अपने देश में शायद ही कोई ऐसा होगा, जिसने रामकथा में शबरी के बेर वाला प्रसंग न सुना हो. वनवासिनी शबरी ने स्वयं चख कर ही यह सुनिश्चित किया था कि आराध्य को समर्पित फल मीठे ही हैं. दिलचस्प बात यह है कि बेर का शुमार जंगली फल की सूची में ही होता है. औघड़ महादेव शिव को भी यह प्रिय है और शिवरात्रि के अवसर पर बेर अचानक हर जगह नजर आने लगते हैं. अंग्रेजी में इसे जूजूब बेरी और इंडियन प्लम का नाम दिया जाता है. कहीं इसकी पहचान चीनी खजूर वाली भी है. बंगाल में बेर से ही कूलेर अचार बनाया जाता है. बड़े मीठे रसीले बेर ही नहीं, नन्हीं बेरियों तथा झड़बेरियों के चाहने वाले भी कम नहीं. इनकी रक्षा करने के लिए तैनात रहते हैं नुकीले कांटे. याद करें वह गाना- ‘मेरी बेरी के बेर मत तोड़ो! कोई कांटा चुभ जायेगा!’ ये तमाम बातें इधर हमारे मन में घुमड़ती रही हैं क्योंकि रंग-बिरंगी देशी-विदेशी बेरियां तरह-तरह के अवतारों में प्रकट होकर हमें ललचाती रही हैं.
बेकरी की दूकानों में जो चीजकेक बनाये जा रहे हैं, उनकी जान ब्लूबेरी, ब्लैकबेरी और स्ट्रॉबेरी ही हैं. आइसक्रीम तथा जिलाटो के अनोखे स्वादों की बुनियाद भी इन्हीं बेरियों की बुनियाद पर टिकी है. स्ट्रॉबेरी की खेती तो अंग्रेजी राज के जमाने से ही हिल स्टेशनों में होने लगी थी. गाढ़े क्रीम के साथ ताजा स्ट्रॉबेरी खाने का तय मौसम वही है, जब विलायत में विंबलंडन की मशहूर टेनिस प्रतियोगिता का आयोजन होता है. अन्य दो बेरियां नये आयात हैं. कश्मीर में गुच्छी और केसर विक्रेता स्थानीय सुखाई ब्लू बेरी और ब्लैक बेरी भी सुलभ कराते हैं. लद्दाख में मिलने वाली लेहबेरी, जो सीबकथौर्न बेरी भी कहलाती है, स्वास्थ्य के लिए असाधारण रूप से लाभदायक समझी जाती है. इस बेरी का स्वाद बेहद खट्टा होता है.
खट्टी बेरियों का इस्तेमाल हमारे देश में अचार-खटाई बनाने के लिए व्यापक रूप से किया जाता है. करौंदा, लसौड़ा, गुंडा के अचार आम, मिर्ची, नींबू के मुकाबले कम दिखलाई देते हैं, परंतु नयी पीढ़ी की बेरियों में बढ़ती दिलचस्पी के साथ इनका भी पुनर्जन्म हो रहा है.
हकीकत यह है कि देश के हर हिस्से में कोई-न-कोई बेरी स्थानीय खान-पान का अभिन्न अंग रही है. राजस्थान में कैर-सांगरी इसका एक उदाहरण है, जहां सूखी बेरियां ताजा सब्जियों का अभाव दूर करती रही हैं. पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में काजल नाम की बेरी सर्वोपरि मानी जाती है, जिसका महिमामंडन लोकगीतों में गूंजता है- ‘बेडू पाको जरा मासा हो, नरैण कासल पाकर चैंप मेरी छैला!’ काले बैंगनी रसीले काजल जंगलों में थोड़े समय के लिए ही फलते हैं और वहीं से बटोर कर बाजार तक पहुंचाये जाते हैं. यह और पीला मीठा हिसालू सुखाये नहीं जा सकते, इसीलिए दुर्लभ रहे हैं. काफल का जायका कुछ-कुछ फालसे जैसा होता है.
शहतूत को अंग्रेजी में मलबेरी कहते हैं और इसका मौसम भी बहुत छोटा होता है. रसभरी (रैस्पबेरी/गूजबेरी) की तरह इसका जैम बनाया जा सकता है. अतः इससे अपेक्षाकृत अधिक लोग परिचित हैं. ताजा अथवा मुरब्बे-अचार के रूप में बेर-बेरियों को अपने खान-पान में शामिल कर इनका स्वादिष्ट लाभ उठाने के लिए महंगे आयात पर ही नजरें टिकाने की दरकार नहीं.