सराये नहीं बिसरते वे दिन जब शादी की गहमागहमी के साथ टोकरियों में बंधती देशी मिठाइयों की गंध नथुनों में भर भर उठती और कौतूहल व उत्साह से सराबोर मन बिना चखे ही पिटारी में बंधी मिठाइयों का स्वाद भीतर तक उतार लेता. बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में वैवाहिक और मांगलिक अवसरों पर देशी मिठाइयों की अपनी विशेष महत्ता रही है. खाजा हो या गाजा, अनरसा हो या टिकरी, बूंदी के लड्डू हो या ठेकुआ, इनके बिना शादी की कोई रस्म ही पूरी नहीं मानी जाती. महीनों पहले पिटारी बनवाने से लेकर हलवाइयों से सौदेबाजी शुरू हो जाती. बेटी की विदाई में जितनी ज्यादा टोकरी, उतना ज्यादा रुतबा.
विदाई के साथ भेजी जाने वाली इन मिठाइयों को शगुन के तौर पर माता-पिता के घर से भेजा जाता था, जिसे सगे-संबंधियों और आस-पड़ोस में बांट दिया जाता. मान्यता थी कि पिटारियों में बंद मिठाइयां बेटी के जीवन में खुशहाली लायेंगी. बहुत पहले जब बफे या कैटरिंग का चलन नहीं था और जमीन पर पंगत लगाकर पत्तल पर खाना परोस बारातियों का स्वागत होता था. पत्तल में मिठाइयां भी होती थीं. मिठाइयों की संख्या से घरातियों की समृद्धि का आकलन किया जाता था. मड़वे से लेकर हर रस्म में ये मिठाइयां अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज करातीं. हालांकि हमारे यहां हर खुशी के मौके पर मिठाइयां खाने और खिलाने का सिलसिला रहा है लेकिन शादी की मिठाइयां अनूठी मानी जाती थीं. उनके स्वाद और सृजन की प्रक्रिया का कोई जोड़ नहीं था. जो अनुपम स्वाद इन मिठाइयों से मिलता है, वह बड़े बड़े रेस्त्रां भी नहीं दे पाते.
संस्कृति ने अपने तेवर और परंपरा के हिसाब से इन मिठाइयों को विवाह में भेजने का चलन भी संजो रखा था. मसलन बंगाल में छेने की मिठाइयां, तो पंजाब में खोये की तथा दक्षिण भारत में अन्न से बनी मिठाइयां भेजे जाने का चलन था. ओडिशा और बंगाली मिठाई के विपरीत बिहार की मिठाइयों में अधिकतर शुष्कता होती थी- लौंगलता, खुरमा, बालूशाही, अनरसा, खाजा, मोतीचूर का लड्डू, काला जामुन, केसरिया पेड़ा, परवल की मिठाई, खुबी का लाई, बेलग्रामी, तिलकुट, ठेकुआ और छेना मुर्की. बिहार के नालंदा से सिलाव का खाजा, मनेर से लड्डू, विक्रम से काला जामुन, बाढ से खोबी का लाई, गया से तिलकुट और केसरिया पेड़ा, हरनाम से बालूशाही और कोइलवर से छेना मुर्की खासतौर से स्थानीय हलवाई से मंगायें जाते और बेटी की विदाई में भेजा जाता.
समय के साथ इन देशी मिठाइयों का स्वाद भी कहीं गायब हो गया है. टिकरी और गाजा तो विलुप्त ही गये हैं. देशी खाजा भी अब नहीं दिखता. बेटियों की विदाई में न टोकरी बांधने की परंपरा रही, न संबंधियों को देशी मिठाइयां भेंट में देने का चलन. डिब्बाबंद देशी मिठाइयों ने इनके स्वाद और लालित्य दोनों को खत्म कर दिया. क्या मिठाइयों की वो गंध कभी लौट पायेगी! क्या नथुनों में समायी वह गंध क्या फिर हमें भीतर तक सराबोर कर पायेगी? क्यों न इस बिसरी परंपरा को फिर से संजोया जाए? क्यों न खाजा को विवाह का सिरमौर बनाया जाए? यह हो सकता है.