Women’s Day : जानें ऐसे पुरुषों की कहानी, जो दिला रहे विश्वास, लैंगिक भेदभाव के खिलाफ लड़ाई में महिलाएं अकेली नहीं

महिलाएं समाज और परिवार की धुरी हैं, लेकिन आधी आबादी को समानता का हक आज भी हासिल नहीं हो सका है. यह असमानता तभी दूर हो पायेगी, जब महिलाओं के साथ पुरुष भी इस संघर्ष का हिस्सा बनेंगे. महिला दिवस के खास मौके पर हम लेकर आये हैं दस ऐसे पुरुषों की कहानी, जो यह विश्वास दिला रहे हैं कि लैंगिक भेदभाव के खिलाफ लड़ाई में महिलाएं अकेली नहीं हैं.

By SumitKumar Verma | March 8, 2020 12:35 PM
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महिलाएं समाज और परिवार की धुरी हैं, लेकिन आधी आबादी को समानता का हक आज भी हासिल नहीं हो सका है. यह असमानता तभी दूर हो पायेगी, जब महिलाओं के साथ पुरुष भी इस संघर्ष का हिस्सा बनेंगे. महिला दिवस के खास मौके पर हम लेकर आये हैं दस ऐसे पुरुषों की कहानी, जो यह विश्वास दिला रहे हैं कि लैंगिक भेदभाव के खिलाफ लड़ाई में महिलाएं अकेली नहीं हैं.

ग्रामीण व आदिवासी बालिका तीरंदाजों के द्रोणाचार्य : सुशांत पात्रो

जमशेदपुर : सुशांत पात्रो साल 2012 से जमशेदपुर के आइएसडब्ल्यूपी (तार कंपनी) स्पोर्ट्स कांप्लेक्स में तीरंदाजों की नयी पौध को सींचने में जुटे हुए हैं. इनकी सबसे बड़ी पहचान है कि वह महिला तीरंदाजों के लिए द्रोणाचार्य हैं. भारत को कैडेट विश्वकप दिलानेवाली कोमोलिका बारी भी उन्हीं की खोज हैं.

वह पूर्वी सिंहभूम जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में बालिकाओं को विशेष रूप से ट्रेनिंग देते हैं. घाटशिला के सुदूर ग्रामीण क्षेत्र बड़ा घाट स्टेडियम में उन्होंने सबसे पहले ग्रामीण बालिकाओं को ट्रेंड करना शुरू किया. सुशांत पोटका के कस्तूरबा विद्यालय में भी बालिकाओं को ट्रेंड करते हैं. वहां से उन्होंने लक्ष्मी हेंब्रम को खोजा और उसे तराश कर टाटा आर्चरी एकेडमी के लायक बनाया. सुशांत पात्रो चक्रधरपुर के ग्रामीण क्षेत्र में भी प्रतिभाएं खोजने में कामयाब रहे हैं. यहां स्थित रानी हॉस्टल की मालती नाग ने नेशनल चैंपियनशिप में पदक जीता.

बाहलदा (ओड़िशा) के रहनेवाले सुशांत ने कई साल जमशेदपुर में ताइक्वांडो सीखा. ताइक्वांडो से मन उचटने पर उन्होंने नामदा सेंटर में तीरंदाजी में अपना नाम लिखवा लिया.

2005 में सुशांत का चयन साई रांची में हो गया, जहां डेढ़ वर्षों तक तीरंदाजी सीखने के साथ जूनियर नेशनल में एक रजत पदक भी अपने नाम कर लिया. सुशांत बताते हैं कि 2007 में वे जमशेदपुर इसलिए आये, ताकि खेल के साथ एक नौकरी की तलाश भी पूरी हो सके. लेकिन उन्हें टाटा स्टील में मजदूर का काम मिला. अब स्थिति ऐसी हो गयी कि रात में नौकरी और दिन में तीरंदाजी. दोनों के बीच तालमेल बैठाने में दिक्कतें आने लगी. परेशान होकर 2010 में वह गांव चले गये. 2011 में सुशांत किसी काम से टाटा आ रहे थे.

