Happy Holi 2021, Date, Jharkhand, Baba Baidyanath Dham, Holi Utsav At Deoghar, Significance, History, Story: गोरी गंगा व मटमैली नारायणी के संगम पर बसा हरिहर क्षेत्र सोनपुर और यहां बिराजते बाबा हरिहरनाथ. हर तरफ होली का उल्लास और उसमें गूंजते बाबा हरिहरनाथ के फगुआ गीत. हरिहरक्षेत्र सोनपुर की होली की अपनी विशिष्ट पहचान और परंपरा रही है. बाबा हरिहरनाथ के बिना यहां की होली रंगीन नहीं होती. बाबा हरिहरनाथ से जनमानस का सीधा जुड़ाव ही इसका मुख्य कारण है. इसके पीछे पौराणिक कथा एवं बेहद समृद्ध परंपरा है.
गुलाल-अबीर एवं पुष्पों से निकाले गये सुगंधित और पवित्र रंगों से सर्वप्रथम सोनपुरवासी बाबा हरिहरनाथ का तिलक-अभिषेक करते हैं. रंग-बिरंगे परिधानों में सज-संवरकर समूह में झाल-करताल, ढोलक-नगाड़े, डफ, मंजीरा आदि वाद्य यंत्रों के साथ बाबा हरिहरनाथ के दरबार में जाकर माथा टेकते.
शीश नवाकर सादर अबीर-गुलाल और प्रसाद समर्पित करते और उसके बाद शुरू होता है फगुआ गाने-बजाने का सिलसिला. फगुआ का शुभारंभ भी बाबा हरिहरनाथ को समर्पित होली गायन से ही होता है. देखिए कितना आनंदायी होली गीत- ‘सोनपुर में होली खेले महादेव… सोनपुर में होली खेले, बाबा हरिहरनाथ, सोनपुर में होरी खेले, हो होली खेले बाबा हरिहरनाथ, सोनपुर में होरी खेले….’
डेढ़ ताल के इस फगुआ के अलावा इसी तर्ज पर एक और होली गीत ‘सोनपुर में रंग लूटे महादेव बाबा हरिहरनाथ’ की अपनी धरती की सोंधी सुगंध और मिठास का बोध कराता है. इस मिठास को जिसने भी चखा, वह हरिहर के रंग में रंग गया. इन गीतों की गूंज बिहार की सीमाओं को पार कर यूपी, झारखंड, दिल्ली सहित समूचे भारत, यहां तक कि मॉरिशस तक है.
जब समूचे हरिहर क्षेत्र की धरती वसंतोत्सव पर झूम रही हो, ऐसे में भला जन-जन के हृदय में समाये बाबा हरिहरनाथ (हरि और हर) इस वासंतिक उल्लास से अछूते कैसे रह सकते हैं, क्योंकि वे भी तो हरिहरक्षेत्र सोनपुर के ही वासी हैं. हरिहरनाथ मंदिर के मुख्य अर्चक सुशील चंद्र शास्त्री बताते हैं कि वसंत के आगमन के साथ ही फगुनाहट शुरू हो जाती है. इन अवसरों पर गाये जाने वाले फगुआ गीतों का अपना ही एक विशिष्ट अंदाज है. इसी अंदाज में बाबा हरिहरनाथ से जुड़े एक और होली गीत में कई शैव स्थानों और उनमें स्थापित शिव के विविध नाम व स्वरूपों को पिरोया गया है. ‘गया में खेले गया गजाधर, काशी में विश्वनाथ, सोनपुर में होरी खेले बाबा हरिहरनाथ…’ इन गीतों के हर अक्षर में रचे-बसे रंग-रंगीले बाबा हरिहरनाथ आखिर हैं कौन? संपूर्ण ब्रह्मांड के स्वामी त्रिदेवों में से दो यहां एक ही जगह एक ही मंडप में एक साथ विराजमान हैं.
