World Menstrual Hygiene Day: माहवारी कोई रोग नहीं, बल्कि निरोगी होने का प्रतीक है!
World Menstrual Hygiene Day: भारत की आजादी के 76 वर्षों बाद भी माहवारी या मेंस्ट्रुएशन भारत एक सोशल टैबू बना हुआ है. ज्यादातर लोग आज भी इसके बारे में खुल कर बात करना पसंद नहीं करते.
World Menstrual Hygiene Day: भारत की आजादी के 76 वर्षों बाद भी माहवारी या मेंस्ट्रुएशन भारत एक सोशल टैबू बना हुआ है. ज्यादातर लोग आज भी इसके बारे में खुल कर बात करना पसंद नहीं करते. इस चुप्पी की वजह से लाखों महिलाएं हर साल सर्वाइकल कैंसर, ओवरियन कैंसर या कोलोरेक्टल कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों की चपेट में आकर अपनी जान तक गंवा बैठती हैं. इस स्थिति से निपटने के लिए सरकार तथा स्थानीय स्वैच्छिक संस्थाओं के साथ-साथ कई प्रवासी भारतीय भी इस दिशा में गंभीरता से कार्य कर रहे हैं. जानते हैं उनके प्रयासों एवं चुनौतियों के बारे में.
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा वर्ष 2011 में माहवारी स्वास्थ्य योजना की शुरुआत की गयी थी, जिसका उद्देश्य था आशा कार्यकताओं के माध्यम से समुदायों में कम कीमत पर सैनिटरी नैपकिन उपलब्ध करवाना. – जल शक्ति मंत्रालय (वर्तमान में पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय), भारत सरकार ने वर्ष-2014 में माहवारी स्वास्थ्य को स्वच्छ भारत मिशन- ग्रामीण पहल के तहत शामिल कर दिया.वर्ष- 2015 में भारतीय शिक्षा मंत्रालय ने माहवारी स्वास्थ्य प्रबंधन की कार्ययोजना से संबंधित दिशानिर्देश जारी किया. इस कार्ययोजना निर्देश ने सभी राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों को माहवारी स्वास्थ्य योजना की दिशा में गंभीरतापूर्वक कार्य करने के लिए एक ब्लूप्रिंट प्रदान किया. आगे चलकर इसी कार्ययोजना के तहत स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय किशोरी स्वास्थ्य कार्यक्रम शुरू किया गया, जिसका लक्ष्य किशोरियों तक माहवारी स्वास्थ्य सुविधाओं तथा सहायता की पहुंच को सुनिश्चित करना था. इन तमाम प्रयासों के बावजूद जमीनी हकीकत यह है कि आज भी हमारे देश की एक बड़ी महिला आबादी या तो माहवारी स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित है या फिर उसके बारे में पूरी तरह से अंजान है. ऐसी स्थिति में न सिर्फ देश के भीतर बल्कि विदेशों में बैठे कई प्रवासी भारतीय भी अपने देश की इस जरूरत को पूरा करने के लिए गंभीरता से प्रयास कर रहे हैं.
समर्थ होने के बावजूद महिलाएं आत्मनिर्भरता के अभाव में है वंचित : नेहा भंसाली
जब मैं भारत में रहती थी, तब मैंने यह महसूस किया कि सैनिटरी पैड महिलाएं केवल जागरूकता के अभाव में ही नहीं, बल्कि आर्थिक रूप से असमर्थ होने के कारण भी नहीं खरीद पाती हैं. यह तस्वीर एक बात तो स्पष्ट करती है कि महिलाएं सामर्थ्यवान होने के बावजूद भी आत्मनिर्भर और जागरुक न होने के कारण इस बदलती हुई दुनिया में कहीं पीछे छूट जा रही हैं. ऐसी स्थिति बहुत जरूरी है कि महिलाओं को सशक्त बनाकर समानता का अवसर दिया जाये, ताकि हर महिला अपने सपनों को सच कर सकें या यूं कहें कि बदलते भारत में अपना बेहतर योगदान दे सकें. जब भी हम इन मुद्दों पर काम करते हैं, तो सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न हमारे सामने यह आ खड़ा होता है कि भारत के हरेक गांव में, हर एक कोने में महिलाएं तो हैं, लेकिन उनमें से हर किसी की सैनिटरी पैड तक पहुंच नहीं है, आखिर क्यों?
