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International Mother Language Day : अपनी पहचान कायम रखने के लिए अपनी मातृभाषा से जुड़ें

International Mother Language Day विश्व में लगभग 7 हजार भाषाएं बोलीं जाती हैं, जिनमें सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा चीन की मैंडरिन भाषा है.

International Mother Language Day : इस दुनिया में मां और बच्चे के बीच जो रिश्ता होता है वो सबसे अनमोल रिश्ता होता है. इससे बढ़कर न कोई रिश्ता था और न ही होगा. जिस तरह जीवन भर हम अपनी मां से जुड़े रहते और वह हमें एक संपूर्ण मनुष्य बनने मदद करती है उसी तरह हमारी मातृ भाषा भी हमें अपनी संस्कृति से जुड़े रहने में मदद करती है और हमारी पहचान को कायम रखती है. अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस का आयोजन भी इसी उद्देश्य के लिए किया जाता है कि हर वर्ग और संस्कृति की पहचान कायम रहे. 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस का आयोजन किया जाता है. ये दिन भाषा और उससे जुड़ी सांस्कृतिक विविधता को बढ़ावा देने के लिए मनाया जाता है. भाषा मनुष्यों के बीच संबंध बनाये रखने का जरिया है.भाषा के द्वारा ही लोग एक दूसरे से बात करते हैं और सहजीवन संभव हो पाता है. इसी से हमें अपनेपन की भावना मिलती है.

विश्व में 6500 भाषाएं बोली जाती हैं


गुजरते समय के साथ हमारे बीच से कई भाषाएं विलुप्त हो गईं और कई विलुप्ति के कगार पर है. इन हालात में जरूरी है कि इन भाषाओं का संरक्षण किया जाए और उन्हें बचाने की पूरी कोशिश की जाये. दुनिया में ऐसी बहुत कम ही भाषाएं है जिन्हें स्कूलों में पढ़ाया जाता है जिसकी कारण इनके बारे में बहुत काम लोग जानते हैं. विश्व में लगभग 6500 भाषाएं बोलीं जाती हैं, जिनमें सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा चीन की मैंडरिन भाषा है. आज जबकि कई भाषाएं विलुप्ति के कगार पर है और युवा अपनी मातृभाषाओं से दूर हो रहे हैं, हमने झारखंड के कुछ सेलिब्रेटी से बात किया, जिन्होंने मातृभाषा से अपने लगाव के बारे में बात की और यह भी बताया कि आखिर क्यों आज के युवा अपनी मातृभाषा से दूर हो रहे हैं.

कुड़ुख में कविताएं लिखती हैं पार्वती तिर्की

Parwati
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पार्वती तिर्की : युवा कवयित्री पार्वती तिर्की जो पेशे से लेक्चरर हैं उन्होंने कहा कि मेरी मातृभाषा कुड़ुख है. उन्होंने कहा कि मैं अपनी मातृभाषा से जुड़ी हूं, यहां तक कि मैंने कई कविताएं भी कुड़ुख भाषा में लिखी है. पार्वती का कहना है कि औद्योगीकरण और आधुनिकरण की वजह से कुड़ुख समाज सबसे पहला समाज था जिसने दूसरी भाषाओ जैसे हिंदी, नागपुरी, अंग्रेजी को अपना लिया और अपनी मातृ भाषा को भूलते चले गए. यही वजह है कि आज की पीढ़ी इस भाषा से वंचित है. मातृभाषा से दूर होने की वजह से उनके व्यवहार और रहन सहन में भी परिवर्तन आ गया. पार्वती तिर्की कहती है कि अपनी मातृ भाषा – कुड़ुख में जब उन्होंने लिखना शुरू किया और हर एक शब्द का मतलब समझा और इस प्रक्रिया ने उन्हें अपने आप से जुड़े रहने में और एक बेहतर मनुष्य बनने में मदद की. यही वजह है कि उनकी मातृ भाषा उनके लिए बहुत महत्व रखती है. पार्वती तिर्की ने बताया कि उन्होंने कुड़ुख गीतों पर काफी काम किया है और वह कहती है कि वह गीतों के माध्यम से अपनी मातृ भाषा से जुड़ी रह सकती हैं. पार्वती कहती है कि हमारी मातृ भाषा से हमें जो भाव मिलता है वह किसी और भाषा से नहीं मिल सकता है इसलिए जरूरी है कि हम वापस अपने गांवों की ओर लौटे और वहां जाकर अपने बुजुर्गो से अपनी मातृ भाषा का अनुभव करें. आधुनिकीकरण की दौड़ में दौड़ते हुए हम अपने मूल संस्कृति को भूलते चले जा रहे हैं.

