हिंदी कहानी : उसकी प्रतीक्षा
पूर्णिमा के पिता प्रखंड विकास पदाधिकारी थे. हाल ही में उनका तबादला सीतामढ़ी जिले के एक प्रखंड में हुआ था. यह एक निपट गाँव था, जहाँ बीडीओ साहब के लिए एक साधारण कच्चा-पक्का मकान था. सामने ही साहब का कार्यालय और गार्ड्स का आवास था.
सुबह के आठ बज चुके थे. पिताजी ने चाय के लिए आवाज लगाई, तो पूर्णिमा रसोईघर की ओर दौड़ पड़ी. सुबह-शाम की चाय बनाना पूर्णिमा के जिम्मे था. उसकी नीलिमा दीदी खाना बनाने में माँ का हाथ बँटाती थी. उसने जैसे ही रसोईधर की खिड़की खोली, तो हैरान रह गयी. वह विस्फटित नेत्रों से बाहर मैदान में चारों ओर देखने लगी. खिड़की से बाहर का मैदान सैंकड़ों खानाबदोशों और नटों से भरा पड़ा था. बच्चे-बूढ़े, जवान, स्त्री-पुरुष सब जैसे आनंदमग्न होकर अपने क्रिया-कलापों में लीन थे. कई नवजात शिशु चीथड़ों में लिपटे किलकालियां कर रहे थे. छोटे-छोटे मटमैले बच्चे गंदे सूअरों और कुत्तों के साथ खेल रहे थे. पूर्णिमा कौतुक भरी दृष्टि से उन्हें निहार रही थी. फिर उसने चाय बनाकर खिड़की बंद कर दी.
मां ने बताया- ‘‘ये कंजड़ हैं, एक स्थान पर टिककर नहीं रहते. एक-दो रोज में यहाँ से चले जाएँगे. तुम उन पर ध्यान मत दो.’’
पूर्णिमा के पिता प्रखंड विकास पदाधिकारी थे. हाल ही में उनका तबादला सीतामढ़ी जिले के एक प्रखंड में हुआ था. यह एक निपट गाँव था, जहाँ बीडीओ साहब के लिए एक साधारण कच्चा-पक्का मकान था. सामने ही साहब का कार्यालय और गार्ड्स का आवास था. पूर्णिमा जब भी बाहर बरामदे या अहाते में कदम रखती तो मूँछवाले, मोटे-तगड़े सिपाही घूर-घूर कर उसे देखने लगते और वह तुरंत अंदर चली आती. घर के सबसे पिछले भाग में रसोईघर था और उसकी खिड़की के बाहर एक सुविस्तीर्ण मैदान था. वह अक्सर उसी खिड़की से बाहर देखती रहती.
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मैदान में एक कतार में खड़े ताड़ के ऊंचे-ऊंचे वृक्ष, एक पीपल और एक बरगद का पेड़ तथा अन्य छोटे पेड़-पौधे एवं झाड़ियां थीं. गाय-भैसों के रहने का एक फूस का घर भी था, जिसकी छप्पर पर कद्दू की बेलें छाई हुई थीं. शायद पानी जमने के कारण मैदान में एक पोखर-सा भी बन गया था, जहाँ बच्चे पानी से खिलवाड़ करते. पशु-पक्षियों की क्रीड़ाओं और कलरव से भी वहाँ का वातावरण गुंजायमान रहता.
पूर्णिमा को यह सब देखना बहुत अच्छा लगता था. उसकी नीलिमा दीदी की रुचि पढ़ाई में ज्यादा थी. वह कोर्स की किताबों के अलााव उपन्यास वगैरह पढ़ने में मशगूल रहती थी. बाहर की दुनिया से उसे कोई मतलब नहीं था.
शाम को ढोलक, झाल के साथ लोकगीत की ध्वनि कानों में गूँजने लगी तो पूर्णिमा ने पुन: खिड़की खोल दी. देखा, कुछ स्त्रियाँ ढोलक और झाल बजाकर सामूहिक गीत गा रही थीं. साथ-साथ छोटे-छोटे बच्चे नाच रहे थे. बीच में एक किशोर खूब कमर लचकाकर नाच रहा था. स्त्रियों ने चाँदी और ताँबे के भारी गहने तन पर धारण कर रखे थे. दूसरी ओर मिट्टी के चूल्हे में लकड़ी और गोयठे से आग जल रही थी और अल्युमिनियम की हांडी में खाना पक रहा था. कुछ लोग आग में छोटे-छोटे जीव-जंतु भी पका रहे थे. खुले आसमान के नीचे ये लोग इस तरह हँसते-गाते समय बिता रहे थे कि पूर्णिमा विस्मित होकर उन्हें देख रही थी.
दूसरे दिन नीलिमा दीदी को देखने वर पक्ष के लोग आए हुए थे. सुबह से ही पूर्णिमा घर की साज-सज्जा में लगी हुई थी और दीदी की तैयारी में भी सहयोग दे रही थी. आज वह पीछे के मैदान का नजारा न देख पाई, पर वह प्रसन्न थी कि लड़के वालों ने दीदी को पसंद कर लिया था.
