रजिंदर अरोड़ा
सुनीत चोपड़ा से मेरी पहली मुलाकात 1990 में दिल्ली कॉलेज ऑफ आर्ट्स में हुई थी, जहां वे छात्रों के काम का मूल्यांकन करने आये थे. उसके कुछ ही दिन बाद वे सहमत के कार्यालय में मिल गये. वहीं मुझे पता चला कि वे एक राजनीतिक कार्यकर्ता भी हैं और जनवादी युवा फेडरेशन के अध्यक्ष रह चुके हैं. सुनीत चोपड़ा के व्यक्तित्व के कई आयाम थे. गंभीर राजनीतिक कार्यकर्ता होने के साथ वे हंसते-खिलखिलाते रहने वाले हसीन इंसान भी थे. उन्हें आप कभी फोन करें या मिलें और अपनी समस्या बतायें, वे तुरंत उसके हल के लिए तत्पर हो जाते थे.
युवाओं के लिए उनकी लगन तो असाधारण थी. जो युवा कला के क्षेत्र में नये-नये आते थे, उनकी सहायता के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते थे. जब युवा कलाकारों को अपनी प्रदर्शनी के लिए जगह नहीं मिलती थी या उनसे कोई गैलरी अधिक पैसे मांगती थी, तो सुनीत गैलरी वालों, चाहे वे सरकारी हों या निजी, से लड़ जाते थे कि ये बच्चे किसी तरह पेंटिंग कर रहे हैं, वे इतना पैसा कहां से लायेंगे. उनके काम के बारे में वे पत्र-पत्रिकाओं में लिखते भी थे. उनके कैटलॉग के भी लिख देते थे.
सुनीत चोपड़ा को जो तीन दशक मैंने देखा है, इस अवधि में उन्होंने कला पर ढाई-तीन हजार लेख लिखा होगा, जो असाधारण उपलब्धि है. वे भारत-कोरिया मैत्री समाज के महासचिव भी थे. यह भी याद किया जाना चाहिए कि उन्होंने लंदन में एंथ्रोपोलॉजी पढ़ी और लगभग 11 वर्षों तक यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन में अफ्रीकी अध्ययन में अध्यापन किया और फिर जेएनयू में क्षेत्रीय विकास विभाग से जुड़े. लंदन में ही वे फिलीस्तीनी मुक्ति आंदोलन से संबद्ध हुए. कृषि श्रमिकों के आंदोलन में तो वे थे ही. पूर्वोत्तर में उन्होंने आदिवासी समुदायों के बीच भी काम किया और उनके आंदोलन के सहभागी बने. सांप्रदायिकता के विरुद्ध भी वे निरंतर सक्रिय बने रहे. दिल्ली के सांस्कृतिक परिदृश्य में उनकी सतत उपस्थिति रहती थी. देश को वे बहुत अच्छी तरह जानते-समझते थे क्योंकि उनकी शिक्षा दीक्षा देश के तीन महानगरों- दिल्ली, मुंबई और कोलकाता- में हुई थी.
उनकी एक महत्वपूर्ण किताब चित्रकार अर्पणा कौर पर है. समकालीन कलाकारों पर केंद्रित एक अन्य किताब को कला-विमर्श में उल्लेखनीय स्थान प्राप्त है. हर समकालीन चित्रकार को लगता था कि अगर सुनीत चोपड़ा उनके बारे में लिख देंगे, तो उनकी पहुंच थोड़ी और बढ़ जायेगी. कार्यकर्ता से कला समीक्षक तक की उनकी बहुमुखी सक्रियता देखकर हम लोग कहा करते थे कि यह व्यक्ति कभी सोता भी नहीं है क्या. जिस दिन वे गुजरे हैं, उसके दो दिन बाद उन्हीं की क्यूरेट की हुई प्रदर्शनी बीकानेर हाउस में शुरू हुई. उसका नाम उन्होंने ‘जीवन का गीत’ दिया है. वे मरे भी, तो मेट्रो स्टेशन पर वहां के कर्मचारियों के बीच, जिनके लिए वे आजीवन संघर्षरत रहे.
(लेखक-छायाकार)