जिस तरह अंग्रेजी भाषा को सफलता की एकमात्र सीढ़ी समझने से हम अपनी भाषा-बोली से अनायास कट जाते हैं, वैसा ही कुछ खानपान के संसार में भी संकट पैदा होता दिख रहा है. आजकल पर्यटन उद्योग से जुड़ी पत्रिकाओं में यह शोर बहुत है कि भारतीय जायके विदेशों में कितने लोकप्रिय हो रहे हैं. इसे खानपान के क्षेत्र में भारत की दिग्विजय के रूप में प्रचारित किया जा रहा है. पर जरा ठंडे दिमाग से विचारने की जरूरत है कि क्या वास्तव में भारतीय खाना जग जीत रहा है? औपनिवेशिक काल से ही भारतीय भोजन विदेशों में पहुंच चुका था और तेज मिर्च-मसाले पचा सकने वाले जवां मर्द इसे अपनी मर्दानगी के सबूत के रूप में नुमाइशी तौर पर खाते नजर आते थे. इनमें अधिकतर ब्रिटेन के फुटबॉल प्रेमी होते थे या फिर अवकाश प्राप्त औपनिवेशिक शासक, जिन्हें भारत में बिताये दिन बीच-बीच में याद आते रहते थे. साथ ही, इन्हें प्रवासी दक्षिण एशियाई लोगों के लिए खाने की सस्ती जगह समझा जाता था. पिछले कुछ दशकों में यह स्थिति तेजी से बदली है. कोविड महामारी के बाद लंदन के अलावा अमेरिका और कनाडा में दुकानों का किराया बहुत महंगा होने पर सिर्फ पंजाबी बटर चिकन, माह दी दाल या बांग्लादेशी फिश करी बेचने वालों ने अपना कारोबार समेटना ही बेहतर समझा. मगर अब तक अमेरिकियों और यूरोपीयों की एक ऐसी संपन्न ग्राहकों की पीढ़ी प्रकट हो रही थी, जो भूमंडलीकरण के दौर में विश्व भ्रमण कर यह जानने लगी थी कि भारतीय जायके सिर्फ करी तक सीमित नहीं.
विदेश में भारतीय जायकों को लोकप्रिय बनाने वाले कई मशहूर शेफ समझ चुके थे कि आज महंगे से महंगा खाना ही उन्हें कामयाब बना सकता है. जापानी, कोरियाई मिशलिन तारा छाप रेस्तरां में उन्होंने भारतीय जायकों को नयी शक्ल देना शुरू किया. फ्यूजन शैली में बने ये व्यंजन नाममात्र के लिए ही भारत से जुड़े हैं. विडंबना यह है कि आज इसी को अंतरराष्ट्रीय मानक समझा जाने लगा है. भारत में भी इन मशहूर हस्तियों के नकल की प्रवृति बढ़ रही है. यह चिंता का विषय है कि विदेशों से आयातित भारतीय जायकों के सामने हमारे अपने जायके और जाने-पहचाने व्यंजन कब तक टिके रह सकेंगे?
हमारा यह मानना कतई नहीं कि खानपान निरंतर विकसित और परिवर्तित नहीं हो सकता. जरा यह याद करें कि आजादी और विभाजन के पहले तंदूरी या दक्षिण भारतीय व्यंजन कितने दुर्लभ थे. भारत आज सबसे बड़ी आबादी वाला देश है और यहां के निवासी इस विशाल देश के विविध जायकों के जरिये अपनी पहचान से परिचित हो रहे हैं, अपनी जड़ों को टटोलते हुए. जिस तरह अंग्रेजी भाषा को सफलता की एकमात्र सीढ़ी समझने से हम अपनी भाषा-बोली से अनायास कट जाते हैं, वैसा ही कुछ खानपान के संसार में भी संकट पैदा होता दिख रहा है. जब तक बात करी की होती थी, तो मटन, चिकन, फिश और एग करी के साथ कुछ न कुछ रिश्ता विदेशी करी का जुबान पर महसूस किया जा सकता था, हालांकि कोरमे, कलिये और सालन की यादें धुंधलाने लगी थी. आज विदेशों में जो सामिष या निरामिष जायके लोकप्रिय हो रहे हैं, उनका कोई नाता भारत में जो खाया जा रहा है, उससे बहुत कम रह गया है.