एक सृष्टि के पालनहार, चक्र सुदर्शनधारी, गरुड़ की सवारी करनेवाले लक्ष्मीपति श्री हरि (विष्णु) हैं, तो दूसरे उन्हीं के सामने नटराज भोलेनाथ (हर) जो प्रलयकाल के स्वामी भी हैं, शिवलिंग स्वरूप में मौजूद हैं. हरिहर भक्तों की दृष्टि में स्वयं भगवान श्री हरि (विष्णु) एवं भगवान श्रीहर (शिव) की कृपा दृष्टि का फल है उनका यहां एक साथ होना. सोनपुर की धरती पर उनका अवतरण का साक्षी है बाबा हरिहरनाथ की एक ही मंडप में अवस्थित.
इतिहासकार व क्षेत्र के पौराणिक तथा अाध्यात्मिक पक्ष पर शोध कर चुके अवध किशोर शर्मा बताते हैं कि बाबा हरिहरनाथ की उपस्थिति का जीता-जागता साक्षी है गंगा एवं गंडक नदियों का यहां संगम स्थल. गंडक नारायणी कही जाती हैं, क्योंकि भगवान श्रीनारायण शालिग्राम रूप में उसके गर्भ में निवास करते हैं, तो गंगा हर जटाजुटवासिनी हैं. अर्थात दोनों ही हरि और हर के प्रतीक रूप में हरिहरक्षेत्र की भूमि पर मौजूद हैं. यही कारण है कि सोनपुर की होली में हरि भी हैं और हर भी. चारों वर्णों का सम्मिलित पर्व है होली और उसके देव हैं बाबा हरिहरनाथ. ऐसे में बाबा हरिहरनाथ का फागुन माह में सोनपुर में रंग लूटने की मानवोचित कथ्य सही ही है, क्योंकि वे भी एकता और अखंडता के ही देवता या ईश्वर हैं.
हरिहरक्षेत्र के होली गीतों की अपनी विशेषता है. हरिहरनाथ मंदिर न्यास समिति के सचिव विजय सिंह लल्ला के अनुसार, इन गीतों में अतीत के दुःखदायी पलों को बिसराने और हिंदू नववर्ष से पहले तैयारी का सुअवसर भी है होली. जिस तरह मोती-मानिक गूंथ-गूंथ कर माला पिरोया जाता है, उसी तरह भोजपुरी और मैथिली के गायक-गायिकाओं ने बिहार के प्रसिद्ध शैव स्थानों को इन्हीं होली गीतों में माला की तरह पिरोकर व्यापक बना दिया. खेसारी लाल यादव, पवन बाबू, रामेश्वर गोप, विपुल बिहारी, चंदन श्रीवास्तव, माधव राय, रामसेवक ठाकुर, कल्पना पटवारी, विष्णु तिवारी, नवनीत झा, रिया सिंह, विजय सिंह, अमित उपाध्याय एवं मैथिली ठाकुर आदि कलाकारों ने बाबा हरिहरनाथ की होली को दूर-दूर तक पहुंचाने का काम किया.
पौराणिक काल में दक्षिण से उत्तर तक वैष्णवों और शैवों के बीच मत-मतांतर के बहुत सारे दृष्टांत मिलते हैं. कहते हैं कि जिस स्थान पर आज बाबा हरिहरनाथ का मंदिर है, उसी के आसपास दक्षिण और उत्तर भारत के वैष्णव एवं शैव विद्वानों का महासम्मेलन हुआ था, जिसमें आपस में नहीं लड़ने पर सहमति बनी थी.
विद्वानों ने मत प्रकट किया था कि हरि और हर दिखते तो अलग-अलग हैं, पर वे वास्तविक रूप में एक ही हैं. ऐसे में दोनों की सम्मिलित मूर्ति और लिंग की स्थापना एक ही मंडप में कर उनकी पूजा-अर्चना की जाने लगी और इन दोनों की सम्मिलित शक्ति का यह केंद्र स्थल हरिहरनाथ और उसके आसपास का संपूर्ण इलाका हरिहर क्षेत्र के रूप में विख्यात हुआ. शैवों और वैष्णवों के बीच की कटुता का भी अंत हो गया और हरिहरक्षेत्र भारत के सप्त महाक्षेत्रों में शामिल हो गया.
