जन्म शताब्दी वर्ष विशेष : शास्त्रीय संगीत के अलौकिक साधक थे कुमार गंधर्व
कुमार जी ने संगीत की शिक्षा जरूर प्राप्त की, लेकिन उनकी सांगीतिक दक्षता शिक्षण से परे थी. एक ध्रुव तारा की तरह उनका संगीत, उनके राग हमेशा संगीत के नये साधकों को राह दिखलाते रहेंगे. कुमार गंधर्व जी के जन्मशती वर्ष पर प्रभात खबर की विशेष प्रस्तुति.
कुमार गंधर्व जन्म शताब्दी वर्ष विशेष: भारतीय संगीत की दुनिया में कुमार गंधर्व का कद इतना विशाल है, जिसे शायद ही कभी कोई छू पाये. बचपन से ही उनमें संगीत की चमत्कारिक प्रतिभा थी. कुमार जी ने संगीत की शिक्षा जरूर प्राप्त की, लेकिन उनकी सांगीतिक दक्षता शिक्षण से परे थी. शास्त्रीय संगीत की परंपराओं की समझ के साथ स्वतंत्र होकर उन्होंने अपने गायन को उस शीर्ष तक पहुंचा दिया, जहां एक ध्रुव तारा की तरह उनका संगीत, उनके राग हमेशा संगीत के नये साधकों को राह दिखलाते रहेंगे. कुमार गंधर्व जी के जन्मशती वर्ष पर प्रभात खबर की विशेष प्रस्तुति.
पंडित कुमार गंधर्व संगीत के अलौकिक साधक थे
संगीत को ऋषि-मुनियों और साधकों के हजारों वर्षों की तप व परिश्रम का प्रतिफल बताया गया है. पंडित कुमार गंधर्व संगीत के अलौकिक साधक थे. कुमार जी के लिए तानपुरा किसी जीवंत संगतकार की तरह उनके संगीत का अभिन्न अंग था. भारतीय संगीत जगत की दुनिया में राग, ठुमरी और तराना के बारे में उनके विचार पारंपरिक गायकों से काफी अलग थे. उन्होंने अपनी गायन की प्रतिभा से बचपन में ही सबको चमत्कृत कर दिया था. महज सात वर्ष की उम्र से ही वे गाने लगे थे. जब वे नौ साल के थे तो उन्होंने इलाहाबाद, कोलकाता, लाहौर, कराची, सक्खर, हैदराबाद जैसी जगहों में मंच पर अपनी गायन कला का झंडा बुलंद कर दिया था. प्रतिभा की खान रहे कुमार जी ने जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव भी देखा. कर्नाटक के एक गांव में जन्मे और 10 वर्षों तक वहीं रहे. फिर संगीत की शिक्षा के लिए प्रो बीआर देवधर के घर महाराष्ट्र आ गये. 14 वर्ष उनके घर पर रहकर संगीत विद्या ली. हालांकि, उनकी सांगीतिक दक्षता शिक्षण से परे नैसर्गिक थी. फिर वर्ष 1948 में मात्र 24 वर्ष की आयु में तपेदिक की वजह से देवास आये और वहीं के होकर रह गये. इस दौरान वर्ष 1948 से 1953 तक वे सांगीतिक मौन में रहे.
परंपरा के इतर की नये रागों की रचना
बेहतरीन बंदिशें, तराने, जोड़ राग, धुन उगम राग, भजन, लोकसंगीत और ऋतुसंगीत. कुमार जी के अथाह रचना सागर के वे चुनिंदा मोती हैं, जिन्हें सुनकर आप दूसरी दुनिया में खो जाने को विवश हो जायेंगे. तपेदिक से रिकवरी के बाद उन्होंने वर्ष 1953 में अपना पहला संगीत कार्यक्रम किया. हालांकि, तपेदिक तो उन्हें छोड़ कर चला गया था, लेकिन उनके शरीर पर काफी प्रभाव पड़ा था. इस वजह से भी उन्हें अपनी गायन की पारंपरिक पद्धति को बदलना पड़ा और रागों के साथ नये प्रयोग करने पड़े. पारंपरिक हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के साथ प्रयोग करते हुए उन्होंने कई नये रागों की रचना की, जिन्हें सामूहिक रूप से उन्होंने ‘धुन उगम राग’ नाम दिया. उस समय इन प्रयोगों के कारण उन्हें जहां एक ओर प्रसिद्धि मिली, तो कई लोगों की आलोचना का भी सामना करना पड़ा, लेकिन वे रुके नहीं, थके नहीं और संगीत की दुनिया में इस कदर छा गये कि आकाश भी छोटा पड़ गया. आज उनके राग मधसुरजा, अहिमोहिनी, सहेली, तोड़ी, बीहड़ भैरव, लगन गंधार, संजरी और मालवती जैसे कई राग संगीतकारों द्वारा व्यापक रूप से स्वीकार और अभ्यास किये जाते हैं. कुमार जी ने संगीत कार्यक्रमों की श्रृंखला का भी निर्माण किया, जिनमें ऋतुओं के थीम बेस्ड लोकगीतों और राग का चयन किया. ऋतुओं के अनुसार, गीत वर्षा, गीत हेमंत और ऋतु राज उनके द्वारा चुने गये कुछ विषय थे. कुमार जी में राग को हर तरफ से देख पाने की कला थी. यही वजह है कि उनकी हर प्रस्तुति अनूठी होती थी.