हमारी कोशिश रहती है कि हम स्कूल और सार्वजनिक जगहों पर विभिन्न संस्थानों की मदद से सैनिटरी पैड मुहैया कराएं. कारण, देश की आजादी के इतने सालों बाद भी सैकड़ों गांवों में महिलाओं को आज भी सैनिटरी पैड उपलब्ध नहीं हो पाता हैं. हालांकि इन सबके बीच खुशी की एक धूप तब दिखायी देती है, जब पता चलता है कि हमारी मुहिम से प्रभावित होकर ग्रामीण इलाकों में भी कुछ लोग अलग-अलग जगहों पर अपने स्तर से इस दिशा में काम कर रहे हैं और जागरूकता फैला रहे हैं.
कुछ दिनों पहले ज़ूम कॉल के माध्यम से मुझे भारत के अलग-अलग हिस्सों में संगिनी प्रोजेक्ट के तहत काम कर रही ऐसी ही कुछ शिक्षिकाओं व अन्य कार्यकर्ताओं से जुड़ने का मौका मिला. इस दौरान आरा के प्राथमिक विद्यालय की शिक्षिका आशा की कहानी ने मेरे दिल को गहरे से छुआ. उन्होंने बताया कि कैसे छात्राओं की सहायता से उन्होंने अपने स्कूल और आस-पास के इलाकों में महिलाओं सहित पुरुषों के बीच भी माहवारी विषय को लेकर जागरुकता अभियान चलाया. यह बताते हुए उनकी आंखें नम हो गयीं कि उनके इन प्रयासों का नतीजा है कि अब स्कूल में अपनी बेटियों और बहनों के लिए सैनिटरी पैड लेने के लिए औरतों के साथ-साथ पुरुष भी आने लगे. उनकी मानें, तो अब उन्हें महसूस होता है कि उनका अभियान सही दिशा में जा रहा है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में हर महीने लगभग 35 करोड़ महिलाएं मासिक धर्म चक्र से गुजरती हैं. इस संख्या के मुताबिक अभी हम लक्ष्य से बहुत दूर हैं. ऐसी स्थित में जरूरी है कि हम सब सरकार और अन्य संस्थाओं के साथ मिल कर सशक्त भारत की तस्वीर को और भी खूबसूरत बनाएं.
हर महिला तक हो सैनिटरी पैड की पहुंच
मेरा मानना है की जब देश का हर नागरिक सशक्त होगा, तभी देश की एक प्रगतिशील तस्वीर उभर कर सामने आ सकती है. इसके लिए बहुत जरूरी है कि महिलाएं स्वस्थ एवं जागरूक हो. NFHS/5 2019-21 के आंकड़ों के अनुसार, 14 से 19 साल के बीच की 66.6% महिलाएं तथा 20 से 24 साल के बीच की 67.7% महिलाएं आज भी मासिक धर्म के समय कपड़े का इस्तेमाल करती हैं. अगर इस समस्या को गांव और शहर के संयुक्त परिपेक्ष्य में समझने की कोशिश करें, तो गांवों की कुल 69.9% महिलाएं तथा शहरों की कुल 51.5% महिलाएं माहवारी के दौरान आज भी कपड़े का इस्तेमाल करती हैं.