इस बीच उनकी बस तिरिलडीह गांव के पास पहुंची, तो उन्होंने देखा कि वहां तीरंदाजी प्रतियोगिता चल रही है. मन नहीं माना और वे बस से उतरकर तीरंदाजी देखने चले गये. वहां उनकी मुलाकात उनके पहले कोच विजय प्रसाद से हुई. उन्होंने बिना देर किये पूछा- तीरंदाजी कोच बनना है, तो हमारे साथ आ जाओ. सुशांत ने हामी भर दी और वे विजय प्रसाद के साथ टीएसआरडीएस द्वारा संचालित प्रतिभा खोज अभियान में जुट गये.

तार कंपनी तीरंदाजी सेंटर 2012 में शुरू हुआ, जहां सुशांत को बतौर कोच नियुक्त किया गया. पिछले आठ वर्षों में उन्होंने तीरंदाजों की ऐसी फौज खड़ी की, जिन्होंने पदकों का ढेर लगा दिया है. इसी सेंटर की निर्मला महतो ने 14 राष्ट्रीय पदक जीत कर पूरे भारत में अपनी पहचान कायम की. वर्तमान में सुशांत पात्रो यहां पर 20 बालिका तीरंदाजों को ट्रेंड कर रहे हैं. उनके द्वारा प्रशिक्षित कोमोलिका बारी, लक्ष्मी हेंब्रम, सानिया शर्मा व ज्योति महतो को टाटा आर्चरी एकेडमी में जगह मिली. ये सभी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भाग ले चुकी हैं. सुशांतो की शिष्या लक्ष्मी टूटी तीरंदाजी की बदौलत झारखंड पुलिस में व सुशीला हेंब्रम बंगाल पुलिस में कार्यरत हैं.

आदिवासी महिलाओं को सिखा रहे बागवानी व खेती के गुर : अनिल कु. मिश्रा

कटोरिया : बिहार के बांका जिले में अनिल कुमार मिश्र आदिवासी महिलाओं व उनके परिवार की दशा खेती-बाड़ी व बागवानी के जरिये बदलने में जुटे हैं. उन्होंने लगभग 1500 एकड़ भूमि पर लाखों वृक्ष लगवाये हैं. बागवानी के साथ अंतरवर्ती खेती भी करायी जा रही है. इसमें सब्जी व तिल की खेती होती है. नाबार्ड की वाडी परियोजना अंतर्गत क्षितिज एग्रोटेक प्रा लि के परियोजना प्रबंधक अनिल कुमार मिश्रा कटोरिया, चांदन व बौंसी प्रखंडों में काम कर रहे हैं.

उनके सहयोग से अर्जुन व आम के पेड़ लगाये गये हैं. अर्जुन के पेड़ पर तसर उत्पादन होगा, जबकि फलदार आम का पौधा भी ‘नोटों का पेड़’ साबित होगा. बांका के रजौन प्रखंड के कठौन गांव के रहनेवाले अनिल कुमार मिश्रा ने बताया कि बूंद-बूंद सिंचाई की तर्ज पर प्लास्टिक की बोतल में सूतली बांध कर पौधों की पटवन करायी जाती है. पौधों को बचाने के लिए नीम-तेल व जैविक खाद का उपयोग किया जाता है.

श्री मिश्रा के सहयोग से कटोरिया प्रखंड के आदिवासी बहुल जोगीपहाड़ी, खूट्टाबारी, सिकटिया, दुखनसार, लेटवा, पथरपहाड़ी, डुमरिया, कचनार, तरुणिया, औरावरया, नैयाडीह, आमगाछी, हथगढ़, कानीमोह, मुर्गपकड़ा, नकटी, जमुआ, रूपदेसार, दोगच्छा, जोगीकुप्पा, धानवरण, गोबरदाहा आदि गांवों में आदिवासी महिलाएं बागवानी व खेती कर रही हैं. चांदन प्रखंड के बिरनियां, तेलियामारण, ठाकुरबाड़ी, गौरीपुर, चांदीपीढ़ा, मोदीकुरा, गरभूडीह एवं बौंसी प्रखंड के सांगा, चूनाकोठी, चिलकारा, फागा में भी ऐसा ही काम चल रहा है.

