शहादत दिवस आज: अंग्रेजों के खिलाफ वर्ष 1831-32 में विद्रोह का फूंका था बिगुल
1857 के सिपाही विद्रोह से पहले कोल विद्रोह के महानायक वीर बुधु भगत ने 1831-32 में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. अंग्रेजी सेना के साथ जमींदारों, जागीरदारों और सूदखोरों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका था़
देव कुमार धान
1857 के सिपाही विद्रोह से पहले कोल विद्रोह के महानायक वीर बुधु भगत ने 1831-32 में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. अंग्रेजी सेना के साथ जमींदारों, जागीरदारों और सूदखोरों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका था़ 17 फरवरी 1792 को चान्हो के सिलागाईं में जन्मे वीर बुधु भगत ने बचपन से ही जमींदारों, जागीरदारों, सूदखोरों एवं अंग्रेजी सेना की क्रूरता देखी थी. उन्होंने देखा था कि जमींदार और जागीरदार किस तरह गरीब आदिवासियों के मवेशी और तैयार फसल को जबरन उठाकर ले जाते थे और गरीब गांव वालों के पास खाने के लिए कुछ भी नहीं बचता था़ शोषण और अत्याचार का यह सिलसिला नहीं थम रहा था.
यह सब देख कर कोयल नदी के किनारे बैठकर वीर बुधु भगत घंटों विचार मंथन करते थे. उनके मन में विद्रोह का भाव जन्म ले चुका था़ उन्होंने आदिवासियों को एकजुट करना शुरू किया़ 11 दिसंबर 1831 को जब तमाड़ में अंग्रेजों, जमींदारों और जागीरदारों के विरुद्ध कोल विद्रोह की बिगुल फूंकी गयी, तब सिलागांईं में कोल विद्रोह का नेतृत्व वीर बुधु भगत ने किया. वीर बुधु भगत तथा उनके तीनों बेटे हलधर, गिरधर और उदयकरण और बेटियां रूनिया और झुनिया के नेतृत्व में आदिवासी सेना ने जमींदारों, जागीरदारों, सूदखोरों और अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष शुरू किया़
वीर बुधु भगत ने आदिवासियों को गोरिल्ला युद्ध का प्रशिक्षण दिया था और उनकी यह नीति काम आने लगी. उनके विद्रोह से अंग्रेजी सरकार, जमींदार, जागीरदार कांप उठे और उन्हें पकड़ने के लिए 1000 रुपये इनाम की घोषणा की गयी. वीर बुधु भगत छोटानागपुर के पहले क्रांतिकारी थे, जिसे पकड़ने के लिए इनाम की घोषणा की गयी थी. पर अंग्रेजों की चाल में कोई नहीं फंसा़ यह वीर बुधु भगत के प्रभाव का नतीजा ही था कि आठ फरवरी 1832 को तत्कालीन संयुक्त आयुक्तों ने अपने पत्र में वीर बुधु भगत के विस्तृत प्रभाव, कुशल नेतृत्व, उनकी लोकप्रियता और जनमानस पर उनके प्रभाव का उल्लेख किया़ पत्र के जारी होने के बाद अंग्रेजों को इस बात का आभास हो गया था कि वीर बुधु भगत को पकड़े बिना इस आंदोलन को खत्म करना असंभव है, इसलिए अंग्रेज सरकार ने वीर बुधु भगत को जीवित या मृत पकड़ने के लिए अपनी सारी शक्ति झोंक दी.
अंग्रेजी सरकार ने बाहर से सैनिक बुलाने का फैसला किया. जनवरी 1832 के अंत तक छोटानागपुर के बाहर से सैन्य बलों का आना आरंभ हो गया. 25 जनवरी को कैप्टन विलकिंसन के पास देव के मित्रभान सिंह के नेतृत्व में 200 बंदूकधारी और 50 घुड़सवारों का एक दल आया. टेकारी के महाराज मित्रजीत सिंह ने कैप्टन विलकिंसन को 300 बंदूकधारी और 200 घुड़सवार दिये. महाराज मित्रजीत सिंह के भतीजे बिशन सिंह ने 150 बंदूकधारी और 70 घुड़सवार भेजे और खान बहादुर खान ने 300 सैनिक दिये. इसके अलावा अंग्रेजी सरकार ने बंगाल के बैरकपुर से एक रेजिमेंट पैदल सैनिक, दमदम से एक ब्रिगेड घुड़सवार व तोपखाने और मिदनापुर से 300 पैदल सैनिक भेजे. बनारस और दानापुर से भी अतिरिक्त सैन्य बल लिया गया. 13 फरवरी 1832 को अंग्रेजी सेना के कैप्टन इम्पे ने चार कंपनी पैदल सैनिक और घुड़सवारों के साथ सिलागाईं गांव को घेर लिया़
वीर बुधु भगत ने अपने छोटे बेटे उदय करण और बेटियों क्रमशः रूनिया व झुनिया सहित भाई व भतीजों के साथ आदिवासियों की सेना के साथ मिलकर मुकाबला किया, लेकिन तीर और तलवार बंदूकों के आगे नहीं टिक पायी. भीषण युद्ध में उदय करण, रूनिया और झुनिया शहीद हो गये. सैकड़ों आदिवासी योद्धा वीरगति को प्राप्त हो गये. वीर बुधु भगत को भी अंग्रेजों की सेना ने घेर लिया और आत्मसमर्पण करने की चेतावनी दी. लेकिन वीर बुधु भगत को मरना पसंद था, अंग्रेजों की गुलामी नहीं. उन्होंने 13 फरवरी 1832 को भीषण युद्ध के दौरान ही अपनी तलवार से अपना सिर काटकर धड़ से अलग कर लिया और अभूतपूर्व शहादत की मिसाल कायम की.
(लेखक झारखंड सरकार में मंत्री रहे हैं और अभी आदिवासी महासभा के संयोजक हैं.)