बनावटी चेहरा लिये
मैं एक औरत हूं
असली चेहरा तो
कहीं गुम हो गया है
बचपन से ही बंधनों में
जीने की आदत सी है…
यह चंद पंक्तियां हैं, जो वैश्विक स्तर पर महिलाओं के दोयम दर्जें का सूचक है. इसमें कोई दो राय नहीं कि महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में अभूतपूर्व बदलाव आया है, बावजूद इसके इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि एक इंसान के रूप में आज भी उनके साथ लैंगिक भेदभाव होता है. इसी लैंगिक भेदभाव के कारण महिलाओं के साथ हिंसा होती है, उन्हें काम का उचित मेहनताना नहीं मिलता और सामाजिक स्थिति भी शोचनीय है.
महिलाओं को जेंडर इक्वलिटी दिलाने के लिए संयुक्त राष्ट्र सहित सभी देशों की सरकारें भी काम कर रही हैं. आज जबकि हम लैंगिक भेदभाव मिटाकर स्त्री को एक इंसान का दर्जा दे रहे हैं और विश्व स्तर पर आठ मार्च को एक प्रतीक के रूप में महिलाओं को समर्पित दिवस अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मना रहे हैं. हमारे लिए यह जानना बहुत जरूरी है कि आखिर कब, कहां और किन लोगों ने स्त्री अधिकारों की वकालत की और उनके लिए संघर्ष की शुरुआत की.
महिला दिवस की शुरुआत अधिकारिक रूप से उत्तरी अमेरिका में महिला श्रमिकों के आंदोलन के जरिये हुई. महिलाओं ने काम के घंटों को लेकर आंदोलन किया था और उसकी वक्त से अधिकारिक रूप से काम के घंटों को आठ घंटे का किया गया. पहली बार महिला दिवस का आयोजन 28 फरवरी को किया गया था, लेकिन रूसी क्रांति के बाद महिला दिवस का आयोजन आठ मार्च को होने लगा. संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1977 में महिला दिवस को पहली बार मान्यता दी. इसके बाद महिला अधिकारों के लिए आवाज बुलंद की गयी और न्यूजीलैंड ने पहली बार महिलाओं को वोटिंग का अधिकार दिया.
यह बस शुरुआत दी, तब से लेकर आज तक महिलाओं को कई तरह की रुढ़ीवादी परंपरा से मुक्ति दी गयी और आज स्थिति यह है कि महिलाएं मंगल मिशन तक का हिस्सा बन चुकी हैं. चंद्रयान-2 के प्रोजेक्ट को हेड कर रही हैं. बावजूद इसके भारत में ही दाउद बोहरा समुदाय में महिलाओं का खतना हो रहा है. कहने का आशय यह है कि संघर्ष जारी है तब तक जबतक कि एक महिला के भी आंखों में आंसू हो.