19.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

Unsung Heroes: कौन हैं चित्तरंजन दास? जिन्होंने वकालत छोड़ गांधी जी का दिया साथ, और निकल गए देश भ्रमण पर

Unsung Heroes: गांधी जी के इस प्रयास को चित्तरंजन दास का भरपूर सहयोग मिला और 1921 में उन्होंने वकालत छोड़ कर पूरे देश का भ्रमण किया. इधर, गांधी जी के असहयोग आंदोलन के दौरान कई छात्रों ने अपना स्कूल-कॉलेज छोड़ दिया था. दास ने उनकी शिक्षा के लिए ढाका में ‘राष्ट्रीय विद्यालय’ की शुरुआत की.

Unsung Heroes: अपने देश भारत को आजाद कराने में कई सेनानियों ने अपने घर परिवार को त्याग दिया. इनकी वीर गाधा की कहानियां इतिहास के पन्नों में दर्ज है, लेकिन कई ऐसे नायक भी थे जो आजादी के लिए मेहनत से मिली नौकरी भी छोड़ दी, वो न केवल वकालत करते थे, बल्की एक लेखक और अच्छे नेता भी थे. हम बात कर रहे हैं चित्तरंजन दास की. को आइए जानते हैं इनके बलिदान और वीरगाथा की कहानी.

चित्तरंजन दास का जन्म कोलकाता (तब कलकत्ता) में 5 नवंबर, 1870 को एक उच्च मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था. उनके पिता भुबन मोहन दास कलकत्ता हाइकोर्ट में वकील थे. मां का नाम निस्तारिणी देवी था. 1890 में कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज से ग्रेजुएशन करने के बाद वह आइसीएस अधिकारी बनना चाहते थे, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली. इसके बाद वह वकालत की पढ़ाई करने के लिए इंग्लैंड चले गये. लंदन के ‘द ऑनरेबल सोसाइटी ऑफ द इनर टेंपल’ से लॉ करने के बाद वह 1892 में भारत लौटे और कलकत्ता हाइकोर्ट में प्रैक्टिस शुरू कर दी.

ALSO READ: 2-Minute Speech on Independence Day:स्वंत्रता दिवस पर दें 2 मिनट का…

ALSO READ: Independence Day Decoration Ideas: ये 3 कलर से स्कूल या कोचिंग सेंटर को सजाएं, दिखेंगे अट्रैक्टिव, आप भी करें फॉलो

अरबिंदो घोष के केस ने बदल दी जिंदगी

वर्ष 1908 की बात है. जब अंग्रेजी हुकूमत ने अंग्रेजी अखबार ‘वंदे मातरम्’ के संपादक अरबिंदो घोष को ‘मानिकतला बम कांड’ के सिलसिले में गिरफ्तार कर लिया. उस समय घोष का मुकदमा दास ने मुफ्त में लड़ा. इसके कारण उनकी ख्याति पूरे देश में फैल गयी. आखिरकार 1910 में घोष जेल से रिहा हुए. इसके बाद उन्होंने बिपिन चंद्र पाल समेत कई लोगों को भी अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों से बचाया. दास 1906 तक कांग्रेस में शामिल हो चुके थे, लेकिन 1917 में बंगाल की प्रांतीय राजकीय परिषद के अध्यक्ष चुने जाने के बाद वह राजनीति में सक्रिय हुए.

रॉलेट एक्ट के खिलाफ आंदोलन में उतरे

अंग्रेजी हुकूमत ने 1919 में दमनकारी रॉलेट एक्ट लाया. इस कानून के तहत मजिस्ट्रेट को यह अधिकार था कि वह किसी भी संदेहास्पद व्यक्ति को गिरफ्तार कर उस पर मुकदमा चला सकता है. महात्मा गांधी ने इस कानून के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन चलाया और मुंबई में ‘सत्याग्रह सभा’ की नींव रखी. गांधी जी के इस प्रयास को चित्तरंजन दास का भरपूर सहयोग मिला और 1921 में उन्होंने वकालत छोड़ कर पूरे देश का भ्रमण किया. इधर, गांधी जी के असहयोग आंदोलन के दौरान कई छात्रों ने अपना स्कूल-कॉलेज छोड़ दिया था. दास ने उनकी शिक्षा के लिए ढाका में ‘राष्ट्रीय विद्यालय’ की शुरुआत की. उन्होंने इस आंदोलन के दौरान न सिर्फ कांग्रेस के लिए बड़ी संख्या में स्वयंसेवकों को जुटाया, बल्कि पार्टी के खादी बिक्री अभियान को भी बढ़ावा दिया. इस दौरान उन्हें पत्नी बसंती देवी के साथ गिरफ्तार कर लिया गया.

ब्रिटिश हुकूमत की नींव हिलाने के लिए चुना अलग रास्ता

1921 में चित्तरंजन दास जब जेल में थे, तो उसी वक्त उन्हें कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन का अध्यक्ष चुना गया. ऐसे में हकीम अजमल खां ने उनके प्रतिनिधि के रूप में जिम्मेदारी संभाली. दास को 1922 में फिर से गया कांग्रेस अधिवेशन के लिए अध्यक्ष चुना गया, लेकिन अब तक वह समझ गये थे कि अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिलाने के लिए कुछ अलग करने की जरूरत है. उन्हें इस पद को अस्वीकार कर दिया. इसके बाद 1922 में चौरी-चौरा कांड ने गांधीजी को झकझोर दिया. इसके बाद उन्होंने असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया.

ALSO READ: Quit India Movement: कैसे शुरू हुई स्वतंत्रता संग्राम की क्रांति, इन महिला नायकों ने निभाई अहम भूमिका

ALSO READ: Unsung Heroes: आंदोलन, जेल और रिहाई के बाद की 10वीं की पढ़ाई, जानिए कौन हैं जंगी लाल? झारखंड में भी हुए मशहूर

स्वशासन के लिए रखी स्वराज पार्टी की नींव

चित्तरंजन दास ने एक जनवरी, 1923 को ‘कांग्रेस खिलाफत स्वराज पार्टी’ की शुरुआत की. वह पार्टी के अध्यक्ष और मोतीलाल नेहरू महासचिव बने. बाद में इसे ‘स्वराज पार्टी’ नाम दिया गया. इसके तहत दास का लक्ष्य देश में स्वशासन, नागरिक स्वतंत्रता और स्थानीय उद्योगों को बढ़ावा देना था. फिर सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली चुनाव में यह पार्टी बंगाल के 101 में से 42 सीटें जीतीं. इसके बाद वह 1924-25 के दौरान कलकत्ता नगर महापालिका के प्रमुख बने. चित्तरंजन दास बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे.

वह जितने अच्छे नेता और वकील थे, उतने ही अच्छे लेखक भी थे. उन्होंने मासिक पत्रिका ‘नारायण’ का लंबे समय तक संचालन किया और धार्मिक पुनर्जागरण को बढ़ावा दिया. तबीयत बिगड़ने पर 1925 में वह स्वास्थ्य लाभ लेने के लिए दार्जिलिंग चले गये. 16 जून, 1925 को उन्होंने तेज बुखार के कारण दुनिया को अलविदा कह दिया. उनकी अंतिम यात्रा कोलकाता में निकली, जिसका नेतृत्व खुद महात्मा गांधी ने किया था.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें