से बालक ध्रुव और गुरु वृहस्पति की कहानियां सुनते थे. पढ़ते थे. तब रात में एक प्रकाश होता था, जिसमें हम अपना संबंध बनाते थे. आज भी यह संबंध कायम है. थोड़ा परिवर्तित रूप में. तब ध्रुव तारा के बहाने रास्ता एवं दिशा का ज्ञान करते थे. आज उन्हीं तारों में हम अपने नाते रिश्तेदारों को खोजते हैं. चंदा को मामा बनाते हैं, तारे को अपने पूर्वज यानी दादा, नाना, भाई बंधु. यही तो बचपन में सिखाया और बताया गया. जो इस दुनिया से चले जाते हैं, वे ही तारे बन जाते हैं. अंधेरे में तारों के बीच मां की खोज करते हुए कब नींद आ जाती है, यह रात की ही करामात है. जीवन में हवा और पानी की तरह रात का महत्व है. ये जीवन को आयाम देते हैं. जीने का. एक विश्वास का. ठीक उसी तरह जब अंधेरी एवं बरसाती रात में बादलों से चांद झांका करता है.

अंधकार में आलोक छिपा होता है. इस आलोक की पहचान करनी होती है. महात्मा बुद्ध से जुड़ी कथा है. उनका एक परम शिष्य था आनंद. लगातार चालीस साल तक बुद्ध के साथ रहा, भीक्षा मांगी, साथ सोया, खाया और प्रवचन का लाभ लिया. वह मूलतः बुद्ध की छाया बनकर रहता था. आंनद के जीवन में बुद्धत्व की रोशनी थी. पूरे चालीस साल. जब महात्मा बुद्ध मृत्यु की यात्रा पर चलने लगे तो आनंद रोने लगा. उन्होंने बुद्ध से कहा- अब हमारे जीवन में अंधेरा छा जायेगा. तब महात्मा बुद्ध ने अंतिम देशना दिया था- आनंद! कितनी बार मैंने तुझसे कहा है- अप्प दीपो भव. अपना दीया खुद बन. तू सुनता नहीं. इसलिए रोना पड़ रहा है.

हमारी समस्या यही है कि हम खुद की सुनते नहीं हैं और न ही ऋषियों की बात मानते हैं. इसलिए हमारे जीवन में अंधेरा है. यह अंधेरा दीपों की माला से खत्म नहीं होगा. बिजली का बल्ब हो या दीये की रोशनी वह प्रकाश नहीं, वह वस्तु को देखने का माध्यम है. दीपावली बाहरी प्रकाश को उजागर करने का उत्सव नहीं, बल्कि आंतरिक प्रकाश में गमन का अवसर है. प्रकाश का अनुभव बाहर के जगत से नहीं है. महर्षि अरविंद इस स्थिति की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि जब भीतर देखा तो पता चला कि जो बाहर दिखता है वह प्रकाश नहीं, अंधकार है. बाहर जीवन भी नहीं है. उपनिषद के ऋषि कहते है कि एक सूर्य को हम जानते हैं, लेकिन ऐसे अनंत सूर्य इस सृष्टि में आलोकित है. लेकिन उसको हम आकाश का तारा कह देते हैं, जो हमारे सूर्य से बहुत बड़ा सूर्य है. अतएव वे प्रार्थना करते है कि हमें अंधकार के बाद, प्रकाश के पार तू ले चल, ताकि उस शाश्वत सत्य का दर्शन हो सके.

हमारे भीतर तम का साम्राज्य है. अंधकार का बसेरा है. वह बाहर की रोशनी से नहीं मिटती है. सच्चाई यह है कि बाहर जितनी रोशनी होगी, हमारा अंधकार और स्पष्ट होता जायेगा.

आइंस्टीन ने एक बात कही- जब मैने विज्ञान की खोज शुरू की थी, तो मैं सोचता था कि आज नहीं तो कल, सब जान लिया जायेगा. लेकिन सब जानने के बाद यह पता चलता कि जो जानने को शेष रह गया है, वह इतना ज्यादा है कि उसकी तुलना भी असंभव है. मरने के पहले आइंस्टीन ने कहा कि मैं एक रहस्यवादी की तरह मर रहा हूं. जबकि वे खुद महान वैज्ञानिक थे. पश्चिम के एक और वैज्ञानिक एडिंग्टन ने अपने संस्मरण में लिखा है कि जब मैंने सोचना शुरू किया था तो मैं समझता था कि जगत एक वस्तु है, लेकिन अब मैं कह सकता हूं कि यह दुनिया ज्यादा और ज्यादा एक वस्तु से बढ़कर विचार प्रतीत होता है. इसलिए जगत को रोशनी से प्रकाशित करने से अच्छा है कि हम अपने विचार को, अपनी दृष्टि को प्रकाश से आलोकित करें.

