याद है मुझे बचपन का जमाना, नाचना गाना, बारिश में नहाना…
हर ऋतु के अपने रंग होते हैं, जो यादों के कैनवास पर उतर ही आते हैं. बात मानसून की पहली-पहली बारिश की हो, तो दिल उसी बचपन को तलाशने लगता है, जो पीछे कहीं छूट चुका है. आज अपनी खिड़की, बालकनी से मानसून की जिस बारिश को निहारकर हम चुप रह जाते हैं.
हर ऋतु के अपने रंग होते हैं, जो यादों के कैनवास पर उतर ही आते हैं. बात मानसून की पहली-पहली बारिश की हो, तो दिल उसी बचपन को तलाशने लगता है, जो पीछे कहीं छूट चुका है. आज अपनी खिड़की, बालकनी से मानसून की जिस बारिश को निहारकर हम चुप रह जाते हैं, बचपन में उसी बारिश में भींगने के लिए मन बावला हुआ करता था. बारिश में भींगना, बहते पानी में कागज की नाव दौड़ाना और उसे दूर तक तैरता हुआ देखना, एक अलग ही अनुभूति होती थी. इन यादों को फिर से जी कर देखिए!
बारिश की बूंदें बचपन की याद ताजा कर देती है
मानसून की पहली बारिश की बात ही निराली है. इससे जुड़ी हुई सबकी अपनी कोई न कोई यादें हैं, कहानियां हैं. सचमुच में बारिश में भींगना, बहते पानी में कागज की नाव दौड़ाना और उसे दूर तक तैरता हुआ देखना, एक अलग ही अनुभूति होती थी. आज जब बारिश की बूंदें बदन को छूती हैं, तो दिल उसी बचपन को तलाशने लगता है. वो वक्त था जब रिश्ते सच्चे और दोस्ती पक्की वाली होती थी. दो ऊंगलियों के आपस में जुड़ने से पक्के दोस्त बन जाते थे. बचपन के झगड़ों में एक सौगंध सारा सच उगलवा देती थी. बारिश में भीगते हुए स्कूल जाना, सारा दिन स्कूल की छत से टपकते पानी से पूरी क्लास भीगा देना… कई बार तो स्कूल पहुंचने के बाद ही बारिश होती थी और हम अफसोस करते रह जाते. स्कूल की छुट्टी होती, तो बारिश आने की दुआ करते थे, ताकि हम भीगते हुए घर जा सकें, गढ्ढे में भरे पानी से दोस्तों को भीगा सकें और जी भर छई-छपा-छई कर सकें, फिर भले घर जाकर मम्मी की डांट खानी पड़े. मगर अब न तो वो पहले वाली बारिश की मौज-मस्ती बची, न नुक्कड़ की गली से भुट्टे खरीदना, उसे दोस्तों के साथ बांट कर खाना, सब कुछ यादों की संदूक में सिमट कर रह गया.
बारिश में भीगे अरसा हो गया
मुझे याद है जब पहली बारिश होती थी, तो नानी खुद उसमें भीगने को कहती थी. उनका कहना था कि पहली बारिश में नहाने से गर्मी की सारी घमौरियां दूर हो जाती हैं. तब हम भीगने की जिद्द किया करते थे और आज जब कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है, तो बारिश में भीगे अरसा हो गया. बारिश का इंतजार मुझसे ज्यादा मेरे पापा को रहता था. उन्हें बारिश में भीगना तो पसंद नहीं था, लेकिन बरसात के आते ही पकौड़े खाने की जिद्द करते और मम्मी को बनानी पड़ती. फिर सब लोग साथ में बैठकर खाते.
‘डोडगली अमावस’ की परंपरा
वो दौर था जब हर मौसम के तीज-त्योहार का अपना मजा था. सबके पीछे एक मान्यता होती थी. पेड़-पौधों से लेकर जीव-जंतु तक को पूजा जाता था. मुझे आज भी याद है जब मैं छोटी थी, ज्येष्ठ महीने की अमावस्या का बड़ी बेसब्री से इंतजार करती थी. वो हम बच्चों की पिकनिक पार्टी का एक बहाना हुआ करता था. ज्येष्ठ की अमावस को ‘डोडगली अमावस’ के नाम से बुलाते हैं. इस दिन सारे बच्चे मिलकर टोली बनाते थे. टोली के मुखिया पलाश के पत्तों से खुद को ढककर पूरे गांव से पैसे और अनाज मांगते थे. घर-घर जाकर पानी मांगने के गीत गाये जाते थे, सभी घर से महिलाएं बाहर निकलकर बच्चों पर लोटे से पानी डालती थीं और नेग में अनाज देती थीं. इस अनाज को इकट्ठा करके बच्चे अपना पिकनिक मनाते थे. डोडगली अमावस में डेडर (मेंढक) को देवी का प्रतीक मानकर पूजन किया जाता है. इस त्योहार में लड़कियां सिर पर कवेलूं रखकर उसके ऊपर मिट्टी के बने दो ‘डेडर यानी मेंढक’ रखती हैं. इन मेंढकों को देवी का स्वरूप माना जाता है. सारे बच्चे इकट्ठे होकर घर-घर जाते हैं और लोकगीत गाते हैं-
डेडर माता पानी दे
पानी को आयो सेरो
सरावन मईया सरा सरी
काला खेत मे पिपलयी
वाबन वाली घर नयी
दे वो माई टुली भर दाना…
हमारी छोटी-छोटी रस्मों-रिवाजों में प्रकृति के संरक्षण की अनोखी सीख होती थी. ये परंपराएं आज के दौर में भुला दी गयी हैं.
वो साइकिल की सवारी…
बचपन में हमारी जेब में पैसे हो न हो, लेकिन कंचे, रंग-बिरंगे पत्थर, कांच की चूड़ियों के टुकड़े, माचिस की खाली डिबिया जरूर होती थी. खेत की गीली मिट्टी से ट्रैक्टर बनाना, गुड्डे-गुड़ियों की शादी रचाना, दूसरे के बगीचे से आम चुरा कर खाना… कितना मनोहर था वो बचपन. अब तो पेड़ के फल पककर खुद ही गिर जाते हैं. वो पेड़ भी उस बचपन को देखने को तरसता होगा, जो टिकोले लगते ही उस पर टूट पड़ता था. न कल की फिक्र थी, न आज की चिंता. गिल्ली डंडा, कंचे गोटी, चोर सिपाही, टीपू जैसे खेलों के बारे में तो आज के बच्चे जानते तक नहीं हैं. साइकिल की सवारी पर पूरा गांव नाप लेते थे. आज बच्चे चौखट से बाहर निकलते हैं, तो चिंता सताने लगती है.
सावन में बेटियों का मायके आना
गांव में आज भी सावन का महीना आते ही बेटियां अपने ससुराल से मायके आ जाती हैं. आंगन में सहेलियां झूला झूलती हैं, अपने ससुराल के अनुभव बांटती हैं. सावन के गीत गाये जाते हैं. आज महिलाओं के साज-शृंगार की चमक फीकी हो गयी है. पहले के जमाने में मेहंदी के कोन नहीं हुआ करते थे, हम खुद पत्तियां चुनकर लाते थे. पत्थरों पर अपने हाथों से पीसते थे. उस मेहंदी की खुशबू दूर से ही महकती थी. ब्याहता लड़की जब मेहंदी लगाती और उसे रंग गहरा चढ़ता, तो सारी सहेलियां मिलकर चिढ़ातीं. अब तो जैसे ये बातें किस्से-कहानियां हो गयी हैं. बारिश तो अब भी होती है, पर अब वो मासूम बचपन कहीं खो गया है.