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बनारस की पहचान है काष्ठ कला, आज भी इन इलाकों में जीवित है यह उद्योग

इस तरह की अधिकांश वस्तुएं प्लास्टिक और फाइबर से बन रही हैं, तब इस व्यवसाय में दो तरह के परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं. लकड़ी की कारीगरी करने वाले कई परिवार समय के साथ अपने व्यवसाय को निखार रहे हैं.

सुधीर कुमार

बनारस में काष्ठ कला की पहचान एक सशक्त कुटीर उद्योग के तौर पर रही है. यहां के कश्मीरीगंज, खोजवां, भेलूपुर, किरैया जैसे इलाके तथा सुंदरपुर, कंदवा और सोनारपुरा जैसे गांवों में एक समय लकड़ी के खिलौने व अन्य सामान बनाये जाते थे. देश की सांस्कृतिक राजधानी होने की वजह से बनारस में पर्यटकों का आना-जाना सालभर लगा रहता है. वे लौटते समय याद के तौर पर लकड़ी से बने बच्चों के खिलौने, देवी-देवताओं की प्रतिमाएं, घरों को सजाने की वस्तुएं, लट्टू और सिंदूरदानी जैसी चीजें ले जाते रहे हैं. वर्तमान समय में जब इस तरह की अधिकांश वस्तुएं प्लास्टिक और फाइबर से बन रही हैं, तब इस व्यवसाय में दो तरह के परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं. लकड़ी की कारीगरी करने वाले कई परिवार समय के साथ अपने व्यवसाय को निखार रहे हैं. वहीं, कई ऐसे भी हैं,जो इस व्यवसाय से मुंह मोड़कर रोजगार के अन्य टिकाऊ माध्यम की ओर कदम बढ़ाने को लाचार हुए हैं.

बनारस के जिन इलाकों में आज भी काष्ठ कला उद्योग जीवित है,उनमें कश्मीरीगंज शामिल है. गुरुधाम चौराहे से महज कुछ मिनटों की दूरी पर ही स्थित कश्मीरीगंज में कुछ वर्ष पूर्व तक एक बड़ी आबादी लकड़ी के सामानों बनाने में संलग्न थी, लेकिन अब गिने-चुने परिवार ही यह काम कर रहे हैं. यहां अधिकतर घरों में लट्टू, सिंदूरदानी तथा लकड़ी के विभिन्न प्रकार के खिलौने बनाये जाते हैं. लगन के समय मुख्यतः सिंदूरदानी ही बनायी जाती है. यह छोटे से लेकर बड़े आकार में उपलब्ध है. कई कारीगर बताते हैं कि वे सालोंभर सिंदूरदानी बनाने का ही काम करते हैं. लकड़ी से बनी वस्तुओं को बेचने के लिए कारीगरों को बाहर नहीं जाना पड़ता है. रोज शाम को कई व्यापारी मुहल्ले में आकर सारा माल खरीदकर ले जाते हैं. कश्मीरीगंज में निर्मित लकड़ी की किसी भी वस्तु की कीमत सभी कारीगर बैठक कर एकमत से निर्धारित करते हैं. सरकार ने जब से कोरइया की लकड़ी के प्रयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है,तब से ये कारीगर यूकेलिप्टस की लकड़ी का ही इस्तेमाल करते हैं. यूकेलिप्टस की लकड़ी अपेक्षाकृत कठोर होती है, लेकिन विकल्प के अभाव में कारीगर इसी पर अपनी कला का जौहर दिखाते हैं.

कश्मीरीगंज निवासी 49 वर्षीय ज्ञानेश्वर का यह पुश्तैनी धंधा है. इस व्यवसाय से करीब 25 वर्ष से जुड़े ज्ञानेश्वर ने महज आठवीं तक की पढ़ाई की है, लेकिन अपनी कला में वह उस्ताद हैं. वह हमसे बात करते-करते अपनी मशीन चालू करते हैं और लकड़ी को कुछ ही मिनटों में आवश्यकतानुसार काट लेते हैं और फिर डिजाइन बनाना शुरू कर देते हैं. उसके बाद रंगीन लाख को लकड़ी पर घिसते हैं, जिससे क्षण भर में ही निर्मित वस्तु की रंगायी हो जाती है. वह बताते हैं कि बनारस से छह-सात बरस पहले ही काष्ठ कला उद्योग खत्म हो जाता, लेकिन कुछ कारीगरों ने संघर्ष कर इस कला और व्यवसाय को जीवित बनाये रखा है. ऐसे समय में जब केंद्र सरकार प्रधानमंत्री विश्वकर्मा योजना से कारीगरों और शिल्पकारों के उन्नयन का प्रयास कर रही है, तो काष्ठ कला उद्योग से जुड़े लोगों में भी एक आस जगी है.

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