डॉ अभय सागर मिंज ( असिस्टेंट प्रोफेसर, यूनिवर्सिटी डिपार्टमेंट ऑफ एंथ्रोपोलोजी, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय रांची)
Sarhul: आदिवासी संस्कृति में ऐसी बहुत सारी गतिविधियां देखने को मिलती हैं जिनसे पता चलता है कि वे प्रकृति के काफी करीब हैं. आदिवासियों के अनेक प्रकृति प्रेम की गतिविधियों में से एक है सरहुल. इस पर्व में जो विधि-विधान किए जाते हैं वो अपने आप में बड़े दिलचस्प और अर्थपूर्ण होते हैं. जब हम इन्हें पास से देखते हैं तब इसके पीछे छिपे विज्ञान और अवधारणाओं के बारे में पता चलता है.
जल और सूर्य के द्वारा ही नया जीवन संभव
सरहुल की आस्था की बात करें तो इस प्रकृति पर्व को आदिवासी सूर्य और धरती के विवाह के रूप में देखते है. झारखंड में विभिन्न जनजातियां हैं और जब हम इनके आस्था और सृष्टि की रचना को देखते हैं तो प्रायः इन सबकी दंतकथाएं एक समान दिखाई देती हैं. जहां धरती या पृथ्वी को मां के रूप में देखा गाया है और सूर्य को एक पिता की तरह देखा गया है. विवाह का अर्थ, जीवन का नया सृजन होना है. आदिवासी समाज अपने हजारों वर्षों के अनुभव से यह समझता है कि यदि पृथ्वी पर जीवन है, तो उसमें सूर्य की एक जरूरी भूमिका होती है. झारखंड में सरहुल से पूर्व, पूरी धरती पलाश और सेमल के फूलों से लाल दिखने लगती है. यह लाल रंग यौवन का प्रतीक होता है. यह संकेत है कि अब सूर्य और पृथ्वी के विवाह का समय आ गया है, फिर विवाह के समय जिस प्रकार हल्दी के पीले रंग का महत्व होता है वैसे ही सखुआ के पीले फूल चारों ओर नजर आने लगते हैं. सरहुल के आने के साथ ही सखुआ पेड़ की डालियों में फूल आते हैं, नई कोपलें और नए पत्ते आते हैं. पतझड़ के बाद वातावरण में नए जीवन का संचार होता है. जिस तरह विवाह नए जीवन की शुरुआत होती है उसी तरह सरहुल में भी सूर्य की ऊर्जा, पृथ्वी में नए जीवन का संचार करती है. ‘फ़ोटोसिंथेसिस’ या प्रकाश संश्लेषण के तकनीकी रासायनिक प्रक्रिया से आदिवासी समाज भले ही परिचित ना हो लेकिन अपने देशज ज्ञान के अंतर्गत वह अच्छी तरह से जानते थे कि मिट्टी (पृथ्वी), जल और सूर्य के द्वारा ही नया जीवन संभव हो पाता है.
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सरहुल में प्रकृति आराधना मात्र विवाह तक सीमित नहीं
सरहुल में प्रकृति आराधना मात्र विवाह तक सीमित नहीं है. किसी भी गांव में आप जब पारंपरिक सरहुल मनाते हैं तो आपको एक अलग ही प्रक्रिया देखने को मिलती है. सरहुल के एक दिन पहले पाहन या बैगा सरना स्थल में मिट्टी के घड़े में पानी रखकर रात भर वहां छोड़ देते हैं. अगले दिन उपवास के दौरान ही सरना स्थल जाते हैं और घड़े में पानी के स्तर को देखते हैं. घड़े में पानी के स्तर पर आधार किया जाता है कि उस साल कितनी वर्षा होगी. वर्षा के विषय में पाहन भविष्यवाणी करते हैं. यदि घड़े में पानी का स्तर कम होता है तो यह संकेत होता है कि उस वर्ष बारिश कम होगी. यदि पानी का स्तर वैसा ही रहता है या कुछ मात्रा में ही नीचे गिरता है तो यह संकेत होता है कि वर्षा ठीक होगी. यह भविष्यवाणी वह ऐसे ही नहीं करते है इसके पीछे भी विज्ञान है. धार्मिक अगुवा घड़े के स्तर को देखकर समझते हैं कि वातावरण में वायु में आर्द्रता कितनी है. यदि वायु शुष्क होगी तो वह अधिक पानी सोखेगी और घड़े में पानी का स्तर नीचे जाएगा. वायु के शुष्क होने के कारण और आर्द्रता की कमी के कारण वर्षा सीमित होगी. यदि वातावरण में वायु में आर्द्रता अधिक होगी तो वह घड़े के पानी को कम सोखेगी. यह एक सामान्य अवलोकन आधारित विज्ञान है किंतु बेहद तर्कपूर्ण है.
समुदाय लिए प्रार्थना की जाती है
धार्मिक अगुवा इसके बाद पुरखों से जो बात करते हैं वह ‘जियो और जीने दो’ का एक अच्छा उदहारण है. वे सूर्य, धरती और प्रकृति आदि शक्ति से सरना में एक ही स्थान में चक्र अनुक्रम में उल्टी घड़ी की दिशा में पृथ्वी के सभी जीव और निर्जीव के लिए ‘गोहराते’ है. इस चक्रानुक्रम में धार्मिक अगुवा 360 डिग्री पूरा करते है. हर दिशा में वे पुरखों और आदि शक्ति को याद करते हुए खेत खलिहान, गाय – गरु, पेड़ – पौधे, नदी – नाले, जंगल – पहाड़, बरखा, पशु पक्षी, चाँद तारे इत्यादि सभी के लिये प्रेम से विनती करते है. आदिवासी समाज ऐसा है जहां किसी विशेष व्यक्ति के लिए या स्वयं के लिए प्राथना नहीं होता है. यह स्वार्थ से परे वे सबके लिए प्राथना करते है.