खुद क्रिकेटर नहीं बन सके, तो ग्रामीण बेटियों को तराशने लगे : श्रीराम दुबे

बलियापुर (धनबाद) : श्रीराम दुबे की बदौलत देश की कोयला राजधानी धनबाद की सात बेटियां क्रिकेट के अलग-अलग संस्करणों में राज्य स्तर पर खेल रही हैं. इन बेटियों को उम्मीद है कि उन्हें इंडिया टीम में जरूर मौका मिलेगा. श्रीराम दुबे धनबाद के बलियापुर में ग्रामीण लड़कियों को मुफ्त क्रिकेट कोचिंग दे रहे हैं. वह मूलत: बिहार के भोजपुर जिले के सलेमपुर के रहनेवाले हैं. झारखंड स्टेट सीनियर क्रिकेट टीम में रोमा कुमारी महतो, अंडर-23 स्टेट टीम में सुनीता मुर्मू, रोमा कुमारी महतो, दुर्गा मुर्मू और अंडर 19 स्टेट टीम में पुष्पा कुमारी महतो, लक्ष्मी मुर्मू, उर्मिला कुमारी व अनीता कुमारी उनकी ही शिष्या रही हैं. उनसे क्रिकेट सीख रही या सीख चुकी अधिकांश लड़कियां आदिवासी हैं.

नागपुर से बीपीएड श्रीराम दुबे कहते हैं, ‘सुदूर ग्रामीण इलाके में प्रतिभावान बेटियों को ढूंढ़ना श्रमसाध्य था. खुद की असफलता ने जुनून पैदा किया. बच्चियों को कैंप में लाकर बिना पैसा के उन्हें निखारना किसी चुनौती से कम नहीं था. मेरा सपना टीम इंडिया है. मेरी बच्चियों को एक-न-एक दिन उसमें जरूर जगह मिलेगी.’ उनकी शिष्या दुर्गा मुर्मू साल 2017-18 में झारखंड टीम की कप्तान रह चुकी हैं. श्रीराम दुबे ने तीन साल तक विनोबा भावे विश्वविद्यालय क्रिकेट टीम का प्रतिनिधित्व किया था. सिंदरी बीआइटी में वह कोच रह चुके हैं.

मार्शल आर्ट के जरिये बना रहे सबला : अभिषेक यादव

लखनऊ : 2012 में निर्भया के साथ हुए अपराध ने पूरे देश को शर्मसार कर दिया. इस घटना के बाद, उत्तर प्रदेश के गोरखपुर निवासी अभिषेक यादव महिला सुरक्षा को लेकर कई स्तर पर काम कर रहे हैं. वह एक मल्टी-डिसीप्लिन मार्शल आर्ट एक्सपर्ट हैं. वह कराटे में इंटरनेशनल गोल्ड मेडलिस्ट हैं. उन्होंने निर्णय लिया कि वे इसी स्किल का प्रयोग कर महिलाओं व लड़कियों को आत्मरक्षा की ट्रेनिंग देंगे. अभिषेक अब तक उत्तर प्रदेश में 2.5 लाख लड़कियों को नि:शुल्क सेल्फ डिफेंस ट्रेनिंग दे चुके हैं. वे ‘अभिसेल्फ प्रोटेक्शन ट्रस्ट’ नामक अपने एनजीओ के जरिये ‘मेरी रक्षा, मेरे हाथों’ नाम से प्रोग्राम चलाते हैं.