अगली सुबह जब पूर्णिमा उठी और चाय बनाने रसोईघर गई तो उत्सुक होकर खिड़की खोली. ओह! यह क्या? पूरा मैदान खाली पड़ा था और चारों ओर कूड़ा-कचरा फैला हुआ था. न जाने क्यों, वह खिन्न-सी हो उठी और अपने कमरे में लौट आई. किंतु जब शाम में उसने खिड़की खोल कर देखा तो उसकी निगाहें उस ओर अटक गईं. मैदान साफ था और बाँस की तीलियों से बना एक नन्हा-सा घर उसके रसोईघर के ठीक सामने स्थापित हो गया था. थोड़ी दूर पर पेड़ से एक भैंस और एक बकरी बँधी हुई थी. एक स्त्री खूब चमकाकर बर्तर माँजकर रख रही थी. उसने एक पर एक हांडी चढ़ा कर पानी भर रखा था. पूर्णिमा ने ध्यान से देखा तो यह वही स्त्री थी, जो पिछली शाम ढोलक बजाकर गा रही थी. तभी वह किशोर जो उस समय कमर चलकाकर नाच रहा था, माथे पर लकड़ियों का गट्ठर लेकर आया. वह बिल्कुल काला था, पर होंठ लाल थे. उसके काले, घने बाल थे और आँखों की पिपनियाँ इतनी घनी थीं कि लग रहा था उसने काजल पहन रखा हो. उसने पूर्णिमा को अपनी ओर देखते हुए लक्षित किया तो उपेक्षा से आँखें फेर कर माँ से कहा- ‘‘शकरकंद उबाल दे, भूख लगी है.’’
सावन ने दस्तक दे दी थी. रिमझिम की बूँदे पड़ीं और मिट्टी से सोंधी खुशबू उठने लगी. पूरब की शीतल बयार मन-प्राणों को आह्लादित करने लगी. और फिर एक दिन तेज बारिश में आफताब पानी की झड़ी से खेलता हुआ मस्ती में नहा रहा था. पूर्णिमा का भी मन हो रहा था बारिश में भींगने का, वर्षा के जल से खेलने का, पर गाँव में बीडीओ साहब की सयानी बेटी बाहर कैसे जाए?
फिर वह तेल आवाज में ‘दुनिया बनाने वाले, काहे को दुनिया बनाई’ गाता हुआ, उछल-कूद करता हुआ पेड़ की डाल पर बैठ गया.
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‘‘आफताब, इस समय पेड़ पर क्यों चढ़ गया बेटा? अब शाम होने को आई, चल उतर.’’
पूर्णिमा ने सोचा, सारे खानाबदोश चले गये, पर इन माँ-बेटे ने तो यहाँ बसेरा बना लिया है. यद्यपि आफताब को देख कर पूर्णिमा को चिढ़-सी होती थी, पर उसकी हरकतों को देखे बिना उसे चैन भी नहीं पड़ता था. उसका लकड़ियाँ काटना, कसतर करना, पेड़ पर चढ़कर बंदर की तरह हरकतें करना, काम में माँ की मदद और उनसे प्यार भरी शरारतें करना, जानवरों से भी छेड़छाड़ करना इत्यादि…. पूर्णिमा सब कुछ देखती रहती.
सावन ने दस्तक दे दी थी. रिमझिम की बूँदे पड़ीं और मिट्टी से सोंधी खुशबू उठने लगी. पूरब की शीतल बयार मन-प्राणों को आह्लादित करने लगी. और फिर एक दिन तेज बारिश में आफताब पानी की झड़ी से खेलता हुआ मस्ती में नहा रहा था. पूर्णिमा का भी मन हो रहा था बारिश में भींगने का, वर्षा के जल से खेलने का, पर गाँव में बीडीओ साहब की सयानी बेटी बाहर कैसे जाए?
खिड़की से वर्षा की फुहारें हौले-हौले उसके तन को भिंगो रही थीं.
‘‘क्या देख रही हैं मेम साहब? जाइए खिड़की बंद कर दीजिए. पानी के छींटे कहीं आपको बीमार न कर दें. हम ठहरे कुदरत की गोद में खेलने वाले प्राणी, हमें कुछ नहीं होता.’’ पूर्णिमा वहाँ से भाग खड़ी हुई.
कभी-कभी बारिश में आफताब घास-फूस की अपनी छोटी-सी कुटिया से कछुए की तरह सिर निकाल कर पानी की झड़ी से खिलवाड़ करता. माथे पर डलिया डालकर अजीबोगरीब मुख-मुद्राएँ बनाता. यह सब देख कर पूर्णिमा को ईर्ष्या होती. कितने मजे हैं इसके! खुल कर प्रकृति के अतुल वैभव का आनंद उठा रहा है. कभी उसका मन करता वह भी उसकी छोटी-सी कुटी में घुस कर बैठ जाए. कैसा लगता होगा वहाँ? यह सोच कर उसके अधरों पर हया भरी मुस्कान उभर आती.
