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तुम दिन भर घर में करती क्या हो…? मजदूर दिवस हो या फिर कोई भी छुट्टी, इन्हें नहीं मिलता कभी आराम

सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि‍ होम-मेकर्स को नॉन-वर्कर की श्रेणी में रखना उनके श्रम का अपमान है. कल मजदूर दिवस है. मजदूर दिवस मजदूरों के सम्मान, एकता और हक के समर्थन के लिए मनाया जाता है. काश कि कोई एक दिवस हम गृहिणियों के लिए भी होता जब हमारे लिए भी हक और सम्मान की बात होती.

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 30, 2023 2:38 PM

रीता गुप्ता

एक गृहिणी या हाउसवाइफ के नाम अलिखित जिम्मेदारियों और फर्ज की फेहरिस्त इतनी लंबी होती है कि वह कभी गिन ही नहीं पाती. वह वाइफ भले होम मेकर हो (आजकल बाहर जा कर नहीं कमाने वालियों को ये पदवी प्राप्त है) या फिर कामकाजी, वह कुक, नर्स, सफाईकर्मी, बेबी सिटर, टीचर, धोबी, वित्त जानकार इत्यादि कई रोल निभाती है. अपने परिवार की खुशियों के लिए नॉनस्टॉप वह चलती रहती है, फिर भी ज्यादातर पुरुष सोचते हैं कि गृहिणी का जीवन आसान है, जबकि यदि उनको एक दिन भी काम करने के लिए दे दिया जाये, तो समझ आ जाये कि यह तो बहुत ही मुश्किल है. भारतीय महिलाएं अपने हर कार्य को पूरी सजगता और ध्यान से करती हैं, पर उनको श्रेय देने की बजाय हम यह गलत धारणा बना लेते हैं कि उनका जीवन कहीं ज्यादा आसान है और इसीलिए उनकी छोटी-छोटी जरूरतें, सुविधाएं, आराम की परवाह नहीं करते.

एक बड़े लेखक सबेस्टियन डगलस ने क्या खूब कहा है- “इस दुनिया में कुछ भी मुफ्त नहीं है, आजादी भी”. अब जरा गौर फरमाएं कि गृहणियां इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेगी, तो क्या कीमत तय की जा सकेगी?

एक गृहिणी के श्रम का जरा हिसाब समझिए

कुछ वर्ष पहले एक सर्वे भी हुआ था, जिसमें एक आकलन किया गया कि आखिर एक मिडिल क्लास फैमिली की गृहिणी को वेतन मिले, तो कितना मिले. और इसका जवाब है करीब 45 हजार रुपये. मिसाल के तौर पर एक गृहिणी घर में बच्चों को संभालती है. अगर दो बच्चों को डे केयर में रखा जाये, तो महीने में 12 हजार रुपये देने पड़ेंगे. वह पूरे परिवार के लिए खाना बनाती है, इसके लिए महीने के 6 हजार रुपये रख लीजिए. इसी तरह हाउसकीपिंग के काम के लिए 3 हजार. घर के खर्चे के हिसाब-किताब यानी बजट को मेंटेन करने के लिए 4 हजार रुपये.

घर के बुज़ुर्गों की देखभाल, किसी बीमार का ख्याल रखने के लिए हर महीने 6 हजार. बच्चों को पढ़ाने के लिए ट्यूटर के तौर पर 6 हजार. बच्चों और घर के सदस्यों को गाड़ी में बैठाकर स्कूल, मार्केट या दूसरी जगहों पर ले जाने के लिए यानी ड्राइवर के काम के लिए भी 8 हजार रुपये हर महीने मिलने चाहिए. ये सारा खर्च जोड़ दें, तो हाउस वाइफ के लिए हर महीने करीब 45 हजार रुपये की सैलरी बनती है. हो सकता है अलग-अलग शहर, समाज और स्थितियों के मुताबिक ये आंकड़े ऊपर-नीचे हो जायें, लेकिन एक हाउस वाइफ के परिश्रम का मूल्यांकन तो बनता है.

ऐसा नहीं कि सिर्फ भारत में ही गृहिणियां घर-परिवार की जिम्मेवारियों के बोझ तले दबी हैं. कई पश्चिमी देशों में भी ऐसा ही है. इन दिनों मैं सिडनी में हूं और यहां संपन्न व पढ़े-लिखे परिवारों में भी महिलाओं की स्थिति भारत से बहुत अलग नहीं. यहां के समाज में खुलापन जरूर है, मगर घर संभालने की बात हो, तो पुरुष के मुकाबले महिला पर ही बोझ ज्यादा दिखता है.

