Katarmal Sun Temple: कटारमल सूर्य मंदिर का वास्तविक नाम ’बड़ आदित्य सूर्य मंदिर’ है. इस मंदिर में भगवान आदित्य, यानी सूर्य की मूर्ति किसी पत्थर या धातु की नहीं, बल्कि बड़, यानी बरगद की लकड़ी से बनी है. पूर्व दिशा की ओर मुख वाले इस मंदिर को मध्यकालीन कत्यूरी नरेश कटारमल ने बनवाया था.
गर्मी शुरू होते ही मैदान से पहाड़ों की तरफ सैलानियों के काफिले निकल पड़ते हैं. अपनी आबोहवा और कुदरती नजारों के चलते उत्तराखंड की तरफ बड़ी संख्या में पर्यटकों की आवाजाही होती है. लेकिन इनमें से ज्यादातर पर्यटक हरिद्वार-ऋषिकेश तक होकर लौट जाते हैं. चार धाम की यात्रा की गहमागहमी के चलते भी इन दिनों बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री की तरफ बड़ी संख्या में सैलानी पहुंचते हैं.
उत्तराखंड को मोटे तौर पर दो भागों- गढ़वाल व कुमाऊं- में बांटा जाए, तो पर्यटन को लेकर अधिकांश गतिविधियां गढ़वाल की तरफ ही होती हैं. जिनमें देहरादून, मसूरी जैसे क्षेत्र भी आ जाते हैं. कुमाऊं की तरफ जाने वाले लोग भी नैनीताल तक ही पहुंचते हैं. कुछ ज्यादा घूमने के शौकीन पर्यटक ही रानीखेत, अल्मोड़ा, कौसानी जैसे क्षेत्रों तक जाने का दम रखते हैं. परंतु यदि पूछा जाए कि इनमें से कितने हैं जिन्हें इस क्षेत्र में स्थित लगभग 1200 वर्ष पुराने कटारमल सूर्य मंदिर के बारे में पता है और वे इरादतन वहां जाते भी हैं, तो उत्तर में बहुत कम हाथ उठेंगे.
रानीखेत से अल्मोड़ा-कौसानी के रास्ते पर आपकी गाड़ी जब सर्पीली सड़कों पर लहराती हुई चलती है, तो आसपास के नजारे मदहोश करने के लिए काफी होते हैं. रोजाना बड़ी तादाद में पर्यटक यहां से होकर गुजरते हैं, पर उनमें से बहुत कम इस बात से वाकिफ होते हैं कि वे एक ऐसे मंदिर के बिल्कुल करीब से होकर गुजर रहे हैं, जो पूरे कुमाऊं क्षेत्र का सबसे विशाल, ऊंचा और अनूठा मंदिर होने के साथ ही भारत के अति प्राचीन सूर्य मंदिरों में से एक है. रानीखेत-अल्मोड़ा मार्ग पर अल्मोड़ा से कोई 12-13 किलोमीटर पहले दायीं ओर ऊपर की तरफ जा रहे एक छोटे से रास्ते को यदि आप नजरअंदाज न करें, तो वहां लगे एक बोर्ड पर आप कटारमल सूर्य मंदिर का नाम देख सकते हैं. इस रास्ते पर करीब ढाई-तीन किलोमीटर चलिए तो कटारमल गांव आता है. यहां से यह सूर्य मंदिर साफ-साफ नजर आता है. यहां पहुंचने के लिए आपको थोड़ा पैदल चलना होगा.
कटारमल गांव में स्थित होने के कारण इसे कटारमल सूर्य मंदिर के नाम से जाना जाता है, पर इसका वास्तविक नाम ’बड़ आदित्य सूर्य मंदिर’ है. वास्तव में, इस मंदिर के नाम में ही इसकी विशेषता छुपी है. इस मंदिर में भगवान आदित्य, यानी सूर्य की मूर्ति किसी पत्थर या धातु की नहीं, बल्कि बड़ यानी बरगद की लकड़ी से बनी है. पूर्व दिशा की ओर मुख वाले इस मंदिर को मध्यकालीन कत्यूरी नरेश कटारमल ने बनवाया था, जो उस समय मध्य हिमालय क्षेत्र में शासन कर रहे थे. मुख्य मंदिर की संरचना त्रिरथ है, जो वर्गाकार गर्भगृह के साथ नागर शैली के वक्र रेखी शिखर सहित निर्मित है. पुरातत्व विभाग वास्तु लक्षणों और स्तंभों पर उत्कीर्ण अभिलेखों के आधार पर इस मंदिर के बनने का समय तेरहवीं शताब्दी बताता है. इस मंदिर का कुछ भाग और इस परिसर में स्थित शिव, पार्वती, गणेश, लक्ष्मी-नारायण, नरसिंह, कार्तिकेय समेत अन्य देवी-देवताओं को समर्पित करीब 44 अन्य मंदिरों का निर्माण अलग-अलग काल खंड में हुआ है.
मंदिर में पहुंचते ही इसकी विशालता और वास्तुशिल्प बरबस मन को मोह लेते हैं. एकबारगी यह विचार भी मन में आता ही है कि ऐसी दुर्गम जगह पर इतने बड़े मंदिर का निर्माण कैसे और क्यों करवाया गया होगा. कम आबादी वाले क्षेत्र में स्थित होने के कारण यहां के मंदिरों से बहुत सारी मूर्तियों समेत अन्य धरोहरों की चोरी होती रही है. इनके रखरखाव पर भी बहुत कम ध्यान दिया गया है. परंतु, अब यह मंदिर परिसर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित स्मारक घोषित किया जा चुका है, जिसके चलते इसकी पर्याप्त देखभाल हो रही है. मंदिर के गर्भगृह का प्रवेश द्वार भी पहले उत्कीर्णित लकड़ी का ही था, जो इस समय दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय की दीर्घा में रखा हुआ है.
मंदिर में शांति का अनुभव तो होता ही है, आसपास के प्राकृतिक दृश्य भी मन को मोह लेते हैं. कम पर्यटकों के आने के कारण भी यह स्थान अपनी गरिमा बचाये हुए है. इतना तो तय है कि एक बार इस मंदिर को सामने से देखने के बाद इसकी यादों को जेहन से मिटा पाना किसी के लिए भी आसान नहीं होगा.