दिन गुजर रहे थे. आफताब ने बीडीओ साहब के चपरासी के बेटे रामू से दोस्ती कर ली थी, जो साहब की सेवा-टहल किया करता था. एक दिन उसी के साथ आफताब पूर्णिमा के घर पहुंच कर माँ से बोला- कोई काम हो तो बताइएगा, मुझे भी सेवा का मौका दीजिए, निराश नहीं करूँगा.
अब बीच-बीच में पूर्णिमा की माताजी उसे छोटे-मोटे काम सौंपने लगी, आफताब बड़ी तत्परता से उन्हें पूरा करता.
‘‘कितने काले हो तुम! किसने तुम्हारा नाम रख दिया आफताब?’’
‘‘चमड़े का काला रंग देखा है आपने. मेरे मन में सूरज का तेज है, आप नहीं देख सकतीं.’’
साँप….. साँप….. पूर्णिमा चिल्लाई, लोग दौड़े. आवाज सुनते ही आफताब एक पतली-सी लाठी लेकर आया और साँप का मुँह कुचल दिया. लीजिए… मर… गया… कितना डरती हैं आप!
जाड़ा आ गया था. पूर्णिमा गर्म कपड़ों में लिपटी खड़ी थी.
‘‘तुम्हें ठंड नहीं लगती आफताब? कितने हल्के कपड़े पहने हैं तुमने!’’
‘‘दिनभर धूप में जलता हूँ, इतनी तपिश होती है कि ठंड महसूस नहीं होती.’’
क्या करते हो तुमलोग? गुजर-बसर कैसे होती है?
हम घूम-घूम कर गाने-बजाने और जादू-तमाशा दिखाने का काम करते हैं. इसके अलावा हम भैंस भराई का भी काम करते हैं, जिससे कुछ कमाई हो जाती है.
भैंस भराई क्या?
नहीं समझीं….. हें….. हें…. और आफताब के होठों पर ऐसी हँसी और आँखों में ऐसे विद्रूप भाव कि पूर्णिमा सिर से पाँव तक काँप उठी. उसने मन-ही-मन कसम खाई कि अब इससे कभी बात नहीं करेगी.
नीलिमा दीदी की शादी का दिन आ गया. आफताब की माँ ने जाना तो पूर्णिमा की माँ से बोली- ‘‘मैं गाना बजाया करूंगी, दुआएँ दूँगी बेटी को, बुलाएँगी न?’’
पूर्णिमा की माँ ने उसे बुलाया. मंडम के दिन उसने अपनी टोली के साथ खूब ढोलक बजाई, गीत गाए और खूब नाची. माँ ने उसे रुपये और उपहार दिए तो रो पड़ी, बोली- ‘‘बड़ी किस्मत से ऐसे मुबारक दिन पर आने का अवसर मिला.’’
दीदी की शादी की रात पूर्णिमा साड़ी में सज-धजकर तैयार हुई. उसकी आँखें न जाने क्यों आफताब को ढूँढ़ रही थीं. तभी चपरासी के बेटे के साथ वह मंडप में आया. उसके हाथ में पन्ने में बँधा कुछ था. उसने कहा- ‘‘मेम साहब, ये आपके लिए… इसके बिना आपका शृंगार अधूरा होगा. आज तो आप पूनम का चाँद लग रही हैं मेम साहब.’’
पूर्णिमा का कलेजा धक-धक कर रहा था. उसने बँधे पन्ने को खोला तो देखा… फूलों का गजरा…. मह-मह करता हुआ…. खुशबू साँसों में भर गई.
उसने गजरा बालों में लगा लिया. आफताब उसे एकटक देख रहा था. उसकी दृष्टि उसके चेहरे से हटती न थी. आज उसकी आँखों में ये कैसे भाव थे कि पूर्णिमा के रोएँ सिहर उठे. समय पूर्व की तरह ससरता चला गया.
जा रहा हूँ मेम साहब, याद कीजिएगा न?
फिर कब आओगे? पूर्णिमा इतना ही कह सकी.
वह ढिठाई से हँसता हुआ बोला- अगले सावन फिर आऊँगा.
दिन गुजरे, ऋतुएँ बदलीं और फिर पुरबा बयार के साथ गिरने लगीं वर्षा की बूंदें. फिर उठी मिट्टी की सोंधी खुशबू और मन मचलने लगा.
अचानक खबर मिली कि पेड़ से गिर कर पत्थर से सिर में चोट लगने के कारण आफताब की मौत हो गई.
पूर्णिमा खिड़की से बाहर सुविस्तीर्ण मैदान की ओर देख रही थी.
सावन आ गया था, पर वो नहीं आया.
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