अभिषेक ने यूपी पुलिस के कमांडो को साल 2007 से ट्रेनिंग देनी शुरू की थी, लेकिन 2012 में निर्भया पर हुए जुल्म के बाद वे लड़कियों को भी ये ट्रेनिंग देने लगे. उनके कैंप में सैंकड़ों छात्राएं आती हैं. वर्ष 2016 में उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ में 57,000 लड़कियों को सेल्फ डिफेंस टेक्निक की ट्रेनिंग देकर वे लिम्का रिकॉर्ड बना चुके हैं.

उनकी टीम में 12 लोग हैं, जो ट्रेनिंग प्रोग्राम चलाने में सहायक के रूप में काम करते हैं. अभिषेक कहते हैं कि हमारा उद्देश्य हर लड़की को सशक्त बनाना है, ताकि वह हर चुनौती का खुद से सामना कर सके. हम आइकिडो ट्रेनिंग का इस्तेमाल करते हैं. इसमें कई दांव हैं, जिनके इस्तेमाल से लड़कियां आसानी से खुद को खतरों से बचा सकती हैं.

वीडियो कैमरे की मदद से मनचलों को दिलाते हैं सजा : दीपेश टैंक

मुंबई : राह चलती महिलाओं के साथ बदतमीजी मनचलों की फितरत होती है. महिलाओं को इस तरह के अपराध से बचाने के लिए ‘वॉर अगेंस्ट रेलवे राउडीज’ नामक मुहिम चला रहे हैं मुंबई के दीपेश टैंक. वह महिलाओं के साथ ट्रेनों और भीड़भाड़ वाली जगहों पर बेहूदगी को स्पाई कैमरे की मदद से शूट करते हैं. इन वीडियोज को वे सुरक्षा अधिकारियों के साथ साझा करते हैं, जिससे वे एक्शन लेते हैं. दीपेश के इस प्रयास से रेलवे पुलिस ने सैकड़ों बदमाशों को गिरफ्त में लिया है. उनकी पहल पर अधिकारियों ने महिला सुरक्षा के मुद्दे पर भी लोगों को जाग्रत किया है और वीडियो निगरानी के तहत अधिक से अधिक स्टेशनों को शामिल किया गया है.

पैडमैन बन किशोरियों के चेहरे पर ला रहे मुस्कान : निगम कंसल

छपरा : ग्रामीण क्षेत्रों में रहनेवाली किशोरियों को हार्मोनल असंतुलन व इससे जुड़ी समस्याओं के प्रति जागरूक करने के उद्देश्य से तीन साल पहले बिहार के सारण जिले के रिविलगंज निवासी निगम कंसल उर्फ भंवर ने प्रखंड स्तर पर कार्यक्रम शुरू किया. आमतौर पर इन परेशानियों को साझा करने तथा सैनेटरी पैड के इस्तेमाल को लेकर ग्रामीण महिलाओं खासकर किशोरियों में एक हिचक होती है. लेकिन निगम कंसल के प्रयासों से अब सूरत बदल रही है.

उन्होंने अपनी संस्था सोशल सर्विस के माध्यम से जिले में पहली बार पैड बैंक खोला. वह सारण के अलग-अलग गांवों में जाकर स्थानीय लोगों के माध्यम से लड़कियों को इकट्ठा करते हैं. उसके बाद उन्हें हर्मोनल असंतुलन की समस्याओं से अवगत कराने के साथ ही उनकी जरूरत के हिसाब से पैड उपलब्ध कराते हैं.

निगम कंसल गांव की लड़कियों का एक ग्रुप बनाकर वहां पैड बैंक की एक यूनिट स्थापित कर देते हैं. इसके बाद वहां स्थानीय युवतियों के माध्यम से जरूरमंदों के बीच पैड का वितरण किया जाता है. इसका रिकॉर्ड रखने के लिए किशोरियों व महिलाओं को एक पासबुक भी दी जाती है. निगम अबतक जिले के पांच प्रखंडों में पैड बैंक की यूनिट स्थापित कर चुके हैं, जहां से किशोरियों को पैड का वितरण मुफ्त किया जाता है.

