डॉ मोनिका शर्मा:
यह एक अकाट्य सच है कि कोई भी इंसान अपने आप में परफेक्ट या निपुण नहीं हो सकता. फिर भी सामने जब एक स्त्री हो, तो उससे सबकी यही अपेक्षा जुड़ जाती है कि उसे अपने काम में निपुण होना ही चाहिए. शादी करके जब वह दूसरे के घर जाती है, तो वहां सभी यही उम्मीद करते हैं एक दिन में ही उनकी बहू ससुराल के तौर-तरीके सीख ले. पति यही उम्मीद करता है कि उसकी पत्नी कुकिंग से लेकर बच्चों को संभालने और घर में सबका ख्याल रखने में नंबर वन हो.
बच्चे भी अपनी मां से यही उम्मीद करने लगते हैं कि उनकी मम्मी किसी की मम्मी या टीचर से जरा भी कम न हो. धीरे-धीरे सबकी अपेक्षाओं पर सौ फीसदी खरा उतरने का दबाव एक स्त्री मन पर हावी होने लगता है. इस तनाव में या तो वह अंदर ही अंदर टूटने लगती है या फिर एक दोहरे चरित्र का आवरण ओढ़ लेती है, जो उससे उसकी वास्तविक पहचान छीन लेता है.
स्त्री विमर्श का सबसे अहम पहलू यह रहा है कि महिलाओं से किसी खास खांचे में फिट होने की उम्मीद न की जाये. भावनाओं के बंधन और जिम्मेदारियों की जद्दोजहद उनका जीवन भले असहज ना बनायें, पर जाने क्यों और कैसे हर काम में परफेक्ट होना, हर बात में सही सलीका अपनाना और जिम्मेदारी के हर मोर्चे पर एक आदर्श उदाहरण पेश करने का सारा दायित्व स्त्रियों के हिस्से आता गया.
जबकि इंसानी स्वभाव को लेकर यह भी माना जाता है कि कोई इंसान परफेक्ट नहीं होता. पर महिलाओं से हर हाल में परफेक्ट होने की उम्मीद की जाती है. तकलीफदेह तो यह है कि महिलाएं खुद भी अक्सर परफेक्ट बनने के दबाव को लेकर तनाव में रहती हैं और कई शारीरिक-मानसिक समस्याओं से घिर जाती हैं.
इसीलिए जरूरत अपने आप के स्वभाविक कमियों को खुल कर स्वीकार करने की है. दरकार अपने व्यक्तित्व और व्यवहार के हर पहलू को बदलने के दबाव में ना आने की है. सशक्त होने के मायने यह भी हैं कि किसी के जैसा या कुछ ऐसा या वैसा बन जाने के खांचे में फिट होने की सनक से बचा जाये. परफेक्ट बनने के फेर में फंसने के बजाय खुद को सहजता से स्वीकार कर खुलकर जिंदगी को गले लगाया जाये.
परफेक्शन की चाहत आपको पूर्णता तो नहीं देती, पर मन में अधूरापन जरूर ला देती है. अपनी अच्छाइयों के बजाय कमियों पर फोकस करने की ओर ले जाती है, इसीलिए परफेक्ट बनने की कोशिश करने के बजाय खुद को बेहतर बनाने की कोशिश कीजिए. आदर्श या अव्वल हो जाने के बदलाव की नहीं, बेहतरी की राह पर चलने की सोचें. यों भी पूरी तरह खुद को आदर्श व्यक्तित्व बनाने के फेर में पड़ने के बजाय संवारने की कोशिशें ज्यादा अच्छी होती हैं.
ऐसी कोशिशें, जिनमें आप खुद को तराशें और आज को बीते हुए कल से बेहतर बना सकें. साथ ही आने वाले कल की बेहतरी की बुनियाद भी रख सकें. सुखद है कि ऐसे प्रयास परफेक्शन के पहलू पर सोचने की नहीं होती, बल्कि जिंदगी के सफर को मन भर जीने का जरिया बनते हैं.
एक कहावत है- ‘यह बात बिल्कुल सच है कि आप बहुत सारी चीजों में परफेक्ट नहीं हैं, लेकिन यह बात भी बिल्कुल सच है कि बहुत सारी चीजें आपके बिना परफेक्ट नहीं हैं.’ इसीलिए खुद को स्वीकारिए. अपने हिस्से की खुशियां बटोरने के लिए अपने बारे में अच्छा महसूस करने की आदत डालिए. खुद को जानने और स्वीकारने के भाव के प्रति सहज रहना सीखिए. आप भीतर या बाहर से जो भी हों, अपने आप पर स्नेह लुटाइए.
