होली मस्ती के साथ-साथ जीवन में हर रंग को लाने का संदेश देती है. पहले की होली में मस्ती के रंग अधिक होते थे. भोजपुरी समाज से जुड़े और रचनाकार अरविंद विद्रोही बिगही (मीरगंज) गोपालगंज के हैं. वे बताते हैं कि आज से चालीस-पचास साल पहले गांव में होलिका दहन में सभी लोग जुटते थे. उस समय हिंदू मुस्लिम में भेद नहीं था. गांव के दुर्गा स्थान से होली शुरू होती थी. हर दरवाजे पर ढोल-मंजिरा के साथ होली खेली जाती थी.
घर के लोग होली खेलने वालों के लिए व्यवस्था कर रखते थे. होली खेलते-खेलते देर रात हो जाती थी. कई दिन पहले से फाग शुरू हो जाता था. विद्रोही वर्ष 1964 में जमशेदपुर आ गये. यहां उस समय गाड़ी बहुत कम थी. सभी मजदूर साइकिल से एक-दूसरे के घर जाते थे. होली खेलते थे. लोग रात दस बजे के बाद तक घर पर अतिथियों का इंतजार करते थे.
अरविंद विद्रोही, साहित्यकार
साकची के व्यवसायी भरत भूषण दोस्त बताते हैं कि आज से साठ-सत्तर साल पहले जमशेदपुर की होली का रंग ही अलग था. उस समय हर जगह ठंडाई बनती थी. डफली लेकर गली-मुहल्ले में होली खेलने निकल जाते थे. कनेल व अन्य फूल से घर में रंग बनता था. यह काम सप्ताह दस दिन पहले शुरू हो जाता था. वे बताते हैं कि उस समय जुबिली पार्क जंगल था.
वहां से फूल लाकर रंग बनाया जाता था. वह यह भी बताते हैं कि वे लोग आलू को काटकर चाकू से मैं गधा हूं, होली है आदि लिखते थे. यह सब शीशे में देखकर उलटा लिखा जाता था. सबसे पहले अाने वाले व्यक्ति की पीठ पर इससे रंग के जरिये छाप मारा जाता था. पीठ पर उभर आता था, मैं गधा हूं. और सभी मस्ती करते थे
भरत भूषण, व्यवसायी