वाराह पुराण ने भी श्रीहरि और श्रीहर के यहां आगमन का समर्थन किया है. वाराह पुराण के अनुसार, भगवान श्री विष्णु एवं भगवान शंकर के यहां चरण पड़ने के कारण ही इस क्षेत्र का नाम ‘हरिहरक्षेत्र’ पड़ा. इस मंदिर में स्थापित विष्णु मूर्ति और शिव लिंग से परस्पर एकता और सहअस्तित्व का बोध होता है. खास बात यह है कि वैष्णवों और शैवों के बीच परस्पर प्रेम और सौहार्द बढ़ने का ही प्रतिफल है कि सैकड़ों वर्षों तक हरिहरनाथ की पूजा-अर्चना शैव भक्तों व पुजारियों के हाथ में था. अब यह मंदिर सरकारी ट्रष्ट के अधीन है.
आज भी बैद्यनाथधाम देवघर में श्रीहरि की कृष्ण मूर्ति को होली के त्योहार पर पालकी में बिठा कर वैद्यनाथ के मंदिर में ले जाया जाता है और हरि-हर मिलन कराया जाता है. दोनों की ओर से दोनों के विग्रह पर अबीर-गुलाल चढ़ाये जाते हैं.
होली मान्यता है कि वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की स्थापना के पूर्व ही इस ‘हृदय-पीठ’ शक्तिस्थल में जगदम्बा कामाख्या का आगमन हो चुका था. जगदम्बा कामाख्या की कृपा से ही बाबा-बैद्यनाथ आज देवघर में विराजमान हैं. वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग को ग्रहण करने से पूर्व रावण ने जल लेकर आचमन किया था.
श्रीहरि की प्रेरणा से उस आचमन-जल के साथ वरुण ने रावण के उदर में प्रवेश किया. इसके कारण स्वरूप लघुशंका से पीड़ित रावण को झारखंड-वन ‘हरिलाजोड़ी’ में ज्योतिर्लिंग के साथ उतरना पड़ा. इधर जगदम्बा कामाख्या ने श्रीहरि को हरिलाजोड़ी भेज दिया था. श्रीहरि गोप-वेश धारण कर वहां गाय चराने लगे.
बाबा भोलेनाथ ने रावण से कह दिया था कि यदि इस ज्योतिर्लिंग का स्पर्श भूमि से होगा तो यह लिंग उसी स्थल पर स्थिर हो जायेगा. इसी शर्त को ध्यान में रखकर रावण ने ज्योतिर्लिंग वैद्यनाथ को चरवाहे श्रीहरि को सौंपते हुए कहा कि इसे भूमि पर मत रख देना. ऐसी चेतावनी देकर रावण लंबे समय तक लघुशंका-निवृत्ति के लिए बैठा रहा. पहला हरि-हर मिलन हरिलाजोड़ी में हुआ. वहां से चलकर श्रीहरि ने सती के हृदय-पीठ में वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग को विधिवत स्थापित कर दिया. उसी दिन होली का त्योहार था. इसी होली के अवसर में हरि-हर मिलन हुआ था और श्रीहरि ने हर के साथ यहां होली खेली थी.
आज भी बैद्यनाथधाम देवघर में यह परंपरा कायम है. आज भी होली के अवसर पर हरि-हर मिलन कराया जाता है. प्रशासनिक भवन (भीतरखंड) में स्थित श्रीहरि की कृष्ण मूर्ति को होली के त्योहार पर पालकी में बिठाकर वैद्यनाथ के मंदिर में ले जाया जाता है और हरि-हर मिलन कराया जाता है. दोनों की ओर से दोनों के विग्रह पर अबीर-गुलाल चढ़ाये जाते हैं. हरि और हर एक दूसरे के साथ होली खेलते हैं. पूरे विधि-विधान से यह हरि-हर मिलन संपन्न होता है.
इसके उपरांत कन्हैयालाल को पालकी में बिठाकर सदर बाजार ले जाया जाता है. वहां एक भवन में कन्हैयाजी को झूला झुलाया जाता है. जय-जयकार की तुमुल ध्वनि के साथ बड़ी भारी भीड़ चलती है. हरि-हर मिलन के उपरांत ही वैद्यनाथ देवघर में होली का त्योहार मनाया जाता है. यह इस वैद्यनाथधाम के हरि-हर मिलन का इतिहास है, जो होली के अवसर पर ही घटित हुआ था.
Posted By: Sumit Kumar Verma