एक केस में अदालत ने भी समझा महत्व

उच्च अदालत में एक सड़क दुर्घटना में मारे गये दंपती के मुवाअजे की राशि की सुनवाई पर बहस हो रही थी. इसमें ट्रिब्यूनल ने एक बीमा कंपनी को उस परिवार को मुआवजे के रूप में 40.71 लाख रुपये देने का आदेश दिया था, पर बाद में दिल्ली हाइकोर्ट ने बहस के दौरान एक अपील को सुनने के बाद इस राशि को घटाकर 40 लाख रुपये से 22 लाख रुपये कर दिया, क्यूंकि पत्नी एक हाउस वाइफ थी.

मुवाअजे की राशि में कटौती के बाद उस मृतक के घरवालों ने सुप्रीम कोर्ट में एक अर्जी दी, जहां न्यायमूर्ति एनवी रमणा और न्यायमूर्ति सूर्यकांत की पीठ ने इस आदेश को आंशिक रूप से पलट दिया. इसके बाद बीमा कंपनी द्वारा मई, 2014 से 9% वार्षिक मुआवजा 11.20 लाख रुपये से बढ़ाकर 33.20 लाख रुपये कर दिया गया.

न्यायमूर्ति रमणा ने ऑफिस टाइम न्यूज इन इंडिया-2019 नामक राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की हाल की रिपोर्ट का भी हवाला दिया, जिसमें यह कहा गया था कि औसत रूप से महिलाएं अपने घर के सदस्यों के लिए बिना वेतन के घर के कामों और सेवाओं पर अपना प्रतिदिन करीब 299 मिनट खर्च करती हैं, जबकि पुरुषों द्वारा सिर्फ 97 मिनट का समय खर्च किया जाता है. न्यायमूर्ति रमणा ने यह भी कहा कि इस तरह एक दिन में औसतन महिलाएं 134 मिनट घर के सदस्यों की देखभाल पर खर्च करती हैं, जबकि पुरुष सिर्फ 74 मिनट ही खर्च करते हैं. महिलाएं औसतन 16.9% और अपने दिन का 2.6% समय बिना वेतन का घरेलू सेवाओं और घर के सदस्यों पर खर्च करती हैं.

एक औरत चक्की चला रही है. बगल में बैठी महिला मसाला कूट रही है, तो एक औरत लकड़ी के चूल्हे पर कुछ पका रही है. छत पर पापड़, बड़िया और आचार को धूप दिखाने के लिए फैलाया गया है. तभी घर का मुखिया काम से लौट कर घर आता है. महिलाएं काम छोड़ कर उसकी आवभगत में लग जाती है. कोई लोटे में पानी दे रही है, तो कोई नहाने के लिए गुसलखाने में गमछा इत्यादि रखती है. फिर भी सुनने को मिलता है-

“अभी तक खाना नहीं बना, आखिर तुम औरतें दिन भर करती क्या हो?”

आज रविवार है और पतिदेव घर पर हैं. बच्चों की कई फरमाइशें… इसी बीच श्रीमती जी चाय के दो कप लेकर आती हैं, तभी पतिदेव बोल पड़ते हैं- “यार आज मौसम बड़ा खुशगवार है. इस चाय के साथ प्याज के पकौड़े होते तो मजा आ जाता”.“ओह, प्याज तो है ही नहीं. मैंने तुम्हें कहा था कि लेते आना”. “तुम करती क्या हो आखिर कि घर के काम तुम से होते ही नहीं? सारा मूड खराब हो गया”. गृहिणी सोचती है- मजदूर को भी साल में एक दिन मजदूर दिवस के दिन छुट्टी नसीब हो जाती है, मगर हमारा क्या…पीसते रहो चौबीसों घंटे… फिर भी कहा जाता है, “तुम दिन भर घर में करती क्या हो…?”

एक गृहिणी अभी-अभी किचेन से खाना बना कर निकली है. माथे के पसीने को पोंछती वह घर में पोंछा लगा रही है. बार-बार घड़ी देख रही है. तभी जोरों की बारिश आ जाती है और वह बालकनी की तरफ भागती है भींगते कपड़ों को उठाने. भींगे कपड़ों में बाहर निकलती है और बच्चों को स्कूल से लेकर आती है. बच्चे आते ही शोरगुल मचाने लगते हैं. उनके कपड़े बदल अब वह खाना खिलाने लगती है कि तभी कॉलबेल बजती है. उसी अव्यवस्थित हालत में दरवाजे की तरफ भागती है. आवाज आती है, “क्या हालत बना रखी हो अपना और घर का ?”

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