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शिकार करना और जंगल के फल- फूल खाना मना
सरहुल से पहले कुछ समय तक शिकार करना और जंगल के फल- फूल खाना मना होता है. यहां तक ‘दातुन-पतई’ तोड़ना भी मना होता है. इसके पीछे एक बहुत ही सरल विज्ञान है – इस समय जीव प्रजनन और गर्भ धारण की प्रक्रिया में होते है. दातुन-पतई, जंगल के फल फूल अभी कोपल अवस्था में होते हैं. इसलिए इन्हें पूर्ण रूप से विकसित होने के लिए छोड़ दिया जाता है.
सरहुल पर्व के समय मुर्गी की बलि
सरहुल पर्व के समय मुर्गी की बलि दी जाती है. इस प्रक्रिया के पीछे भी एक मजबूत आदिवासी ज्ञान होता है. प्राचीन काल में जब एक गांव को बसाने के लिए किसी जंगल के भाग को चुना जाता था तो आदिवासी समाज उस अनजान क्षेत्र में नरभक्षी जानवर के प्रति आशंकित रहते थे. इसलिए एक मुर्गे को उस जंगल में बांध कर रख दिया जाता था. अगले दिन जब उस जगह लोग जाते थे और मुर्ग़ा वैसा ही पाया जाता था तो यह माना जाता था कि वह क्षेत्र सुरक्षित है और वहां एक नया गांव बसाया जा सकता था. इसी प्रक्रिया का पालन करते हुए आज भी सरहुल के समय मुर्ग़े की बलि दी जाती है और पुरखों का धन्यवाद किया जाता है.
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गांव के निर्माण के क्रम में सरना स्थल के लिए भी चुनाव
गांव के निर्माण के क्रम में सरना स्थल के लिए भी चुनाव किया जाता था. आदिवासियों की यह एक सामान्य प्रथा थी कि वे गांव के निकट के जंगलों को जब खेती के योग्य बना लेते थे तब उसी जंगल के एक भाग को यथावत छोड़ दिया जाता था. वैज्ञानिक रूप से यह पवित्र स्थल जो गांव के पास स्थित था, वास्तव में समाज की पारिस्थितिक (इकोलॉजिकल) आवश्यकताओं को पूरा करती थी. इस स्थल के पेड़ एवं अन्य वस्तुओं को पवित्र माना जाता था और किसी भी प्रकार के दैनिक कार्य के लिए इस क्षेत्र में मनाही होती है. इससे सूक्ष्म जीवों का अस्तित्व बना रहता है.
सरहुल में केकड़ा और मछली पकड़ने की भी प्रक्रिया
सरहुल में केकड़ा और मछली पकड़ने की भी प्रक्रिया देखने को मिलती है. धार्मिक अगुवा उपवास के दौरान ही केकड़े और मछली पकड़ते है. फिर उन्हें घर के रसोई में ठीक चूल्हे के ऊपर अन्य बीजों के साथ रख दिया जाता है. धान रोपनी से पहले, इन्हें खाद में मिलाकर वापस खेत में डाल दिया जाता है. केकड़े का आदिवासी विश्वास में एक महत्वपूर्ण स्थान है. केकड़े और मछली ऐसे जीव हैं जिनके असंख्य संतान होते है. यह मान्यता है कि जिस प्रकार केकड़े और मछली के असंख्य संतान होती हैं उसी प्रकार लगाई गई फसल भी अत्यधिक मात्रा में हो. वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह स्थापित तथ्य है कि केकड़े और मछली खेत की उर्वरकता को बनाए रखते है. जिस धान के खेत में मछली होंगी उस खेत का धान स्वस्थ होगा. खेत में उपस्थित मछली, धान के लिए हानिकारिक परजीवियों को अपना भोजन बना लेतीं है.
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सरहुल के बाद क्या होता है
सरहुल के ठीक बाद लोग अपने खेत के छोटे से भाग में धान के बीज लगाते है. यह ये संकेत देता है कि अब हल बैल चलाने की अनुमति आदि शक्ति और पुरखों से स्वीकृत हो गई है. इस छोटे से खेत के द्वारा ही समाज आने वाले मौसम और वर्षा का भी संकेत होता है. उनके लिए मौसम और जलवायु का अध्ययन करने वाला उपकरण एवं विधि यही है.
सामाजिक एकता का प्रतीक सरहुल
सरहुल के प्राकृतिक और धार्मिक महत्व के अलावा यह सामाजिक एकता का भी प्रतीक है. यह एक ऐसा समय है जब सामाजिक बंधन को फिर से प्रगाढ़ किया जाता है. लोग एक गांव से दूसरे गांव अपने संबंधियों के यहां जाकर इसे पूरे उल्लास के साथ बनाते हैं. लेकिन आज गांवों में भी तेज़ी से परिवर्तन होता जा रहा है. जहां यह महापर्व अलग -अलग गांव में अलग दिन मनाया जाता था, अब यह एक ही दिन मनाया जाने लगा है. इससे आपसी संबंधों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है. अब समाज व्यक्तिगत हो रहा है. स्वयं के घर में पकाने खाने तक यह महापर्व सीमित हो गया है. इतना ही नहीं, पारंपरिक वाद्य यंत्र, गीत संगीत भी अब मशीनी होते जा रहे हैं. जब संगीत स्वयं नहीं बजायेंगे और गीत नहीं गायेंगे, तो एक “मूक” समाज का ही निर्माण होगा.