इस समस्या को देखते हुए हमारे “नेतरहाट आवासीय विद्यालय” के पूर्ववर्ती छात्र संगठन “नोबा जीएसआर” ने संगिनी प्रोजेक्ट की स्थापना की, जिसका मकसद है- महिलाओं को जागरुक, स्वस्थ्य एवं सशक्त बनाना. इस प्रोजेक्ट के माध्यम से हमारा मकसद है, महिलाओं को आसानी से सैनेटरी पैड मुहैया कराना, ताकि वे स्वस्थ्य एवं सुखद माहवारी अनुभवों से परिचित हो सकें. इसके लिए हमने कस्बों, गांवों एवं अन्य दूर-दराज के इलाकों में सैनेटरी पैड की वेंडिंग मशीन एवं इन्सीनेटर (भस्मक यंत्र) मशीन लगाया है. इस वेंडिंग मशीन से कोई भी महिला 2 रुपये का सिक्का डाल के सैनिटरी पैड प्राप्त कर सकती है. उस पैड को इस्तेमाल करने के बाद उसे इंसीनेटर में डाल कर आसानी से नष्ट कर सकती है, जिससे कि वह वातावरण को प्रदूषित न करे.
इस मुहीम के दौरान हमने पाया कि भारत में माहवारी स्वच्छता प्रबंधन की दिशा में कई सारी चुनौतियां हैं, जैसे कि जागरूकता का अभाव , महिलाओं की आर्थिक परतंत्रता, माहवारी से जुड़ी समस्याओं की उपेक्षा तथा इससे संबंधित कुरीतियां एवं गलत धारणाएं. जागरूकता के अभाव में कई महिलाएं आज भी मासिक धर्म के दौरान गंदे कपड़ों का इस्तेमाल करती है. वे पारंपरिक तरीको के बीच सैनेटरी पैड के इस्तेमाल को कई बार नजरअंदाज कर देती हैं. वहीं दूसरी ओर, कुछ जागरुक लोग इस मुहीम को दूर- दराज इलाकों, गांवों, कस्बों, शैक्षिक संस्थानों एवं अन्य जगहों पर पहुंचाने में अहम भूमिका निभा रहे है.
अब तक हमारी संस्था मात्र 790 दिनों में 640 जगहों पर सैनिटरी पैड वेंडिंग मशीन एवं इन्सीनरेटर लगवा चुकी है. शुरुआती दिनो में हम केवल बिहार और झारखण्ड में ही काम कर रहे थे, लेकिन अब इनके अलावा कर्नाटक , तेलंगाना , पश्चिम बंगाल एवं महाराष्ट्र में भी काम कर रहे हैं.
हमारी कोशिश है कि वर्ष 2030 तक बिहार-झारखण्ड से इस पीरियड पॉवर्टी को जड़ से समाप्त कर सकें. भारत सरकार भी जन-औषधि केंद्र के माध्यम से मात्र एक रुपये में पैड की सुविधा मुहैया करा रही है, लेकिन उपलब्धता सीमित होने की वजह से यह हर महिला तक पहुंच नहीं पा रही है. सुप्रीम कोर्ट के नये आदेशानुसार, अब राज्य सरकार ने भी इस दिशा मे काम करना शुरू कर किया है. आने वाले वक्त मे हमारी कोशिश है कि हम सरकार व् अन्य संस्थानो के साथ मिलकर प्रभावशाली तरीके से एक स्वस्थ एवं सशक्त समाज का निर्माण कर सकें.
आत्मनिर्भरता के जरिये माहवारी स्वास्थ्य को बढ़ावा
मैं भले पिछले 20 वर्षों से लंदन में रह रहा हूं, लेकिन पैदाइश तो बिहार (दरभंगा जिला) की है, इसलिए दिल से बिहारी ही हूं. हमेशा अपने देश के लिए कुछ करने की इच्छा थी, इसलिए जब मौका मिला, तो पीछे कैसे रह सकता था. कुछ वर्षों पूर्व मैंने अपने कुछ स्कूल फ्रेंड्स के साथ मिल कर इस दिशा में काम करने का तय किया था. हमारे संस्थान का मूल मंत्र है- ‘आत्मनिर्भरता’. हमने कोशिश की है कि माहवारी के बारे में अधिक-से-अधिक लोगों से बातचीत करके उन्हें जागरूक बना सके, जरूरतमंद महिलाओं के लिए सैनिटरी पैड की उपलब्धता सुनिश्चित कर सकें और उसके अपशिष्ट का भली-भांति निस्तारण भी करवा सके. हम ग्रामीण क्षेत्र के स्कूलों और ग्राम सभा या ग्राम पंचायत कार्यालयों में माहवारी किट (सैनिटरी पैड डिस्पेंसर, इंसीनरेटर, सेनेटरी पैड आदि) की उपलब्धता सुनिश्चित करने का प्रयास किया है, जहां महिलाएं आसानी से पहुंच सकती हों. इसके अतिरिक्त हम माहवारी से जुड़ी भ्रांतियों एवं रूढ़ियों को खत्म करने के लिए महिलाओं एवं लड़कियों के साथ कार्यशालाएं भी आयोजित करते हैं.
