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Republic Day Special: हर स्त्री है परिवार के गणतंत्र की प्रहरी

किसी भी गणतंत्र में देश, राज्य और समाज के बाद सबसे छोटी परंतु, सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक इकाई परिवार ही होती है. अधिकांश भारतीय परिवार में मां, बहन, पत्नी और बेटी के रूप में स्त्री परिवार के गणतंत्र की प्रहरी के रूप में अपने कर्तव्य का निर्वाह सदियों से करती आ रही है. आइए, इस भूमिका को समझते हैं...

प्रत्युष प्रशांत : हर भारतीय परिवार एक प्राकृतिक संविधान से संचालित होता है. हर परिवार में एक स्त्री, भारतीय संविधान में वर्णित समानता, स्वतंत्रता, धार्मिक आस्था-संस्कृति के साथ शिक्षा के मौलिक अधिकार को गतिशील रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, बिना किसी से कोई शिकायत के. वह परिवार के प्राकृतिक संविधान और देश के संवैधानिक, अधिकार-कर्तव्यों के बीच एक पुल की तरह है. जाहिर है हर परिवार में गणतंत्र की धुरी स्त्री ही है, जो परिवार के हर सदस्य को एक समान प्यार, सम्मान और भावनात्मक बंधन में एकता के सूत्र में बांधे रखती है. यकीन मानिए कि यह आसान तो कतई नहीं होता…

परिवार में समानता बोध

भारतीय संविधान भारत के हर नागरिक को समानता का अधिकार देता है. समाज की प्रथम पाठशाला कहे जानेवाले परिवार में इसे लागू एक स्त्री ही करती है. चाहे दूध पीते बच्चे हो, कोई नौजवान हो या फिर वृद्ध सदस्य, सबों का उनकी ख्याल रखने की जिम्मेदारी घर की स्त्री ही निभाती है. चाहे परिवार में कोई निर्णय लेना हो या फिर किसी बड़ी जिम्मेदारी का निर्वाह करना हो, बड़े-बुजुर्गों को इस निर्णय में शामिल करना एक सम्मान सरीखा व्यवहार है, जिसको स्त्री ही निभाती है. जाहिर है स्त्री जानती है कि परिवार में उम्र, लिंग और आय के आधार पर कोई भी भेदभाव कलह शुरू करवा सकता है. इसलिए परिवार में ‘सभी बराबर हैं’ का नैतिक आदर्श लोकतांत्रिक सौहार्द्र का वातावरण भी बनाता है और परिवार के सदस्यों में भावनात्मक प्रेम को भी मजबूती देता है.

आजादी का माहौल हो

दशकों के संघर्ष के बाद मिले आजादी के मूल्य को भारतीय संविधान में मूलभूत अधिकार माना गया है. परिवार के दायरे में अनुशासन के साथ अभिव्यक्ति की आजादी के मूल्य को स्त्री ही सही अर्थो में समझती है. हम जब भी अपने विचारों को अभिव्यक्त करना चाहते हैं तब स्त्री ही है, जो बिना कड़वाहट, और पूर्वाग्रह के धैर्य से हमारी बात सुनती है. परिवार का कोई भी सदस्य बगैर किसी संकोच के दादी, मां, बुआ, भाभी और दीदी से बिना डरे अपनी बात कह सकता है, यह सोचे बगैर कि वह नाराज तो नहीं हो जायेगी या हंस तो नहीं देगी! परिवार में किसी भी सदस्य को अगर अपनी अभिव्यक्ति को व्यक्त करने की स्वतंत्रता नहीं मिले तो किसी का भी जीवन जटिल और हताशा भरा होगा. जाहिर है परिवार में हर सदस्य के लिए एक आजाद महौल का निमार्ण एक स्त्री के बिना अधूरा है, क्योंकि जब कोई सुनने वाला ही न हो, तो बच्चे और बुजुर्गों की अभिव्यक्ति मौन रह जाती है.