ऋषियों की वाणी है कि हे प्रभु! मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल. इसका तात्पर्य है कि हमारे जीवन में प्रकाश का अभाव है और इसलिए अंधकार का अस्तित्व है. अंधकार तो केवल अभाव है. कोई स्थिति नहीं और न ही कोई इसकी सत्ता है. व्यक्ति इस बात को समझता नहीं है और प्रकाश का बात करता है. हम अधंकार को हटा नहीं सकते, अगर ऐसा होता तो कचरे की तरह इसे हम सड़क पर बिखेर देते. बात सहज है कि हमें प्रकाश का ज्ञान नहीं है. हमारी यात्रा अभी अंधकार, अभाव और उसकी अभिव्यक्ति तक ही सिमटी है. हमें याद है बचपन में हम प्रार्थना करते थे- आलोकित पथ करो, हमारा हे जग के अंतरयामी! हम बोध की बात करते हैं. हम प्रार्थना में उस ज्ञान की बात करते हैं, जिसकी प्राप्ति के पश्चात जीवन में सदैव प्रकाश का वास होता है.

जीवन का हरेक क्षण दीपावली हो, प्रकाश से आलोकित हो. इसके लिए दीप जलाने या मनुष्य को अच्छा बनाने की जरूरत नही है, बल्कि उसको आंतरिक स्वभाव के साथ जीवन जीने की जरूरत है. कोई चेष्टा नहीं, बल्कि सहज बहाव को सरल करने की जरूरत है. सहज रहने का अर्थ है कि निर्दोष भाव से रहना. इस जगत में सबकुछ सहज है. वृक्ष सहज है, पशु-पक्षी सहज है. सिर्फ मानव ही असहज है. असहजता कहां से आती है? यह आती है कि जो हम नहीं हैं, वह दिखाने की कोशिश करें. आजकल दीवाली इस असहज प्रकाश की खोज का उत्सव बन गया है. जीवन में आलोक कम है, लेकिन घर एवं परिवेश को ऐसा दीप से जगमगाने का प्रयास करते हैं कि बस सब कुछ सुंदर हो गया. ज्ञान कम है, लेकिन विद्वान बनने का प्रयास होता है. व्यक्ति सहज तभी होगा, जब वह अहंकार की यात्रा छोड़ देगा.

हमने कभी प्रकाश नहीं देखा, लेकिन सदैव प्रकाश की बात करते हैं. हमने केवल प्रकाशित चीजें देखी हैं. जब अंधेरा होता है, तो कुछ नहीं दिखता. उसी प्रकार जब दुनिया में सूर्य का प्रकाश आता है, तो हम पेड़, खेत, जंगल, आग, नदी, व्यक्ति, खाना आदि देखते हैं. यह प्रकाश नहीं, प्रकाशित वस्तुएं हैं. यही कारण है कि उपनिषद में प्रकाश के बाद सत्य और सत्य के बाद अमरता की यात्रा की बात है. इसका अर्थ है. इसी की ओर महात्मा बुद्ध इशारा करते हैं कि जाओ भीतर और देखो, आलोक ही आलोक है. वही सत्य है. पूरी सृष्टि आलोक, सत्य और अमरता पर आश्रित है. यह हमारी दृष्टि का दोष है कि हम अंधकार, असत्य और मृत्यु को देखते हैं, लेकिन इसकी अनुभूति दीप, ट्यूबलाइट या सूर्य के प्रकाश से संभव नहीं है. इसके लिए अंतर्यात्रा करनी होगी. आत्मसाक्षात्कार करना होगा. तभी शाश्वत आलोक से हमारा जीवन प्रकाशित हो सकेगा.

डॉ मयंक मुरारी

संपर्क : तेलपा निवास, नजदीक एच /116 ए0जी0 क्वार्टर के समीप

हिनू चौक, पोस्ट-डोरंडा, रांची-834002, झारखंड

मो. – 9934220630

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