लड़कियों को करते हैं शिक्षा व खेल के लिए प्रोत्साहित : विद्रोह कुमार मित्रा

मधुपुर : महिलाएं आज किसी क्षेत्र में पुरुषों से पीछे नहीं हैं, लेकिन गांव की लड़कियां आज भी कुछ क्षेत्रों में काफी पिछड़ी हुईं हैं. इसी को देखते हुए देवघर जिले के मधुपुर शहर के पंचमंदिर निवासी विद्रोह कुमार मित्रा ने ग्रामीण लड़कियों के लिए कुछ करने की ठानी. 2013 में मधुपुर कॉलेज से प्रधान लिपिक के पद से रिटायर होने के बाद उन्होंने इसे अपना मिशन बना लिया. उन्होंने कई आदिवासी गांवों का भ्रमण किया और लड़कियों को फुटबॉल के लिए प्रोत्साहित किया. कुछ महीनों में ही लड़कियां फुटबॉल का प्रशिक्षण लेने पहुंचने लगीं.

इस दौरान गरीब लड़कियों में शिक्षा की खराब स्थिति देख लड़कियों को अपने ही घर में नि:शुल्क पढ़ाने भी लगे. इसमें उनकी पत्नी मणिमाला मित्रा ने पूरा सहयोग दिया. ये लोग लड़कियों को मोमबत्ती व सजावट की वस्तुएं बनाने और बुनाई का प्रशिक्षण भी देने लगे. उनके द्वारा प्रशिक्षित कई लड़कियां झारखंड फुटबॉल के अंडर-17 व अंडर-19 शिविर में नियमित रूप से चयनित हो रही हैं.

मधुपुर की नमिता टुडू ने 2018 में स्टेट टीम से भी खेला. अब तक उन्होंने 75 आदिवासी लड़कियों को फुटबॉल का प्रशिक्षण दिया है. वर्तमान में 32 लड़कियां मधुपुर के पथलचपटी, पंदनिया व बरमसिया मैदान में प्रशिक्षण ले रही हैं. इन लड़कियों को बीच-बीच में कोलकाता से महिला फुटबॉल कोच बुला कर भी प्रशिक्षण दिलाया जाता है. सहायक प्रशिक्षक के रूप में विष्णु टुडू ने भी खूब मदद की.

कॉमिक्स के जरिये ला रहे माहवारी के प्रति जागरूकता : तुहिन पाल

आज भी अपने देश समेत दुनिया के कई हिस्सों में माहवारी के बारे में चर्चा करना एक निषिद्ध विषय है. ऐसे में तुहिन पाल और उनकी संस्था किशोरियों को कॉमिक्स के जरिये माहवारी के बारे में शिक्षित करते हैं. तुहिन और उनकी पत्नी अदिति गुप्ता ने 2013 में ‘मेंस्ट्रूपीडिया’ नामक कॉमिक्स की शुरुआत की. यह कॉमिक्स भारत के साथ रोमानिया, मेक्सिको, अर्जेंटीना व चिली जैसे देशों में भी पढ़ी जा रही है. तुहिन व अदिति ने कॉमिक्स की शुरुआत हिंदी भाषा से की थी, ताकि गांव की महिलाएं व किशोरियां कॉमिक्स को आसानी से पढ़ सकें. हिंदी के बाद इस कॉमिक्स का तमिल, गुजराती, बंगाली, कन्नड़ में भी अनुवाद किया गया.

एक वर्ष में ही इस कॉमिक्स की पठनीयता इस कदर बढ़ गयी कि इसे नेपाल, स्पेन और दक्षिण अमेरिका में भी प्रिंट किया गया. नेपाल में मेंस्ट्रूपीडिया को डेढ़ लाख महिलाओं तक पहुंचाया जा चुका है. जल्द ही इसका देश की सभी भाषाओं में अनुवाद किया जायेगा. मेंस्ट्रूपीडिया का लक्ष्य पीरियड से जुड़ी हर जटिल और जरूरी जानकारी आसान तरीके से लड़कियों और महिलाओं तक पहुंचाना है. इस संस्था का कार्यालय गुजरात के अहमदाबाद में है.