हमने अपनी मुहिम को ‘संगिनी’ नाम दिया है. इसके तहत वर्ष 2022 में पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर पांच गांवों के कुल 50 स्थानों को चुना था और वहां मिली आशातीत सफलता के बाद से लेकर अब तक हमने बिहार और झारखंड के कुल 625 स्थानों पर सैनिटरी पैड वेंडिंग मशीन तथा इन्सिनेरेटर इंस्टॉल करवा चुके हैं, जिनके जरिये सालाना करीब 18 करोड़ सेनेटरी पैड्स का वितरण होता है और करीब 1,50,000 महिलाएं एवं लड़कियां को इससे लाभान्वित हो रही हैं. आगे हमारा लक्ष्य इस साल के अंत तक कुल 1000 स्कूलों को कवर करने का है. वर्तमान में बिहार-झारखंड के अलावा हम बेंगलुरु के कुछ सुदूर इलाकों में भी काम कर रहे हैं.
वर्तमान में आधुनिक डिजिटल तकनीकी के ज़रिये हमने अथक प्रयास किया है कि हम अपने उपभोक्ताओं से लगातार जुड़े रहें। स्वच्छ माहवारी के प्रति जागरूकता, मशीनों के ख़राब होने की तुरंत जानकारी, मशीनों में पैड्स की निरंतर उपलब्धता, जमीनी स्तर पर संगिनी के सफलता का लगातार आकलन इत्यादि इस डिजिटल तकनीक से हम कर पा रहे हैं. इस दिशा में हम सदा प्रयत्नरत हैं और इस और सुदृढ़ बनाने हेतु वचनबद्ध हैं.
एक देश से दूसरे देश में काम करने के लिए निश्चित रूप से लोकल सपोर्ट बेहद महत्वपूर्ण है. इस दिशा में हमें स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, बीपीसीएल आदि संगठनों सहित वॉश यूनाइटेड, व्हील्स ग्लोबल फाउंडेशन और प्रयत्न जैसी कई संस्थाओं का भरपूर सहयोग मिल रहा है. हमारे उद्देश्यों को साकार करने में रूट लेवल वॉलंटियर्स का बड़ा योगदान है. उनके सहयोग के बिना हम इस मुहिम में सफल होने की सोच भी नहीं सकते थे. मैं मानता हूं कि लोगों, खास कर महिलाओं की स्वास्थ्य सुरक्षा सुनिश्चित करके एक पूरे परिवार और पूरे समुदाय के स्वास्थ्य को सुनिश्चित किया जा सकता है, क्योंकि महिलाएं परिवार का आधार होती हैं. अगर वे स्वस्थ्य रहेंगी, तभी वे अपने परिजनों को स्वस्थ रखने के लिए प्रोत्साहित होंगी.
