International Mother Language Day: मां के ममत्व वाली भाषा, प्यार-दुलार की भाषा और हम सबों को अपनी लगने वाली भाषा ही हमारी मातृभाषा है. मातृभाषा को लेकर भले ही हम सब एक न हों, पर इस बात पर एकमत होंगे कि मां की जुबान से सीखी हुई पहली भाषा ही हमारी मातृभाषा है, जो हर बाल-मन को गुदगुदाती और सिखाती है. उसी भाषा के प्रति अपना प्यार व सम्मान जाहिर करने के लिए हर वर्ष 21 फरवरी को हम मातृभाषा दिवस के रूप में मनाते हैं. मातृभाषा के साथ हमारा जो रक्त संबंध है, अपनापन और सगापन है, उसे समझने की कोशिश करते हैं कि किस तरह अपनी मातृभाषा के साथ हमारा रिश्ता बनता है, वह हमारे जीवन में कैसे काम करता है और कैसे वह देश की राष्ट्रीयता व अन्य चीजों से जुड़ता चला जाता है.
भारत देश की सांस्कृतिक बहुलता संसार में एक नहीं, कई मातृभाषाएं भले ही हों, परंतु मातृभाषा के साथ मां-बच्चे की संवेदना एक ही तरह की दिखती है, जिसमें बच्चों के लिए दुलार है, ममत्व के स्नेह स्पर्श का एक अद्भुत संसार है. किसी भी भाषा के लाखों-करोड़ों लिखे शब्द-वाक्य सब कुछ मां की भावनाओं के अभिव्यक्ति के आगे कम है. सच है कि मातृभाषा से ही हमारी पहली पहचान जुड़ी होती है, हमारा अस्तित्व जुड़ा होता है. बस हमारी मातृभाषाएं हमारा अभिमान नहीं बन पा रही हैं, न ही हमारा गुरूर बन पा रही हैं. आवश्यकता है हमारे जीवन में मां के अस्तित्व पर गुरूर करने की, मातृभाषा अपना अभिमान खुद पा लेगी.
मां, मातृभूमि और मातृभाषा दोनों के प्रति संस्कार की जननी है. बालपन में बच्चों के कानों में पहला शब्द मां ही देती है. यहीं से शुरू होता है बच्चों में मातृभाषा संस्कार एवं व्यवहार का पाठ. इसमें ही सुनाई पड़ती है मां और दादी-नानी की लोरियां, प्रार्थनाएं और बाल सुलभ कहानियां. “लल्ला लल्ला लोरी…. दूध की कटोरी…” हो या “मछली जल की रानी है…” या “चंदा मामा दूर के”…. इन लोरियों से ही तो बच्चों को सीखने में मदद मिलती है और मातृभाषा से परिचय होता है. इसी भाषा से हम अपनी संस्कृति के साथ जुड़कर उसकी धरोहर को आगे बढ़ाते हैं. मातृभाषा केवल बाल-संस्कार का माध्यम नहीं है, बल्कि बाल सुलभ मस्तिष्क में भाषा की पहली बीज है. इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि मां और मातृभाषा एक-दूसरे के पूरक हैं. मां ही रचती है मातृभाषा की संस्कृति का संसार…
मातृभाषा ही सहज मौलिक भावाभिव्यक्त्ति होती है. हम सभी महसूस करते हैं कि व्यक्ति जितने सहज, तात्कालिक और स्पष्ट ढंग से अपने विचार अपनी मातृभाषा में रख सकता है, उतना अन्य किसी भाषा में नहीं. अन्य भाषा में एक बनावटीपन से बाधा आती है, क्योंकि वहां भाषा-संस्कृति के मौलिक व्यवहार से हम परिचित नहीं होते. अपनी मातृभाषा में कम शब्दों में अधिक कहने की मानों शक्ति आ जाती है. अपनी भाषाई कमजोरी का एहसास सबल हो जाता है. जैसे मैं मैथिलीभाषी हूं. मेरी पहली भाषा मैथिली है. संविधान सूची में उसका शामिल होना भर मुझमें एक अभिमान भर देता है. जबकि, हम मैथिली में पढ़-बोल व समझ ही सकते हैं, उसमें कभी लेखन नहीं किया. वह व्यवहार हिंदी के साथ है मेरा. मैथिली के साथ मेरा विकास उस तरह से नहीं हुआ, जैसा हिंदी के साथ हुआ. अगर हुआ होता, तो कई देशज चीजें जिनके बारे में मैं जानता हूं, उन्हें और भी अच्छे ढंग से अभिव्यक्त कर पाता. मैथिली में कई मौलिकता मेरे अंदर है, मगर उस भाषा में अभिव्यक्ति या भावाव्यक्ति वैसी नहीं, जैसी हिंदी के साथ है. अंतस के एक अनकहे भाव के साथ हमारी मातृभाषा जुड़ी होती है, इसलिए मौलिक भावाभिव्यक्ति मातृभाषा में ज्यादा सहज प्रतीत होती है.
शिक्षा की भाषा का सवाल, मातृभाषा के अस्तित्व पर छाती पर मूंग दलने जैसा है. जबकि इसका सरल जवाब है कि प्रारंभिक शिक्षा मातृभाषा में होनी चाहिए, क्योंकि बच्चा सरलता से अपनी मातृभाषा को आत्मसात कर लेता है. बाद में दूसरी भाषा का ज्ञान या बोध मातृभाषा के मौलिकता के साथ मिलकर जीवन में नव-उमंग बन सकती है.
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ॥
हिंदी भाषा के प्रथम पथ-प्रदर्शक भारतेंदु हरिशचंद्र ने निज के उन्नति में ही ज्ञान-विज्ञान के साथ उन्नति की बात कही थी. मातृभाषा में बोलना, पढ़ना-लिखना और सोचना व्यक्ति के लिए शक्ति का स्त्रोत है और कर्तव्य भी. जाहिर है भारतेंदु हरिशचंद्र निज भाषा यानी मातृभाषा से मातृभूमि और उसे जुड़ी राष्ट्रीयता के विकास को मानवीय विकास का मूल आधार मानते थे. वह जानते थे कि मातृभाषा में रचनात्मक विकास मौलिकता के कारण संभव हो पाता है, इस सत्य को वे पहचान चुके थे. भारत की तमाम मातृभाषाओं ने लगभग सभी क्षेत्रों में सफलता के कई सोपान को सरल बनाया है और अपनी भाषा से लगाव रखने वालों को सफलता भी दी है. यहीं नहीं, मातृभाषाओं में रचा-बसा हुआ मन कितनों को अलग मौलिक पहचान दे रहा है. फिल्म अभिनेता पंकज त्रिपाठी, आशुतोष राणा, मनोज वाजपेयी, नवाजुद्दीन सिद्धकी और कई आला दर्जे के अभिनेता अपनी मातृभाषा के देसीपन की चमक-दमक के कारण बेहद लोकप्रिय व सफल हो चुके हैं. जाहिर है हमारे विकास की पहली क्रांति मातृभाषा ही हो सकती है.