पूरब से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक, पर्व-त्योहार, पूजा-पाठ और विभिन्न आयोजनों के अवसर पर लगभग हर भारतीय घरों में रंगोली बनाने का चलन है. ऐसा इसलिए क्योंकि सनातन संस्कृति में इसे शुभता का प्रतीक माना जाता है. इस कलाकृति (artwork) को बनाने के पीछे की भावना इतनी पवित्र है कि जानबूझकर कोई भी इस पर पैर नहीं रखता है. शुभता की मान्यता के कारण ही शोक के समय घर में रंगोली बनाने का विधान नहीं है. आइए अब आगे बढ़ते हैं और जानते हैं कि रंगोली शब्द का क्या अर्थ है और इस कला का प्रचलन भारत में कब से है.
सिंधु-घाटी सभ्यता से जुड़ा है रंगोली का चलन
रंगोली शब्द की उत्पत्ति संस्कृत शब्द ‘रंगावल्ली’ से हुई है, जिसका अर्थ है रंगों की पंक्तियां. इस कला का उल्लेख भारत की कई महत्वपूर्ण प्राचीन लिपियों में मिलता है. भारत के दो प्रमुख महाकाव्यों- रामायण और महाभारत- में भी रंगोली का वर्णन है. इन दोनों महाकाव्यों में वर्णित विभिन्न दृष्टांतों में इस कला को बहुत महत्व दिया गया है. वास्तव में, रंगोली का इतिहास सिंधु घाटी सभ्यता से शुरू होता है. जो artwork कभी लोगों के दैनिक जीवन का हिस्सा हुआ करता था, वह आज भारतीय संस्कृति और परंपराओं का एक मूलभूत अंग बन चुका है. रंगोली आमतौर पर रंगों और अन्य सामग्रियों जैसे आटा, पिसे हुए चावल, फूल आदि के माध्यम से घर के प्रवेश द्वार पर बनायी जाती है. इस कला की विशेषता यह है कि इसे बनाने के लिए किसी भी टूल्स की आवश्यकता नहीं होती. यह बनाने वाले की हाथों की अंगुलियों की कलाकारी होती है जो धरती पर छवियों को उकेरती जाती हैं और बरबस सबको अपनी ओर attract कर लेती है. पर इसे बनाना आसान नहीं है, न ही यह सबके वश की बात है. इसके लिए तो एक कलात्मक मन और सधी हुई अंगुलियां चाहिए, जो रंगों व अन्य आवश्यक सामग्री के साथ धरती पर अनूठी छवि उकेर सके.
तो इसलिए बनायी जाती है मुख्य द्वार पर रंगोली
रंगोली बनाने वाला व्यक्ति अपनी कल्पना से विभिन्न तरह की रंगोली बनाता है. हो सकता है उसने इसके लिए फूलों का उपयोग किया हो, या फिर रंगों का, या फिर गेहूं या चावल के आटे का. पर सभी रंगोलियां कमोबेश बराबर महत्व रखती हैं. प्रवेश द्वार पर रंगोली बनाने के प्राथमिक कारणों में से एक यह है कि यह घर में नकारात्मक ऊर्जा के प्रवेश को रोकती है. वहीं दूसरी ओर, रंगोली को परिवार में सौभाग्य लाने के लिए अच्छी आत्माओं और देवताओं का आह्वान करने वाले अनुष्ठान से जुड़ी सजावट भी माना जाता है. चूंकि यह सौभाग्य लाता है, इसलिए हर भारतीय घर में इसे बहुत महत्व दिया जाता है.
क्षेत्र के अनुसार बदल जाते हैं रंगोली के नाम
रंगोली का पूरे भारत में भले ही समान महत्व है, पर क्षेत्र के अनुसार इसके नाम बदल जाते हैं. जहां महाराष्ट्र में इसे रंगोली ही कहा जाता है, वहीं तमिलनाडु में यह कोलम कहलाता है. आंध्र प्रदेश में इसे मुग्गू के नाम से जाना जाता है, तो बंगाल में अल्पना. वहीं बिहार और मध्य प्रदेश में चौक पूजन, ओड़िशा में ओसा, गुजरात में साथिया, तो राजस्थान में मांडना कहा जाता है.
चौक पूजन रंगोली का सबसे पुराना रूप
चौक पूजन भारत में, रंगोली के सबसे पुराने रूपों में से एक है. इसे बनाने के लिए गेहूं का आटा, सिंदूर और हल्दी मिलाकर मिश्रण तैयार किया जाता है. इसी मिश्रण से रंगोली का यह रूप तैयार होता है.
अल्पना : अल्पना एक पारंपरिक बंगाली रंगोली है. यह रंगोली आमतौर पर सफेद होती है. अल्पना बनाने के लिए पीसे हुए चावल को पानी में घोलकर पेस्ट बनाया जाता है. चावल के इसी घोल से घर के मुख्य द्वार पर मनपसंद अल्पना बनायी जाती है.
कोलम : कोलम अपने पारंपरिक संदर्भ में, एक दैनिक अनुष्ठान है. इसे बनाने का अर्थ होता है कि घर में सब कुशल-मंगल है. घर में यदि रंगोली नहीं बनी है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि घर में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है.
पूकलम : केरल में फूलों (पूकल) से रंगोली बनायी जाती है. फूलों से बनी यह रंगोली ही पूकलम कही जाती है. इस राज्य में पूकलम मुख्य रूप से ओणम के समय बनायी जाती है, जो फसलों के पकने का उत्सव होता है. इस पर्व के दौरान पूकलम बनाना शुभ माना जाता है और त्योहार के सभी दस दिनों में, अलग-अलग तरह की पूकलम बनायी जाती है.
पारंपरिक रंगोली : रंगोली का एक अन्य रूप बिंदुयुक्त यानी dotted रंगोली भी है. इस तरह की रंगोली मुख्य रूप से दक्षिण भारत में देखी जाती है. डॉट के माध्यम से यहां अलग-अलग तरह के डिजाइन बनाये जाते हैं और फिर उनमें कलर भरा जाता है.