Textiles and Fabrics of Ancient India: आठवीं से छठी शताब्दी ईसा पूर्व ही विकसित हो चुकी थी बुनाई की कला
भारत में वस्त्रों का चलन ईसा पूर्व ही आरंभ हो गया था. उस काल खंड में लिखी विभिन्न पुस्तकों से पता चलता है कि यहां न केवल बुनाई की कला विकसित थी, बल्कि वस्त्रों पर सोने के काम भी होते थे.
भारत में प्राचीन काल में ही बुनाई की कला विकसित हो गयी थी. ईसा पूर्व से ही यहां के लोग सूत और रेशम का उपयोग करना अच्छी तरह जानते थे. यह बेहद दिलचस्प है कि जहां ‘वाल्मीकि रामायण’ व ‘महाभारत’ में ऊनी व रेशमी वस्त्रों तथा साज-सज्जा के बारे में उल्लेख है, वहीं कौटिल्य रचित ‘अर्थशास्त्र’ से पता चलता है कि उस काल खंड में कपास राजा के राजस्व का स्रोत हुआ करता था. जबकि मेगस्थनीज लिखित ‘इंडिका’ से पता लगता है कि भारतीय वस्त्रों में सोने का काम किया जाता था. Textiles and Fabrics of Ancient India के इस दूसरे भाग में जानिए आठवीं शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर सातवीं शताब्दी ईस्वी तक के भारतीय कपड़ों व परिधानों के बारे में…
आठवीं से छठी शताब्दी ईसा पूर्व
उत्तरकालीन वैदिक काल के परिधानों में भी निवी, वास और अधिवास का वर्णन मिलता है. इस अवधि में रेशम और ऊन का उपयोग होता था, ‘शतपथ ब्राह्मण’ में बलि के परिधानों के लिए रेशम के अंत:वस्त्र (तैप्या), एक बिना रंगा हुआ ऊन का परिधान और पगड़ी का स्पष्ट उल्लेख है. इस अवधि तक बुनाई की कला भी विकसित हो चुकी थी.
सातवीं शताब्दी ईसा पूर्व से तीसरी शताब्दी ईस्वी
‘वाल्मीकि रामायण’ में सीता के वधू साज-सामान में ऊनी कपड़े, पशुखाल के कपड़े, कीमती पत्थर, विविध रंगों के महीन रेशमी वस्त्र, राजसी और सजावटी तथा विभिन्न प्रकार के भव्य रथ का उल्लेख है.
छठी से पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व
पाणिनि द्वारा रचित संस्कृत व्याकरण के ग्रंथ, ‘अष्टाध्यायी’ में सूती धागे का उल्लेख एक प्रमुख धागे के रूप में किया गया है.
पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व
यूनानी चिकित्सक सीटीजियन के लेख में फारसी लोगों के बीच चमकीले रंग के भारतीय वस्त्रों की लोकप्रियता का उल्लेख है. यह दर्शाता है कि भारतीय कपड़े फारस निर्यात किये जाते थे.
चौथी शताब्दी ईसा पूर्व से पांचवीं शताब्दी ईस्वी
संस्कृत महाकाव्य ‘महाभारत’ में हिमालयी क्षेत्रों के सामंती राजकुमारों द्वारा युधिष्ठिर के लिए लाये गये उपहारों में रेशमी कपड़ों का उल्लेख है. ‘महाभारत’ में छपाई वाले कपड़े अथवा चित्र वस्त्र का भी उल्लेख है, जो इस अवधि तक विकसित हुई छपाई की कला को दर्शाता है.
तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से दूसरी शताब्दी ईस्वी
कौटिल्य रचित ‘अर्थशास्त्र’ में उन सूत कातने वालों और बुनकरों का उल्लेख है जो शिल्पी संघ में अथवा निजी तौर पर कार्य करते थे. इस पुस्तक में वर्णित कपड़ों में बंगाल की सफेद छाल, बनारस के सन के कपड़े, और दक्षिण भारत के कपास सम्मिलित हैं. पुस्तक में हैमावतमार्ग या हिंदुकुश के रास्ते भारत आने के मार्ग का उल्लेख है, जिसका उपयोग घोड़े, ऊन, खाल, फर और अन्य वस्तुओं का व्यापार करने के लिए किया जाता था. ‘अर्थशास्त्र’ में राजा के राजस्व के स्रोत के रूप में कपास का उल्लेख मिलता है. चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार के यूनानी राजदूत, मेगस्थनीज लिखित पुस्तक ‘इंडिका’ में उल्लेख किया गया है कि भारतीय चोगों में सोने का काम किया जाता है तथा उनमें कीमती रत्न जड़े होते हैं. इंडिका में यह भी उल्लेख है कि लोग फूलों के डिजाइन उकेरे गये उत्कृष्ट मलमल से बने परिधान पहनते हैं.
पहली शताब्दी ईसा पूर्व से पहली शताब्दी ईस्वी
बौद्ध साहित्य में बनारस के कपड़े कस्सेयक अथवा बनारस के रेशम और गांधार (वर्तमान में अफगानिस्तान और पाकिस्तान का भाग) के ऊनी कंबलों का वर्णन है. इस साहित्य में विभिन्न प्रकार के कपड़ों का उल्लेख है, जैसे सन का कपड़ा (खोमन), सूती कपड़ा (कप्पासीकम), रेशमी कपड़ा (कोस्सेयम) आदि. इसमें बुनकर (तंतुवाय), बुनाई की जगह (तंतवित्थानम), बुनाई के उपकरण (तंतभांड) और करघा (तंतका) के भी उल्लेख हैं.
तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से पांचवीं शताब्दी ईस्वी
बौद्ध जातक ग्रंथ में कताई और बुनाई के उपकरणों का उल्लेख देखा जा सकता है.
तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से छठी शताब्दी ईस्वी
जैन ग्रंथों में कपास के धागे, यानी कापसिकासूतम और कपास के कपड़े (कपासी कडूसम) का वर्णन मिलता है.
पांचवीं-छठी शताब्दी ईस्वी
गुप्त काल के दौरान कपास का उत्पादन होता था, यह अजंता चित्रकलाओं से स्पष्ट होता है. इसी काल खंड में ‘जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति’ नामक ग्रंथ में रेशम बुनकरों (पटैला), नैपकिन के विक्रेता (गांछी), कैलिको प्रिंटर (छीपा) और दर्जी (सिवागा) सहित 18 पारंपरिक शिल्पी संघों के बारे में वर्णन है.
सातवीं शताब्दी ईस्वी
बाणभट्ट की कृति ‘हर्षचरित’ में बंधन और रंजन कपड़ा (टाई व डाई कपड़ा) अथवा बंध्यामन का उल्लेख है. इस काल में मिस्र की ममी को भारतीय मलमल में लपेटा जाता था. चीनी भिक्षु, ह्वेन त्सांग अपनी आंखों देखी विवरण में किउ-शि-ये (रेशम के कीड़ों का उत्पाद) और कपास का उल्लेख करते हैं. वे यह भी उल्लेख करते हैं कि उत्तर भारत में लोग छोटे और चुस्त कपड़े पहनते थे. यहां विविध रंगों के परिधान का चलन था. और श्रमण (भिक्षु जो तपस्या करते थे और आध्यात्मिक विमुक्ति के उद्देश्य से जीवन जीते थे) चोगा पहनते थे.