पुराना मुहावरा है कि किसी भी व्यंजन का असली स्वाद चखकर ही महसूस किया जा सकता है- दि प्रूफ ऑफ दि पुडिंग इज इन दि इटिंग. जो आप अपनी जुबान पर नहीं रख सकते, उसे चख ही कैसे सकते हैं! दूसरा व्यक्ति अपने रसास्वाद का साझा आसानी से नहीं कर सकता. इस मामले में हम सबकी हालत उसे गूंगे की जैसी ही है, जो गुड़ का रस अंतर्गत ही पाता है. बहरहाल, हमारे जमाने में यह बात आंशिक रूप से ही सच कही जा सकती है. यह उपभोक्ता संस्कृति वाली पीढ़ी की मजबूरी है कि वह दूसरों के सुझाये, चटखारे लेकर खाये जायकों को अपनाने के लिये उतावली होने लगी है. इसीलिए विज्ञापन की दुनिया में खाने को सजा-संवार कर पेश करने और इस सज धज के जरिये साधारण नीरस खाने को भी जायकेदार बनाने का प्रयास निरंतर जारी रहता है.
खाने देसी हों या विदेशी, किसी रेस्तरां के मेन्यू की फोटो हो या घर में तैयार किये जाने वाले खाने में मददगार उपकरणों की बिक्री का अभियान, खाद्य पदार्थों को कुछ इस तरह दिखाया जाता है कि देखते ही मुंह में पानी भर जाये. इसके लिये तरह-तरह के विशेषज्ञ बाजार में उतर चुके है. फोटोग्राफर ही नहीं, उनकी मदद के लिए फूड स्टाइलिस्ट भी अपने को कम बड़ा कलाकार नहीं मानते. जिस तरह लैंडस्केप, वाइल्ड लाइफ, पोट्रेट वेडिंग और फैशन फोटोग्राफी को छायांकन की अलग-अलग विधाएं माना जाता है, वैसे ही फूड फोटोग्राफी की अपनी जायकेदार दुनिया कम तिलस्मी नहीं.
कल्पना कीजिये, आपके सामने एक तश्तरी में कोई साधारण सी खाने की चीज की तस्वीर हो. उसकी सज धज कुछ ऐसी होनी चाहिए कि देखते ही आपका जी ललचाने लगे, पहले उसे छूकर उसकी गरमी और नरमी, कुरकुरेपन या खस्तगी का एहसास आपको हो जाये और फिर आपके मन में यह तरंग उठे कि जल्द से जल्द इसे खाया जाये. यह समोसा भी हो सकता है, आलू की फ्रेंच फ्राई भी, केसरिया रंग में रंगी चाशनी चुआती जलेबी अथवा बिरयानी कबाब कुछ भी. हर चीज का ऐसा दिखना जरूरी है, जैसी वह कुदरती रूप में नहीं होती. टमाटर की लाली कुछ ज्यादा ही सुर्ख होनी चाहिए और बिरयानी के चावल का दाना-दाना साफ अलग नजर आना चाहिए. केसर के छितराये कुछ रेशे और कटहल अथवा मांस की बोटियां अपना चेहरा झलकाने को आतुर लगें, तभी मजा है. तश्तरी को इंद्रधनुषी छटा से निखारने के लिए हरी चटनी, कत्थई सौंठ या पीली कासूंदी की धारियां बिखेरी जा सकती हैं.
कठिनाई यह है कि खाने के इस सौंदर्य प्रसाधन के लिए कुछ ऐसे कृत्रिम पदार्थों का उपयोग किया जाता है, जो अखाद्य होते हैं. इस बारे में सदैव सतर्क रहने की जरूरत है कि व्यंजनों को आकर्षक बनाने के लिए कहीं ऐसे कृत्रिम रंगों, सुगंधों और स्वादों का प्रयोग तो नहीं किया गया है, जो असली खाने के स्वाद और पौष्टिक गुणों को नष्ट तो नहीं कर रहे हैं. देसी-विदेशी व्यंजनों की फैशन परेड जैसी फोटो देखकर होटल और रेस्तरां वाले भी वैसे ही व्यंजन परोसने लगे हैं, जिनका हमारे घर की रसोई या रोजमर्रा की जिंदगी से दूर-दराज का रिश्ता नहीं होता. एक बार इस मरीचिका में फंसने के बाद इससे छुटकारा पाना कठिन है. हम महाकवि कालिदास की उस पंक्ति को कितनी आसानी से भुला देते हैं कि वास्तव में किसी सुंदर वस्तु या व्यक्ति को अलंकारों और आभूषणों की जरूरत नहीं होती
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