सुनवाई का अधिकार

सुनवाई का अधिकार भारतीय गणतंत्र में आम नागरिक को मिला वह अधिकार है, जिसे हम संवैधानिक अधिकार के रूप में जानते हैं. आम नागरिक के वाद-विवाद या झगड़े-झंझट का निबटारा न्यायालयों में कानूनी अधिकार से होता है. परिवार में दायरे में बच्चों के विवाद या कभी किसी को लगे कि उसके साथ अन्याय हो रहा है तब उसकी बात मां-दादी के पास ही पहुंचती है. पिता के कठोर अनुशासन या कठिन निर्णय से थोड़ी-बहुत राहत मां-दादी के आंचल में जाकर ही मिलती है. ‘चलो… ठीक है, बात करती हूं तेरे पापा से’- इस भरोसे का सुकून है कि अन्याय नहीं होगा. परिवार के दायरे में हर रिश्तों के बीच का पुल बनकर स्त्री परिवार के सदस्यों के बीच संवैधानिक उपचार की भूमिका में होती है.

हक और भी है…

भारतीय संविधान धार्मिक आजादी, संस्कृति और शिक्षा का मौलिक अधिकार भी देता है. परिवार के दायरे में हर सदस्य को परिवार की धार्मिक आस्था, संस्कृति के प्रति कर्तव्यनिष्ठ और अपनी क्षमता-रुचि के अनुसार चयन करने में स्त्री की भूमिका महत्वपूर्ण होती है. धार्मिक आस्था और संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी तक गतिशील रखने के भूमिका में स्त्री स्वयं होती है. शिक्षा के अधिकार के विषय पर बच्चों पर वह थोपा नहीं जाये, जिसमें उसकी रुचि न हो, इसका ध्यान स्त्री ही सबसे अधिक रखती है.

परिवार संस्था से जुड़े अन्य नागरिक मसलन काम करने वाली दाई या अन्य कर्मचारी से परिवार में स्त्री ही संतुलित व सम्मानजनक व्यवहार स्थापित करती है. जाहिर है कमोबेश परिवार सस्था में स्त्री वह नियामक है, जो परिवार में गणतंत्र की प्रहरी की तरह है. मौटे तौर पर हम कह सकते हैं कि दशकों के संघर्ष के बाद हासिल संवैधानिक अधिकार को ही नहीं, संवैधानिक कर्तव्यों के प्रति जिम्मेदार बनाकर स्त्री परिवार के हर सदस्य को बेहतर नागरिक बनाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है.

परिवार के दायरे में रहते हुए एक स्त्री का संवैधानिक दायित्व का निर्वाह करना, जीवन में अपनी महत्वकांक्षाओं को पूरा करते हुए हमेशा से चुनौतिपूर्ण रहा है. खासकर तब जब सामाजिक संस्कृति के गौरवशाली परंपरा का निर्वाह भी पारिवारिक जिम्मेदारी और करियर के चुनौतियों के साथ-साथ करना है. मां के रूप में अपने बच्चों को देश का भावी नागरिक भी बनाना है. समाज-राज्य और देश की आवश्यकता के अनुसार पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ पशु-पक्षियों के प्रति संवेदनशीलता का पाठ भी वह पढ़ाती हैं. प्रकृति पूजा करते हुए स्त्री संविधान के मूल भावना को साकार करती है. यह हम सबकी नैतिक जिम्मेवारी है कि अपने परिवार में इस प्रहरी को पूरा मान-सम्मान दें और उसकी भावनाओं की कद्र करें.

लैंगिक समानता
का पाठ

भारत के संविधान में बराबरी के कानून शामिल होने के बाद भी समाज-परिवार में ‘लड़के-लड़कियों से भिन्न हैं’, इस बात की मौन सहमति बनी हुई है. यही बात परिवार में कई शोषण का आधार बनती है. ‘लड़के-लड़कियां भिन्न हैं, पर समान रूप से समता के अधिकारी हैं’ का मूल्य बालपन से सिखाने का काम मां, दादी-नानी, बुआ-चाची और मौसी करती हैं. किसी भी काम का कोई जेंडर नहीं होता और श्रम आधारित हर काम हर कोई अपनी-अपनी क्षमतानुसार कर सकता है. यही पाठ परिवार में एक स्त्री बड़ी आसानी से हंसते-मुस्कुराते हुए, कभी कान खींचते हुए तो कभी पीठ थपथपाते हुए पढ़ाती है.

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