कुड़ुख भाषा में फिल्में बना रहे हैं निरंजन

Nirajan
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निरंजन कुजूर : झारखंड के जाने – माने फिल्म निर्देशक निरंजन कुजूर जो कुड़ुख समाज से हैं कहते है कि उनके पहले जो पीढ़ी थी , जब वे शिक्षित हो रहे थे तो स्कूलों में हिंदी में पढ़ाई होती थी जिसके कारण उन्हें पढ़ने में काफी तकलीफ होती थी, इस वजह से उन्हें लगा कि अगर उन्हें भी आगे बढ़ना है तो हिंदी सीखना उनके लिए जरूरी है. इस कारण आने वाली पीढ़ी से उन्होंने घरों में हिंदी में बात करना शुरू कर दिया. जो माहौल उन्हें अपनी मातृ भाषा सीखने के लिए मिलना चाहिए वो मिल नहीं पाया. यही वजह है कि लोग अपनी मातृभाषा से दूर होते गए. उनका कहना है आदिवासी समाज के लोगों को अपनी मातृ भाषा सीखने का कोई आर्थिक लाभ नहीं दिखाई दिया इसलिए भी वे इससे दूर होते चले गए.


निरंजन कुजूर का कहना है कि किसी भी भाषा का एक बाजार होता है अगर उस भाषा का बाजार नहीं है तो उसे लोग निम्न श्रेणी का समझने लगते है जैसे अंग्रेजी, हिंदी, तमिल इन सारी भाषाओं का एक बाजार है इन भाषाओं में फिल्में बनती हैं, साहित्य लिखे जाते है, अखबार छपते है इसलिए लोग इन भाषा की तरफ आकर्षित होते हैं. अगर हम भी मातृ भाषा को बढ़ावा दें और इन भाषाओं का विभिन क्षेत्र में प्रयोग करें तो लोग इसकी ओर जरूर आकर्षित होंगे.


हमारी मातृ भाषा का भविष्य हम पर ही निर्भर करता है, हम जितना इसके प्रति जागरूक रहेंगे उतना ही हम दूसरों को इसके प्रति जागरूक कर इसे सीखने की प्रेरणा दे सकेंगे. हम सिर्फ इसके आर्थिक लाभ के बारे में नहीं सोच सकते हमें इससे भावनात्मक रूप से जुड़ने की जरूरत है. हम किस तरह से अपनी मातृ भाषा से मिले ज्ञान को दूसरों तक पंहुचा सकते हैं, इसके बारे में हमें सोचने की आवश्यकता है. जो ज्ञान हमें अपनी मातृ भाषा से मिलती है वह हमें अपनी संस्कृति से जोड़े रखती है, इसलिए हमें अपनी मातृभाषा का अधिकाधिक प्रयोग करना चाहिए. मातृभाषा को बचाने के लिए ही मैंने कुड़ुख में सिनेमा बनाना शुरू किया है.

मातृभाषा हमारी पहचान है : दयामनी बारला

Dayamani Barla
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दयामनी बारला : सामाजिक कार्यकर्ता और आदिवासी अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली दयामनी बारला ने कहा कि मैं मुंडा हूं, लेकिन झारखंड में आदिवासी समाज के बीच जो भाषाएं बोली जाती हैं, जैसे कुड़ुख, खड़िया, हो मैं सभी भाषाओं को बोलना जानती हूं. मातृभाषा हमारी पहचान और संस्कृति को कायम रखती हूं. आधुनिकीकरण के दौर में युवा अपनी पहचान से दूर हो गए हैं, उन्हें अपनी भाषा और संस्कृति दोयम दर्जे की लगने लगी है, यही वजह है कि आदिवासी समाज में भाषा पर संकट है. युवा पीढ़ी को चाहिए कि वे अपनी भाषा से जुड़ें, क्योंकि भाषा ही उन्हें अपने जल-जंगल और जमीन से जोड़कर रखेगी. अन्यथा आदिवासियों की पहचान पर संकट उत्पन्न हो जाएगा.

अंग्रेजों ने हमें अपनी संस्कृति से दूर करने के लिए मातृभाषा पर प्रहार किया

Mahadev Toppo
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महादेव टोप्पो : मातृभाषा हमारी संस्कृति और पहचान से जुड़ी होती है, इसलिए किसी भी मातृभाषा का महत्व बहुत अधिक होता है. मातृभाषा अस्तित्व से जुड़ा होता है, इसलिए इसका संरक्षण बहुत जरूरी है, अन्यथा कोई भी समुदाय और संस्कृति नष्ट हो सकता है. मातृभाषा के अस्तित्व पर खतरा हमारे देश में इसलिए उत्पन्न हुआ क्योंकि हमने दो सौ साल तक अंग्रेजों की गुलामी सही. अंग्रेज जहां भी गए वहां की संस्कृति को नष्ट करने का काम किया. उन्होंने इस तरह की शिक्षा नीति बनाई जिसमें मातृभाषा का महत्व खत्म कर दिया गया. गुलामी के प्रभाव में हम अपनी मातृभाषा से दूर होते गए, हालांकि आदिवासियों ने अपनी संस्कृति को बचाए रखने की पूरी कोशिश की. लेकिन आधुनिकीकरण के प्रभाव में युवा पीढ़ी इससे दूर हुई है, लेकिन अब युवा इसके महत्व को समझ रहे हैं और अपनी मातृभाषा से जुड़ने कोशिश कर रहे हैं, जिसमें वे तकनीक का भी सहारा ले रहे हैं.

इनपुट : अनु कंडुलना

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