Abul Kalam Azad Death Anniversary: जिन्ना के सबसे प्रबल विरोधी थे मौलाना आजाद, जानें उनके बारे में रोचक बातें

जब मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना अपना घातक द्विराष्ट्र सिद्धांत लेकर आगे बढ़े और मुसलमानों के लिए अलग पाकिस्तान की मांग करने लगे, तो मौलाना अबुल कलाम ने दृढ़ता से उनका विरोध किया.

By कृष्ण प्रताप | February 22, 2023 12:04 PM
an image

भारतरत्न मौलाना अबुल कलाम आजाद की आज पुण्यतिथि है. अबुल कलाम आजाद को लेखक के तौर पर उनकी अमर कृति ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ के लिए जाना जाता है, जो देश के पहले शिक्षामंत्री के रूप में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) व भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) जैसे शिक्षा व संस्कृति को विकसित करने वाले उत्कृष्ट संस्थानों और संगीत नाटक, साहित्य और ललित कला जैसी अकादमियों की स्थापना के लिए जाने जाते हैं.

बेटियों की शिक्षा पर दिया जोर

आज भी उनकी महानता को याद किया जाता है, उन्होंने 14 वर्ष तक के सभी बच्चों के लिए निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा के अतिरिक्त उन्होंने बेटियों की शिक्षा, कृषि शिक्षा, तकनीकी शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षणों की पृष्ठभूमि तैयार की है. उनके बारे में ये भी कहा जाता है कि उन्होंने ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में स्वतंत्रता और संप्रभुता को लेकर अपनी अवधारणाओं का बेझिझक वर्णन किया है. उनकी बनाई नैतिकता की वह नजीर भी है, जिसके तहत उन्होंने शिक्षामंत्री रहते नैतिकता के आधार पर देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ लेने से मना कर दिया था, जो बाद में 1992 में उनको मरणोपरांत प्रदान किया गया.

बहुआयामी था मौलाना अबुल कलाम आजाद का व्यक्तित्व

बहरहाल, उनके बहुआयामी व्यक्तित्व के मद्देनजर कोई उन्हें इस्लाम का विद्वान कहता है तो कोई कवि, लेखक, पत्रकार या क्रांतिकारी, खिलाफत आंदोलनकारी, महात्मा गांधी का अनुयायी, सत्याग्रही, स्वतंत्रता सेनानी या कांग्रेस का सबसे कमसिन अध्यक्ष भी कहता है, लेकिन सच कहा जाए तो देश के लिए उनकी सबसे बड़ी देन यह है कि स्वतंत्रता संघर्ष के नाजुक दौर में जब मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना अपना घातक द्विराष्ट्र सिद्धांत लेकर आगे बढ़े और मुसलमानों के लिए अलग पाकिस्तान की मांग करने लगे, तो उन्होंने दृढ़ता से उनका विरोध किया, वैसी दृढ़ता से कांग्रेस के अन्दर या बाहर के उनके जैसा किसी और नेता ने नहीं किया- चाहे वह अल्पसंख्यक समुदाय से रहा हो या बहुसंख्यक रहा हो.

हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए किया काम

एक समय मौलाना ने यह तक कह दिया था कि उनके लिए देश की एकता स्वतंत्रता से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है और वो उसका विभाजन टालने के लिए कुछ और दिनों की गुलामी भी बर्दाश्त कर सकते हैं. 1923 में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय संबोधन में उन्होंने दो टूक घोषणा की थी कि ‘अगर कोई देवी स्वर्ग से उतरकर भी यह कहे कि वह हमें हिंदू-मुस्लिम एकता की कीमत पर 24 घंटे के भीतर स्वतंत्रता दे देगी, तो मैं ऐसी स्वतंत्रता को त्यागना बेहतर समझूंगा. क्योंकि स्वतंत्रता मिलने में देरी से हमें थोड़ा नुकसान तो जरूर होगा, लेकिन हमारी एकता टूट गई तो पूरी मानवता का नुकसान होगा.’

विभाजन से नाखुश थे मौलाना

उनके नजरिये को दरकिनार कर कांग्रेस विभाजन के लिए राजी हो गई और वे उसे रोकने में नाकाम हो गये, तो भी उन्होंने अपनी एक ऐसे राष्ट्र की परिकल्पना से समझौता नहीं किया, जहां धर्म, जाति, सम्प्रदाय और लिंग किसी के अधिकारों में आड़े न आने पाएं. 15 अप्रैल 1946 को उन्होंने कहा कि मुस्लिम लीग की अलग पाकिस्तान की मांग के दुष्परिणाम न सिर्फ भारत बल्कि मुसलमानों को भी झेलने पड़ेंगे. आज बताने की जरूरत नहीं कि वे अपने आकलन में कितने सही थे. उनकी इस भविष्यवाणी को 1971 के भारत पाक युद्ध में ही सच होते हुए देख चुके हैं कि नफरत की नींव पर खड़ा पाकिस्तान तभी तक जिंदा रहेगा, जब तक नफरत जिंदा रहेगी, बंटवारे की आग ठंडी पड़ने लगेगी तो यह नया देश भी अलग-अलग टुकड़ों में बंटने लगेगा.

