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Tribal Food : फास्ट फूड को ठेंगा दिखाकर अरुणा तिर्की इस तरह लोगों को बना रही हैं पारंपरिक खाने का दीवाना

Tribal Food: पिछले कुछ दशकों में फास्ट फूड हमारे जीवन का हिस्सा बन गया है और हम अपने पारंपरिक खानों से दूर होते जा रहे हैं. ऐसे में जानिए ऐसे एक रेस्टोरेंट के बारे में जो एक 'स्लो फूड' भोजनालय है.

Tribal Food: पिछले कुछ दशकों में फास्ट फूड हमारे जीवन का हिस्सा बन गया है और हम अपने पारंपरिक खानों से दूर होते जा रहे हैं. यही वजह है कि समाज में आज फास्ट फूड वर्सेस स्लो फूड की जंग देखने को मिल रही है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि फास्ड फूड झटपट तैयार हो जाता है और स्वादिष्ट भी होता है, लेकिन स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से यह अच्छा नहीं होता है. यही वजह है कि डाॅक्टर भी इससे दूर रहने की सलाह देते हैं. कई रिसर्च हमें बताते हैं कि फास्ट-फूड के सेवन से हमारे शरीर पर कई बुरे प्रभाव पड़ते हैं जैसे वजन बढ़ना और डायबिटीज का खतरा.

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यही वजह है कि आज कई लोग अपने पारंपरिक खाने को बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं. रांची के कांके क्षेत्र में अरुणा तिर्की कुछ इसी तरह का प्रयास अपने रेस्टोरेंट के जरिए कर रही हैं. अरुणा तिर्की के रेस्टोरेंट का नाम है ‘अजम एम्बा’. अजम एम्बा कुड़ुख भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है- ‘मजेदार स्वाद’. यह एक ‘स्लो फूड’ भोजनालय है जो अपने खास आदिवासी व्यंजनों के लिए जाना जाता है. जब आप इस रेस्टोरेंट में प्रवेश करेंगे तो आपको झारखंड की संस्कृति का भान होगा. इस रेस्टोरेंट में आपका स्वागत जोहर कह कर किया जाता है. यहां भोजन पारंपरिक तरीके से पत्तों के प्लेट में परोसा जाता है.

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इस स्लो फूड रेस्टोरेंट में परोसा जाने वाला भोजन स्थानीय सामग्रियों और परंपरागत तरीके से बनाया जाता है. इस रेस्टोरेंट को अरुणा तिर्की चलाती हैं जो एक एंटरप्रेन्योर हैं और ग्रामीण विकास के लिए भी काम करती थी. उन्होंने प्रभात खबर को बताया कि इस रेस्टोरेंट को शुरू करने के पीछे कारण आदिवासी भोजन और आदिवासी संस्कृति को बढ़ावा देना है.

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अरुणा तिर्की बताती हैं कि जब उन्होंने एक पारंपरिक आदिवासी रेस्टोरेंट खोलने का सोचा, तो उन्होंने इसपर रिसर्च किया और उन्होंने स्लो फूड मूवमेंट के बारे में जाना. इससे प्रेरित होकर उन्होंने अपने रेस्टोरेंट में बनने वाले भोजन के लिए सामग्रियां स्थानीय किसानों और उत्पादकों से मंगाना शुरू किया. इससे उन्हें यह फयदा होता है कि उन्हें सामग्रियां बड़ी मात्रा में मिल जाती हैं और इनसे स्थानीय समुदाय को भी लाभ होता है. उदाहरण के तौर पर वह बताती हैं कि वह पहले कुदरूम की चटनी सिर्फ उसके मौसम में ही बना पाती थीं, पर अब वह इसे स्वयं उगा रही हैं और अपने आस-पास के आदिवासी समुदाय में भी इसे उगाने के लिए बीज उपलब्ध करा रही है.

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अरुणा बताती हैं कि जितने भी प्राकृतिक सामग्रियों का प्रयोग कर वह भोजन बनवाती हैं उनके कई स्वास्थ्य संबंधी लाभ हैं. जैसे फुटकल खाने से दांत और हड्डियां मजबूत रहती हैं और यह पेट की बीमारियों को भी ठीक करता है. बेंग साग यानी ब्राह्मी स्मरणशक्ति को बढ़ता है. इसका ज्ञान उन्हें अपने पूर्वजों से मिला. आदिवासी जंगल में मौजूद पेड़-पौधे के लाभ जानते हैं और उन्हें अपने खान-पान में शामिल रखते हैं, लेकिन अधिकतर लोग उनके बारे में नहीं जानते हैं, इस रेस्टोरेंट के जरिए उन्हें प्रमोट किया जा रहा है. एक रिसर्च में यह बताया गया है कि झारखंड में लगभग 9000 प्रकार के साग हैं जिन्हें खाया जा सकता है और सब के स्वास्थ्य संबंधी लाभ हैं.

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अरुणा तिर्की बताती हैं कि आदिवासी व्यंजन की यह खासियत है कि वह प्रकृति पर निर्भर है. इसे बनाने के लिए किसी भी प्रकार के कृत्रिम वस्तु का इस्तेमाल यहां नहीं किया जाता है. इस भोजन को जिस सामग्री से बनाया जाता है उन्हें किसी भी तरह के केमिकल या पेस्टिसाइड से नहीं उगाया जाता है. इन्हें प्राकृतिक रूप से उगाया जाता है या फिर इन्हें वनों से एकत्र किया जाता है. यही इन्हें दूसरे खान-पान से अलग करता है. अपने इस पहल के जरिये वह चाहती है कि झारखंड के लोग अपने पारंपरिक भोजन पर गर्व कर पाएं. जो व्यंजन यहां के लोगों द्वारा भुलाए जा चुके हैं या जो लुप्त होने की कगार पर हैं उसे वे पुनर्जीवित करना चाहती हैं. वह चाहती हैं कि आदिवासी लोग अपने व्यंजन को निम्न न समझें और वे इसपर गर्व करें.

रिपोर्ट- अनु कंडुलना

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