चूल्हे के धुएं से छुटकारा दिलाने में करते हैं मदद : अंकित माथुर

मिट्टी का चूल्हा भारत में करोड़ों महिलाओं की रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा है. चूल्हे पर खाना बनाते हुए उन्हें धुएं का सामना करना पड़ता है. इस समस्या से निजात दिलाने के मिशन पर काम कर रहे हैं दिल्ली कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग से ग्रेजुएट अंकित माथुर.

वर्ष 2011 में अंकित माथुर ने अपनी सहयोगी नेहा जुनेजा के साथ मिलकर ‘ग्रीनवे ग्रामीण इंफ्रा’ स्टार्टअप शुरू किया. उनकी कंपनी के उत्पादों में ग्रीनवे स्मार्ट स्टोव और जंबो स्टोव शामिल हैं, जो लकड़ी और फसलों के अवशेष से चलते हैं. इतना ही नहीं इन चूल्हों में ईंधन की खपत 65 प्रतिशत और धुआं 70 फीसदी तक कम हो जाता है.

शुरुआत में अंकित ने ग्रीनवे के प्रोडक्ट बनाने के लिए वेंडर के साथ काम किया, लेकिन इससे प्रोडक्ट की गुणवत्ता बनाये रखने में दिक्कत आने लगी और कीमत भी बढ़ने लगी. वर्ष 2014 में अंकित ने अपनी खुद की फैक्ट्री खोली. इसके बाद जब ग्रीनवे के उत्पाद बाजार में आये, तो उन्हें काफी लोकप्रियता हासिल हुई. उत्पाद को बाजार में उतारने के छह महीनों के अंदर ही प्रतिमाह हजारों स्टोव की बिक्री होने लगी. अब यह कंपनी भारत की सबसे ज्यादा कुक-स्टोव बनाने वाली कंपनियों में से एक है. कंपनी का कार्यालय मुंबई व बेंगलुरु में है.

कम लागत में पैड बनाने में लगा दिया जीवन : अरुणाचलम मुरुगनाथम

पैडमैन फिल्म में अक्षय कुमार ने पैडमैन की भूमिका निभायी है, लेकिन असल जिंदगी के पैडमैन हैं- अरुणाचलम मुरुगनाथम. साल 1962 में जन्मे अरुणाचलम मुरुगनाथम ने 36 वर्ष की उम्र में शांति नाम की लड़की से शादी की. शादी के बाद उन्हें पता चला की उनकी पत्नी पीरियड्स के दौरान सैनिटरी पैड नहीं, बल्कि गंदे कपड़े और अखबारों का इस्तेमाल करती हैं. इस वाकये के बाद मुरुगनाथम ने सस्ते पैड्स बनाने की मशीन बनाने की ठान ली और बेहद कम लागत वाली सैनिटरी पैड्स की मशीन का आविष्कार किया. आज वे अपनी कंपनी चलाते हैं.

मुरुगनाथम की कंपनी के पैड्स का इस्तेमाल देशभर के करीब 4500 गांवों में होता है. ये सब इतना आसान नहीं था. मुरुगनाथम को इस चीज के लिए जागरूकता फैलाने में काफी मेहनत करनी पड़ी. नेशनल इनोवेशन अवॉर्ड की 943 एंट्रीज में उनकी मशीन को पहला स्थान मिला. अरुणाचलम ने 18 महीनों में 250 मशीनें बनायीं. 2014 में उन्हें टाइम्स मैगजीन 100 सबसे प्रभावशाली व्यक्तियों में चुना गया. 2016 में उन्हें पद्मश्री से भी नवाजा गया.

आज अरुणाचलम मुरुगनाथम जयश्री इंडस्ट्रीज नाम का नैपकिन बनाने का बिजनेस चला रहे हैं. इसकी 2003 यूनिट्स पूरे भारत में हैं. 21,000 से ज्यादा महिलाएं इन यूनिट में काम करती हैं.

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