रांची की जेल में नजरबंद

मौलाना ने अपने समय के उन इस्लाम धर्मानुयायी नेताओं की कड़ी लानत-मलामत से भी परहेज नहीं ही किया था, जो उनकी निगाह में देश से ज्यादा अपने संप्रदाय के हितों को समर्पित हो गये थे. इन संप्रदायवादी नेताओं के विपरीत उन्होंने 1905 में हुए बंग-भंग (बंगाल के विभाजन) का भी भरपूर विरोध किया.1942 में कांग्रेस ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ आंदोलन आरंभ किया तो मौलाना ही उसके अध्यक्ष थे. इसकी ‘सजा’ के रूप में उन्होंने अपनी जिंदगी के तीन साल जेल में बिताए. इससे पहले 1916 में भी अंग्रेज हुक्मरानों ने मौलाना की गतिविधियों से चिढ़कर उनको बंगाल-बदर कर रांची की जेल में नजरबंद कर दिया था.

मौलाना अबुल कलाम आजाद का जन्म और परिचय

उनके शुरुआती जीवन पर जाएं तो 11 नवंबर 1888 को सऊदी अरब के मक्का शहर में उनका एक ऐसे भारतीय परिवार में जन्म हुआ था, जो 1857 का स्वतंत्रता संग्राम विफल होने के बाद कोलकाता से वहां जा बसा था. वहां उनका बड़ा लम्बा-सा नाम रखा गया था: सैयद अबुलकलाम गुलाम मुहियुद्दीन अहमद बिन खैरुद्दीन अल हुसैनी आजाद, लेकिन बाद में वे मौलाना अबुलकलाम आजाद के नाम से ही जाने और पहचाने गये.

कई भाषाओं के विद्वान थे

मक्का में उनके जन्म के कुछ वर्षों बाद उनका परिवार फिर से कोलकाता लौट आया था, लेकिन वे 11 साल के ही थे कि उनकी मां नहीं रहीं और उसके दो साल बाद ही वे शादी करके निकाह के बंधन में बंध गये. शुरुआती पारम्परिक इस्लामी शिक्षा के अलावा उन्होंने स्वाध्यायपूर्वक उर्दू, फारसी, हिन्दी, अरबी व अंग्रेजी भाषाओं और इतिहास, गणित व भारतीय व पाश्चात्य दर्शनों का गहन अध्ययन किया. शिक्षा संबंधी विचारों में वे आधुनिक शिक्षावादी सर सैयद अहमद खां के निकट बताये जाते हैं,

अल-हिलाल पत्रिका का प्रकाशन किया

1912 में उन्होंने ‘अल-हिलाल’ नाम की एक अनूठी पत्रिका निकालनी शुरू की, तो गोरी सरकार उसके क्रांतिकारी तेवर को फूटी आंखों भी बर्दाश्त नहीं कर सकी और उसने दो साल के भीतर ही पत्रिका की जमानत राशि जब्त कर ली और भारी जुर्माना लगाकर उसे बंद कराकर ही तसल्ली पाई थी. बाद में स्वतंत्रता संघर्ष से जुड़ी दूसरी व्यस्तताओं ने मौलाना को ऐसी पत्रकारिता की फुरसत ही नहीं बख्शी.

रामपुर लोकसभा सीट से 1952 में लड़ा था चुनाव

दिलचस्प बात यह कि 1952 में हुए पहले लोकसभा चुनाव में मौलाना उत्तर प्रदेश की रामपुर लोकसभा सीट से चुनाव लड़े तो हिन्दू महासभा ने उनके खिलाफ बिशनचंद सेठ को चुनाव मैदान में उतारा था. चुनावी सरगर्मियां शुरू हुईं तो बिशनचंद सेठ का चुनाव प्रचार जल्दी ही धुंआधार हो गया, लेकिन देश भर में कांग्रेस के प्रचार की जिम्मेदारी निभा रहे मौलाना के लिए रामपुर जाकर अपने मतदाताओं से खिताब करने का समय निकालना मुश्किल था. बहुत हाथ-पांव मारने और कई प्रत्याशियों के आग्रह से कन्नी काटने के बाद भी वे सार्वजनिक रूप से चुनाव प्रचार का वक्त खत्म होने से पहले रामपुर नहीं जा सके. जब पहुंचे तो घर-घर जाकर प्रचार करने का समय ही बचा था पर सीमित समय में वे इस तरह कितने घरों में जा पाते?

अलबत्ता, कांग्रेस के निष्ठावान कार्यकर्ताओं द्वारा उनके पक्ष में की जा रही जमीनी मेहनत रंग लाई. मतगणना हुई तो मौलाना 59.57 प्रतिशत वोट पाकर खासी शान से जीते. उन्हें 1,08,180 वोट मिले जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी बिशनचंद को महज 73,427 वोट.

Exit mobile version