आप जो कुछ भी करें, उसमें हर हाल में अव्वल नहीं रह सकतीं. परफेक्ट मां, परफेक्ट पत्नी और परफेक्ट प्रोफेशनल पर्सन नहीं बन सकतीं. हां, जो कुछ आप कर रही हैं, उसे मन से कीजिए. अपनी उस खास भूमिका को एंज्वॉय करना सीखिए. अनुभव बटोरिए और सहजता से आगे बढ़ जाइए. खुद पर परफेक्ट बनने या बने रहने का अस्वाभाविक दबाव मत बनाइए. याद रखिए कि बिना किसी दबाव के जीना, अपने जैसा होना ही आपको सच्ची खुशी दे सकता है.
खुद को अपूर्ण समझते हुए एक बड़ी गलती दूसरों को परफेक्ट समझ लेने की भी होती है, जबकि सच तो यह है कि कोई भी इंसान परफेक्ट नहीं होता और ना हो सकता है. इसीलिए अपने-पराये के बीच खुद को कमतर आंकने की सोच मन में ना आने दें. यह आपके आत्मविश्वास और स्वाभिमान को चोट पहुंचाने वाले विचार हैं. खुद के प्रति सकारात्मक विचारों के मोर्चे पर हमेशा मजबूती से डटी रहें. इतना ही नहीं, इस बात की भी परवाह मत कीजिए कि लोग आपके बारे में क्या सोचते हैं.
ऐसी सोच हर पहलू पर आपका अपना बिगाड़ ही करती है. हर इंसान में कुछ ना कुछ खास जरूर होता है, पर कोई भी इंसान आदर्श व्यक्तित्व का धनी नहीं हो सकता. इसीलिए अपनी खासियत को कायम रखिए. परफेक्ट होने से ज्यादा अच्छा है, यूनिक होना.
कुछ महिलाओं के दुखी होने का एक कारण यह होता है कि वह भी जाने-अनजाने समाज की तरह दूसरों में परफेक्शन ढूंढ़ती हैं. कई बार उनका मन सिर्फ इस बात को लेकर दुखी हो जाता है कि जिस इंसान को हर तरह से परफेक्ट समझा, वह इंसान कुछ अलग ही निकला. उसमें कई कमियां दिखने लगती हैं. ऐसे में हैरान-परेशान ना हों. कोई इंसान पूरी तरह परफेक्ट नहीं होता.
अफसोस कि यह जानते-समझते हुए भी हम अपने जीवन साथी, दोस्तों, रिश्तेदारों और आस-पड़ोसियों से परफेक्ट होने की उम्मीद लगा बैठते हैं. नतीजतन, उनसे हमारी अपेक्षाएं भी बढ़ जाती हैं. हमारे मन में उनकी एक खास छवि बन जाती है. जबकि कोई भी इंसान किसी एक खांचे में फिट नहीं हो सकता. कई बार समय और हालात भी इंसान को बदल देते हैं. इन सभी बातों को सहजता से स्वीकारिए. न तो खुद को परफेक्ट बनाने की सोचिए और ना ही दूसरों से हर हाल में परफेक्ट रहने की उम्मीद पालिए. तभी जीवन में खुशियों का रास्ता खुला रहेगा.
ये स्वीकार ना कर पाना कि ‘हम परफेक्ट नहीं हैं’, हमारे अहंकार को दर्शाता है और यह अहंकार हमें इस बात को स्वीकार करने से रोकता है कि हम परफेक्ट नहीं बन सकते. यदि आप उन चीजों को बदलने का प्रयास कर रहे हैं, जिन्हे बदलना आपके बस में है, तो बहुत अच्छी बात है. लेकिन यदि आप उन चीजों को बदलने की कोशिश कर रहे हैं, जो आपके हाथों में नहीं है, तो आप दुख और निराशा को बुलावा दे रहे हैं.
खुद से प्यार करना बहुत जरूरी है और यदि खुद से प्यार करना है, तो जैसे आप हैं, खुद को वैसे ही स्वीकारें. चाहे आपका रूप-रंग कैसा भी हो, उस पर ध्यान ना देकर एक बेहतर इंसान बनने का प्रयास करें, क्योंकि रूप- रंग हमेशा एक जैसा नहीं रहता. किसी की खूबसूरती की तारीफ करना अच्छी बात है, लेकिन उससे खुद की तुलना कर खुद को कम आंकना अच्छी बात नहीं है. हो सकता है उस व्यक्ति में वो सब अच्छी बातें ना हों, जो आप में हैं.