महिलाओं को भी अपना नजरिया बदलने की है जरूरत
सबसे पहले तो मुझे इस बात से आपत्ति है कि माहवारी को लोग ‘समस्या‘ या ‘परेशानी‘ के रूप में क्यूं इंगित करते हैं. माहवारी कोई परेशानी नहीं, बल्कि पूर्ण से एक प्राकृतिक शारीरिक प्रक्रिया है. जिस तरह प्यूबर्टी एज में शरीर में हार्मोनल बदलाव होने से लड़कों के गाल, दाढ़ तथा छाती पर बाल उगने शुरू हो जाते हैं, उसी तरह से महिलाओं के शरीर में हार्मोनल बदलाव माहवारी के रूप में परिलक्षित होता है. लड़कों को तो अपने दाढ़ी-मूंछ के लिए शर्मिंदगी नहीं झेलनी पड़ती, फिर लड़कियों के लिए माहवारी शर्म का विषय क्यों बन जाता है? मैं मानता हूं कि महिलाओं को भी इस बारे में अपना नजरिया बदलने की जरूरत है. जब तक वे इन मुद्दों पर खुल कर बोलेंगी नहीं, अपनी परेशानी या तकलीफ (माहवारी से संबंधित शारीरिक या मानसिक) को साझा नहीं करेंगी, तब तक उन्हें इसके लिए शर्मिंदगी या असुविधा झेलनी पड़ेगी.
माहवारी की वजह से हर साल करोड़ों लड़कियों को अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ जाती है. कई जानलेवा बीमारियों का शिकार हो जाती हैं या फिर मर जाती हैं. मैं बिहार के पूर्वी चंपारण जिले के केसरिया क्षेत्र में स्थित गरीबा गांव का मूल निवासी हूं. बचपन में अपने घर में मां-चाची, बहनों आदि महिलाओं को भी माहवारी के मुद्दे पर दबे-छिपे रूप से खुसर-फुसुर करते देखा करता था. जब इन सबकी स्पष्ट समझ आयी, तब तक यूएसए में शिफ्ट हो चुका था, लेकिन कुछ बातें मन में गहराई से जमी थी. जैसे- एक बार शिक्षा विभाग में कार्यरत अपने एक दोस्त से पता चला कि उसने वहां के एक स्कूल जमीन पर गिरे खून के धब्बे दिखे. पता चला किसी किशोरी को माहवारी आयी है और वह उसे मैनेज करना नहीं जानती. आश्चर्य की बात तो यह है कि स्कूलवालों को भी ऐसी स्थिति से कैसे निपटा जाये, यह पता नहीं था. वे माहवारी आने पर बच्चियों को घर भेज दिया करते थे और फिर वे आगे चार-पांच दिनों तक स्कूल नहीं आती थीं. इस तरह की स्थितियों ने ही मुझे इस दिशा में काम करने के लिए प्रेरित किया. आज मैं विभिन्न देशों में रहनेवाले अपने कुछ साथियों के साथ मिल कर बिहार-झारखंड के कई इलाकों में ‘पीरियड पॉवर्टी’ से मुक्त कराने की दिशा में कार्य कर रहा हूं. हम मूलत: 4-ए सिद्धांतों पर पर काम करते हैं- (I) अवेयरनेस, (II) अफोर्डेबिलिटी, (III) एवेलेबिलिटी (IV) ऐसेसिबिलिटी और (V) एसेप्टेबिलिटी.
इसके तहत हम स्कूलों के साथ-साथ ग्राम प्रभारी की मदद से ग्रामीण महिलाओं को माहवारी किट उपलब्ध करवाते हैं, ताकि महिलाओं 24*7 यह सुविधा मिलने में किसी तरह की कोई कठिनाई न हो. हमारा लक्ष्य है कि हम वर्ष 2030 तक इन राज्यों को माहवारी चिंता से मुक्त कर सकें. इस क्षेत्र में अपने सामुदायिक कार्यों के लिए मुझे अमेरिकी सरकार से प्रेसिडेंट अवॉर्ड भी मिल चुका है. भारत सरकार या बिहार अथवा झारखंड राज्य सरकार से तो हमें अब तक कोई मदद नहीं मिली है, लेकिन हमें उम्मीद है कि बहुत जल्द हम सरकार के साथ मिल कर कार्य को अधिक गति के साथ पूरा करऋ सकेंगे.