मुंबई, उर्मिला कोरी. यह मेरी खुशनसीबी है कि वे मेरे गुरु रहे हैं. हमारा 35 से 40 साल तक का रिश्ता रहा है. मेरे पिता वामनराव देशपांडे के वे बहुत करीब थे, वे मुंबई जब भी आते थे, हमारे घर ही रुकते थे. वह दूसरे गुरुओं से बिल्कुल अलग थे. राग में विस्तार करने में जो आलाप, तान और बोल का एक निश्चित क्रम होता है. वह क्रम कभी उनको मान्य नहीं था. बंदिश को गाते समय, वे वैसा ही गाते थे, जैसा वे चाहते और वे चाहते थे कि हर कोई यह लिबर्टी ले. वे कभी नहीं चाहते थे कि उनका कोई घराना हो या कोई उनका कोई अनुकरण करें.
कुमार गंधर्व के बारे में यह कहना है सत्यशील देशपांडे का. वह कहते हैं कि कुमार गंधर्व ने इसी सोच के साथ अपनी प्रतिभा की उड़ान उड़ायी. परंपरागत राग और बंदिश ही उन्होंने हमको सिखायी और कहा कि अपना रास्ता आप खुद ढूंढ़ो. कबीर जी के दोहे की यह लाइन उन्हें बहुत बहुत पसंद थी और वे अक्सर इसे दोहराते थे कि कीट न जाने भृंग को, जो गुरु करें आप सामान.
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इसका अर्थ है कि कीट जो है, उसको गुरु भृंग बनाता है और अपनी दुनिया में उड़ान भरने को कहता है, यह नहीं कहता था कि मेरा अनुकरण करो. वे कहते थे कि मेरे गानों की नकल मत करो. अपनी अलग पहचान बनाओ. उनकी वजह से ही मेरी जो संगीत की अब तक की यात्रा रही है, वह न केवल प्रदर्शन करने के बारे में है, बल्कि नयी सीमाओं पर सवाल उठाने और तलाशने के बारे में भी रही है.
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मुझे याद है कि मेरा पहला रेडियो प्रोग्राम इंदौर में हुआ था, तो उन्होंने बहुत सराहना की और कहा कि तुमको भी तुम्हारा रास्ता मिल रहा है. संगीत के साथ-साथ उनके व्यक्तिव को भी करीब से जानने का मौका मिला था, क्योंकि वे मुंबई जब आते थे, तो हमारे ही घर पर रुकते थे. वे सौंदर्य हर चीज में चाहते थे. फिर चाहे अपने बैग को सलीके से रखना हो या कमरा. कुछ भी बिखरा हुआ अस्त-व्यस्त सा उनको पसंद नहीं होता था. उनमें वात्सल्य की भावना भी बहुत थी. पेड़-पौधों के साथ को भी वह खूब पसंद करते थे.