माहेश्वरी सिल्क व सूती के जादुई कपड़े इस शहर की है खास पहचान

माहेश्वरी साड़ी, दुपट्टा, पगड़ी में जरी और किनारी की खासियत होती है और ये साधारण से दिखने वाले कपड़े को भव्यता प्रदान करती हैं. इन साड़ियों में बनने वाले खास डिजाइन हैं रुई फूल, चमेली का फूल, हंस, चटाई, ईंट और हीरे का पैटर्न.

By Prabhat Khabar News Desk | November 6, 2022 1:56 PM

कपड़े की बुनाई के सिंधु घाटी की सभ्यता के समय से साक्ष्य मिलते हैं. यह बुनाई परंपरा समय के साथ न सिर्फ विकसित हुई, बल्कि उसमें लगातार बदलाव भी हुए. यह समाज के पहनावे का रिपोतार्ज भी है तथा सामाजिक मान्यताओं व संस्कारों का वाहक भी. मध्यप्रदेश में पवित्र नर्मदा नदी के किनारे बसा है खूबसूरत शहर माहेश्वर. यहां होलकर राजवंश की रानी अहिल्या बाई होलकर ने माहेश्वरी सिल्क और सूती कपड़े की बुनाई परंपरा की शुरुआत 1760 के आसपास की. आज माहेश्वरी साड़ी, दुपट्टा, पगड़ी इस शहर की खास पहचान हैं. वैसे तो पांचवीं सदी से ही इस शहर की रगों में बुनकरी थी, पर इसकी विशेष पहचान अहिल्या बाई के समय शुरू हुई.

हस्तकरघा बुनाई पावरलूम आने से बहुत पहले से एक विशिष्ट परंपरा रही है, जो राजसी संरक्षण में फलती-फूलती आयी है. रोजमर्रा में पहने जाने वाले कपड़े या तो घर में बुने जाते या फिर वस्तु विनिमय व्यवस्था के तहत वह जरूरत पूरी होती. नायाब कपड़ों के प्रति राजवंशियों का खासा रुझान रहता और बुनकरों को अपने अधीन बसा कर वे अपने शौक पूरे करते थे. सिल्क और सूती धागों से बुना माहेश्वरी कपड़ा झीना, मुलायम और सुंदर होता है, जो शाही पसंद के अनुकूल था. यह वह दौर था, जब ढाकाई मलमल का झीनापन यूरोप के राजमहलों में कौतुहल का विषय था. बारीक कपड़े पर चटख रंगों में इसकी खूबसूरती अलग ही लगती है और इसमें पारंपरिक रूप से प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल होता है. बदलते समय के साथ केमिकल रंगों का इस्तेमाल भी शुरू हो गया. कुछ मौसम की भी हिस्सेदारी है यहां के कपड़े के हल्के और बारीक बुने जाने के पीछे. कई सौ सालों से यहां की अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण पहलू रही है माहेश्वरी साड़ी. रानी अहिल्या बाई इस बात को समझती भी थीं और वे बुनकरों के प्रति संवेदनशील भी थीं.

बुनकरों की बस्ती में रानी के निर्देशानुसार नर्मदा के चौड़े घाटों का विस्तार, किले के स्तंभों की नक्काशी, मंदिरों की स्थापत्य कला से प्रेरणा ली गयी. अहिल्या बाई उस दौर की पहली टेक्सटाइल आर्टिस्ट थीं, जिन्होंने अपनी कल्पनाशीलता को बुनकरों के द्वारा साकार किया. सूरत, मांडू और अन्य जगहों से कुशल बुनकर बुलाये गये और माहेश्वर में उन्हें बसाया गया. धीरे-धीरे बुनकरों के कई समुदाय- सालवी, मारु, मोमिन, जुलाहा, खनगर और कोली- यहां आये. उन्नीसवीं शताब्दी तक माहेश्वर एक वैभवपूर्ण बुनकर शहर के रूप में कायम रहा, फिर बुनकर परंपरा का पतन शुरू हुआ. इसमें मैनचेस्टर की फैक्टरियों में बनने वाले सिंथेटिक कपड़े की बड़ी भूमिका रही. पर यह पूरी तरह मिटी नहीं. इसके उत्थान के लिए होलकर राज परिवार के सैली होलकर और रिचर्ड होलकर ने 1979 में रेहवा सोसाइटी की स्थापना की. इनके प्रयास से बहुत से बुनकर अपने हस्तकरघे के जादू को जीवित रख पा रहे हैं.

माहेश्वरी साड़ी, दुपट्टा, पगड़ी में जरी और किनारी की खासियत होती है और ये साधारण से दिखने वाले कपड़े को भव्यता प्रदान करती हैं. इन साड़ियों में बनने वाले खास डिजाइन हैं रुई फूल, चमेली का फूल, हंस, चटाई, ईंट और हीरे का पैटर्न. साड़ियों की पांच किस्में भी हैं. चंद्रकला और बैंगनी चंद्रकला सादी होती हैं तथा चंद्रतारा, बेली और पारबी में धारियां या चेक होते हैं. बुनकरों की दुर्दशा के बारे में अक्सर सुनने में आता है, पर वे अपने विरासत की डोर को थामे परंपरा को कायम रखे हुए हैं.

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