उनकी जिजीविषा व आत्मबल अनुकरणीय
कुमार गंधर्व ने अपनी बंदिशों में मुख्य रूप से हिंदी, ब्रज तथा मालवी भाषा का प्रयोग किया है. एक प्रसंग में उन्होंने लिखा है कि जब मैं देवास में अपनी शैय्या पर सोया रहता था, वहीं सामने एक पेड़ पर एक चिड़िया ने घोंसला बनाया था. वह इस कदर चहकती थी कि सोने में बाधा उत्पन्न हो जाती थी. कुमार जी ने सोचा कि एक नन्ही-सी चिड़िया में इतनी ताकत है कि वह मुझे सोने नहीं देती, तो क्या मैं पुनः गायन नहीं कर सकता. उस मौन की वजह से उनकी संगीत में बड़ा परिवर्तन आया. उन्होंने इस दौरान मालवा की लोक गायिकी को ढूंढ़ा, उनमें रागों के मेल पर शोध कार्य किया. मौन के दौर में किये उस शोधकार्य का उन्होंने गले से इजहार भी किया. खास बात है कि छह वर्षों तक गायन से दूर रहने और तपेदिक की पीड़ा को झेलकर उससे उबरने के बाद भी उनकी संगीत में कोई कड़वाहट नहीं आयी. उनकी संगीत से आनंद झर रहा था. कुमार गंधर्व जब तक जीवित रहे, संगीत से उनका नाता नहीं टूटा. कबीर को बार-बार पढ़ने पर अलग-अलग अर्थ खुलते हैं, वैसे ही कुमार जी का गायन बार-बार सुनने पर विशिष्ट अनुभव ही होता है. कुमार गंधर्व ने जहां मालवी गीतों को राग दरबारी ढंग से गाकर नये आयाम दिये, वहीं सूर, कबीर और मीरा के पदों को गाकर उन्हें जन सामान्य तक स्वर सरिता के माध्यम से प्रेषित किया. उन्होंने गांधी मल्हार रागों की रचना की. अनूप राग विलास नामक पुस्तक लिखकर संगीत प्रेमियों को संगीत की सीख भी दी.
अनुशासन ने छीन लिया था बचपन
कुमार जी की पूरी संगीत यात्रा अनुशासन के उदाहरणों से भरी रही है. 10 वर्ष की आयु में ही उनमें इतनी क्षमता थी कि वह बिना रुके लगातार घंटों स्टेज पर गाते थे और श्रोता उनके गायन से सम्मोहित हो जाते थे. बड़ों को लगता था कि वाह, यह बालक कितना सुंदर गाता है, लेकिन उस बच्चे के लिए गाना कोई बहुत खुशी की बात नहीं थी. रात-रात भर महफिलें चलतीं. कई बार तो उन्हें नींद से उठाकर गाना गंवाया जाता. कलापिनी कोमकली बताती हैं कि कुमार जी का बचपन बाकी बच्चों से बिल्कुल अलग था. दूसरे बच्चों की तरह खेलना, घूमना, आइसक्रीम खाना, शैतानियां करना उन्हें कभी नसीब ही नहीं हुआ. वे अक्सर जिक्र करते थे कि गायन की वजह से उन्हें कभी पानीपुरी खाने को नहीं मिली. क्योंकि, खटाई की वजह से गले के बैठने का डर होता था, तो उनके पिताजी सिद्धारमैया कोमकली उन्हें पानीपुरी खाने नहीं देते.
भोजन के प्रति अनुपम था उनका राग
कलापिनी कोमकली कहती हैं कि कुमार जी खाने के बड़े शौकीन थे, लेकिन वे बहुत ही थोड़ा भोजन करते, कहें तो चिड़िया जैसा चुगते थे, वह भी बड़े शौक से. खास बात है कि उन्हें घर का खाना ही पसंद था. वे देश में कहीं भी जाते, तो वहां जो उनके अपने परिचित होते थे, वे वहीं रुकते थे और घर का सुस्वादु भोजन ही उन्हें पसंद था. उनके लिए होटलों में जाकर भोजन करना निकृष्ट दर्जे की कला थी.
कुमार गंधर्व एक परिचय
– मूल नाम : शिवपुत्र सिद्धारमैया कोमकली
– पत्नी : भानुमति कंस, वसुंधरा श्रृखंडे
– गुरु : प्रो बीआर देवधर, अंजनीबाई मालपेकर
– उपनाम : संगीत का कबीर
– पुत्र : मुकुल शिवपुत्र
– पुत्री : कलापिनी कोमकली
– जन्म : 8 अप्रैल, 1924
– जन्मस्थान : सुलेभावी, बेलगांव, कर्नाटक
– निधन : 12 जनवरी, 1992, देवास, मध्य प्रदेश
– पुस्तक : अनूपरागविलास
– रागों का सृजन : धुन-उगम राग- अहिमोहिनी, मालवती सहेली, तोड़ी, लगनगंधार, निंदियारी, भावमत भैरव, गांधी मल्हार राग आदि
– पसंदीदा संगीतकार : उस्ताद अल्लादिया खां साहब, उस्ताद फैयाज खान, केसरभाई केरकर, ओंकारनाथ ठाकुर, पंडित नारायण राव व्यास, पंडित रविशंकर, उस्ताद विलायत हुसैन खां साहब, उस्ताद अब्दुल करीम खां साहब आदि.
– सम्मान : पद्म भूषण (1977), पद्म विभूषण (1990), संगीत अकादमी सम्मान, कालिदास सम्मान, 3 सितंबर, 2014 को उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया
– उन पर लिखी पुस्तकें : त्रिवेणी गायन, कालजयी कुमार गंधर्व, सिंगिंग एम्पटीनेस (अंग्रेजी में)
– उन पर बनी फिल्म व डॉक्यूमेंट्री : द लाइफ स्टोरी ऑफ कुमार गंधर्व, हंस अकेला
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