संबंधों में भरोसे की परख है जरूरी
आज हम और हमारा समाज-दोनों ही अपनी विकास यात्रा को लेकर पूरी तरह से कंफ्यूज है. हम अंधाधुंध तरीके से पश्चिमी पहनावे, पश्चिमी रहन-सहन के तौर-तरीकों और पश्चिमी समाजीकरण की शैली को अपनाकर खुद को विकसित मानने लगे हैं, लेकिन वैचारिक रूप से आज भी भारतीय समाज रुढ़िवादी सोच से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है.
बीते हफ्ते दिल्ली में श्रद्धा वॉकर की निर्मम हत्या के खुलासे से पूरा देश स्तब्ध है. हालांकि, इस तरह की यह कोई पहली घटना नहीं है. इस पूरी घटना के कई सारे पहलू हैं, मगर इसमें एक सवाल केंद्र में है कि आखिर संबंधों को लेकर किसी पर भरोसा कैसे किया जाये, फिर चाहे मामला लिव-इन का हो या वैवाहिक? अगर हम सतर्क रहें, सुलझे दिमाग से आपसी भरोसे को जांचे-परखें और अंतत: ऐसी अनहोनी के दस्तक को सुनें…
वर्ष 1995 में घटित चर्चित नैना साहनी हत्याकांड आपको याद होगा, जब एक लड़की के सपनों के साथ-साथ उसके पूरे अस्तित्व को भी तंदूर की भट्ठी में जला दिया गया था! फिर अक्तूबर, 2010 में देहरादून की अनुपमा गुलाटी हत्याकांड, जिसमें उसके पति राजेश गुलाटी ने उसकी निर्मम तरीके से हत्या कर लाश के 72 टुकड़े कर डीप फ्रीजर में रख दिये थे. अनुपमा ने सॉफ्टवेयर इंजीनियर राजेश से लव मैरिज की थी. ऐसे और भी कई मामले हैं. दिल्ली के मॉडल टाउन इलाके में रहनेवाले कारोबारी नीरज गुप्ता की हत्या उसकी प्रेमिका तथा उसके मंगेतर द्वारा कर दी गयी थी. ऐसी तमाम घटनाएं दर्शाती हैं कि संबंधों का कदम-कदम पर खून हो रहा है, भावनाओं का कोई मोल नहीं रह गया है.
ऐसे में बेटियों की सलामती पैरेंट्स के माथे पर चिंता की लकीरें खींच देती हैं. दरअसल, आज हम और हमारा समाज- दोनों ही अपनी विकास यात्रा को लेकर पूरी तरह से कंफ्यूज है. हम अंधाधुंध तरीके से पश्चिमी पहनावे, पश्चिमी रहन-सहन के तौर-तरीकों और पश्चिमी समाजीकरण की शैली को अपनाकर खुद को विकसित मानने लगे हैं, लेकिन वैचारिक रूप से आज भी भारतीय समाज पितृसत्तात्मक रुढ़िवादी सोच से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है. हमने कपड़े तो छोटे कर लिये, लेकिन अपने विचारों को उसके मुताबिक बड़ा करना भूल गये. हम प्रेम करने लगे, लेकिन प्रेम की वास्तविक अवधारणा को भूल गये. लिव-इन की स्वछंदता हमें भाने लगी, लेकिन हम इसके साथ आयी जिम्मेदारी और इसके दायरों को नजरअंदाज कर गये.
प्रेम में समर्पण और सम्मान होता है, हिंसा या गाली नहीं
श्रद्धा मर्डर केस सहित ‘तथाकथित प्रेम-संबंधों पर आधारित’ ऐसे अन्य कई मामलों में देखा गया है कि जब एक पक्ष दूसरे पक्ष की किसी बात से सहमत नहीं होता, तो पहले उनके बीच वाद-विवाद होता है, फिर गाली-गलौज तथा मारपीट की नौबत आती है. अंतत: रिश्ते का अंत किसी एक की हत्या या आत्महत्या के साथ होता है. अब आप ही सोचिए, जहां प्रेम है, वहां शक, नफरत या हिंसा की जगह हो सकती है क्या? प्रेम में तो विशुद्ध समर्पण का भाव शामिल होता है. इसमें प्रेमी और प्रेमिका एक-दूसरे की भावनाओं एवं विचारों का सम्मान करते हैं, न कि एक-दूजे को जलील करते हैं. इस रिश्ते में किये जानेवाले समझौते भी पारस्परिक सहमति से किये जाते हैं, लेकिन अगर किसी इंसान की अपनी इच्छा ही सर्वोपरि हो जाए और दोनों पक्षों में से कोई एक भी उसे मनवाने या पूरा करने की जिद ठान बैठे या फिर उसके लिए हिंसा का रास्ता अपनाये, तो यह तो कहीं से भी प्रेम का रूप हो ही नहीं सकता.
ऐसे लोग दोषपूर्ण समाजीकरण का परिणाम
श्रद्धा मर्डर केस के आरोपी आफताब ने अपनी प्रेमिका की हत्या के बाद जिस क्रूरता से उसकी लाश को ठिकाने लगाया, उसे एक सामान्य अपराधी नहीं माना जा सकता. निश्चित रूप से वह एक साइकोपैथ किलर है. ऐसे लोगों में अक्सर संवेदनशीलता की कमी होती है. उन्हें अक्सर छोटी-छोटी बातों पर भी अचानक से तेज गुस्सा आ जाता है और वे हिंसक हो जाते हैं. यहीं नहीं, इनमें अपने किये का पछतावा या भी नहीं होता.
एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट, पटना के पूर्व निदेशक प्रो डीएम दिवाकर कहते हैं- कोई भी शख्स एक दिन में ‘आफताब’ नहीं बनता. ऐसे लोग अक्सर दोषपूर्ण समाजीकरण प्रक्रिया का परिणाम होते हैं, जिसमें न सिर्फ उनका परिवार, बल्कि उनका स्कूल, उनकी शिक्षा, उनके संगी-साथी, उनका वर्क कल्चर आदि महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. दरअसल, वर्तमान समाजीकरण प्रक्रिया में हम जीवन-मूल्यों के बजाय आर्थिकोपार्जन पर अधिक ध्यान देने लगे हैं. जीवन शिक्षा के बजाय कॉरपोरेट शिक्षा पर बल दिया जाने लगा है. नतीजा, पूंजीगत समाज के निर्माण के क्रम में व्यक्ति खुद के क्रम में व्यक्ति मशीन बन कर रह गया है. वह सोशल इंटीग्रेशन प्रोसेस से कभी जुड़ ही नहीं पाता. फलत: वह तनावग्रस्त, अवसादग्रस्त और कुंठित हो जाता है. ऐसे लोगों की मनोवृति तथा बॉडी लैंग्वेज पर अगर लगातार ध्यान दिया जाये, तो उन्हें बड़ी ही आसानी से पहचाना जा सकता है.
वैवाहिक संबंध की सीमाओं से परे हैं ‘लिव-इन’ रिलेशनशिप
लिव-इन रिलेशनशिप वस्तुत: पश्चिमी समाज की ही देन है. तेजी से बदलती सामाजिक व्यवस्था, टूटते वैवाहिक संबंध, करियर को प्राथमिकता, स्वतंत्र जीवन की चाह और आर्थिक आजादी ने ऐसे संबंधों को भले ‘स्थापित’ कर दिया, मगर भारतीय परिवेश खुल कर इसके पक्ष में खड़ा नहीं दिखता. इसके बावजूद पिछले कुछ दशकों से हमारे देश में भी लिव-इन रिलेशनशिप को अपनानेवालों की तादाद तेजी से बढ़ी है. वहीं ऐसे रिश्तों से जुड़े हिंसक मामले और अपराध भी बढ़े हैं. इसकी बड़ी वजह है कि पश्चिमी देशों से इतर भारत में इस तरह के संबंधों को लेकर वैचारिक खुलेपन का अभाव है. ऊपर से स्त्री अब भी इस देश में अपने सम्मान व अधिकारों को लेकर संघर्षरत है. दरअसल, हर रिश्ते की तरह लिव-इन रिलेशनशिप की भी कुछ चुनौतियां हैं, जैसे- इस रिश्ते में सामाजिक और पारिवारिक नियम लागू नहीं होते, इसमें वैवाहिक जीवन की जवाबदेही शामिल नहीं होती.
कानूनी सुरक्षा के बावजूद सामाजिक स्वीकृति का अभाव
भारतीय समाज की तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2020 में अपने एक ऐतिहासिक फैसले में कहा कि ‘यदि दो लोग लंबे समय से एक-दूसरे के साथ रह रहे हैं और उनमें संबंध है, तो उन्हें शादीशुदा ही माना जायेगा.’ बावजूद इसके प्रसिद्ध क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ बिंदा सिंह कहती हैं- ”हम भले ही खुद को कितना भी आधुनिक कहें और बड़ी-बड़ी बातें कर लें, लेकिन हमारे समाज का नजरिया आज भी वही है, जो सैकड़ों वर्ष पहले था. इस समाज में प्रेम-संबंधों को भी अब तक पूर्ण मान्यता नहीं मिल पायी है, तो लिव-इन को लेकर समाज का रुख क्या होगा, बड़ी आसानी से समझा जा सकता है. ऐसे संबंधों में जाने से पूर्व दोनों ही पक्षों को यह समझ लेना चाहिए कि वे एक-दूसरे के साथ ‘पति-पत्नी की तरह’ जरूर रह सकते हैं, लेकिन पति-पत्नी नहीं होते. हमारे समाज में आज भी पारंपरिक पद्धति से किये जानेवाले वैवाहिक संबंधों को ही सम्मानित माना जाता है. ऐसे में दो लोग ऐसे संबंधों में जाने की सोचते हैं, तो उन्हें सामाजिक या पारिवारिक स्वीकृति अथवा कानूनी संरक्षण जैसे मुद्दों पर गंभीरता से सोच-विचार कर लेना चाहिए.”
कवर स्टोरी, रचना प्रियदर्शिनी