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World Senior Citizens Day: बुढ़ापे की लाठी बेटा ही क्यों, बेटियां क्यों नहीं

आज विश्व वरिष्ठ नागरिक दिवस है. समाज में सदियों से शादी के बाद एक बेटी के लिए अपने ससुराल के साथ अपने मां-बाप की सेवा और देखभाल करना बड़ी चुनौती है लेकिन हमारा समाज निरंतर बदल रहा है. आज यह दृश्य आम है कि बेटियां वैवाहिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए अपने माता-पिता की देखभाल भी बखूबी कर रही हैं.

World Senior Citizens Day: आज विश्व वरिष्ठ नागरिक दिवस है. पिछले कुछ दशकों में भारतीय समाज बहुत ज्यादा बदलाव आये हैं, खान-पान, पहनावे से लेकर परिवार की संरचना और पारिवारिक रिश्तों में भी यह बदलाव देखा गया है. कुछ दशकों पहले की अगर बात करें, तो भारतीय समाज में बेटों की महत्ता को हमेशा ही सर्वोपरि रखा जाता रहा. परिवार की संपूर्णता के लिए बेटा कितना जरूरी है, इसके लिए तरह-तरह के तर्क दिए जाते रहे हैं. इन सभी तर्कों में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण तर्क यह होता है कि बेटा वृद्धावस्था में मां-बाप की देखभाल और सेवा करेगा, जो ब्याहता बेटी नहीं कर सकती है, क्योंकि वह किसी और परिवार की हो चुकी होती है. आज पढ़ें ऐसी कुछ बेटियों की कहानी, जो ऐसी कोरी मान्यताओं को नकारते हुए दोनों ही परिवारों की जिम्मेदारियां बखूबी निभा रही हैं.

कमला जोशी

बरेली में रहने वाली 68 वर्षीया कमला जोशी पेशे से हिंदी और संगीत की शिक्षिका रहीं. दो भाइयों में अकेली बहन रही कमला ने अपने वृद्ध पिता की सेवा उनके जीवन के अंतिम सांस तक की. ससुराल में बीमार सास की सेवा के साथ पिता की सेवा-सम्मान करने में उनके पति स्व. भुवन चंद्र जोशी ने भी पूरा साथ दिया. वे हमेशा कहते थे कि यह हमारा सौभाग्य है कि हमें इनके साथ (कमला के पिता) रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. भुवन जी ने एक दामाद से ज्यादा एक बेटे की तरह विद्याधर जी की देखभाल की. कमला कहती हैं कि मेरे पिताजी ने हमेशा मुझे उच्च शिक्षा के प्रति प्रोत्साहित किया. वह मेरी हर छोटी-बड़ी चीज का ध्यान रखते थे.

सोमाद्रि शर्मा

जयपुर की पत्रकार सोमाद्रि शर्मा अपनी मां-पिता की देखभाल अकेले करती रही हैं. पिता की मृत्यु के बाद भी 80 वर्षीया मां की देखभाल वे और उनके पति एक बच्चे की तरह ही करते हैं. भाई के होने के बावजूद मां-पिता की सेवा किये जाने को लेकर वे कहती हैं कि मां-पिता का साथ होना भगवान के आशीर्वाद से कम नहीं होता है. मां-बाप की देखभाल का जितना जिम्मा एक बेटे का होता है, उतना ही हिस्सा बेटी का भी होता है, क्योंकि मां-बाप दोनों के ही होते हैं. समाज के बनाये नियम-कायदे कई बार एकतरफा दिखते हैं, पर ससुराल में एक लड़की के लिए जो जटिलता होती है, शायद इस वजह वृद्धावस्था में मां-बाप की सेवा करने की बात बेटों द्वारा की जाती है, पर अगर बेटी समर्थ है और उसका ससुराल, पति सहयोगी है तो बेटी को मां-बाप की देखभाल करने में कोई दिक्कत आयेगी ही नहीं.

आकांक्षा झा

अपने माता-पिता की शादी के 14 वर्ष बाद आकांक्षा उन्हें इकलौती संतान के रूप में प्राप्त हुईं. इस वजह से वह बेहद दुलार-प्यार में पली-बढ़ीं. हालांकि, किस्मत को कुछ और ही मंजूर था. आकांक्षा जब स्कूल में थीं, तभी से उनकी मां की तबीयत गड़बड़ रहने लगी थी. धीरे-धीरे वह चलने-फिरने में लाचार हो गयीं. कुछ वर्षों में पिता भी डिमेंशिया के शिकार हो गये. ऐसी स्थिति में बेहद कम उम्र में ही अपने माता-पिता सहित घर और बाहर- हर तरह की जिम्मेदारी आकांक्षा हो उठानी पड़ी, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया- शादी से पहले भी और शादी के बाद भी. उन्होंने अपनी पढ़ाई के साथ जॉब भी जारी रखा. माता-पिता की मृत्योपरांत बेटे का फर्ज निभाते हुए न सिर्फ उन्हें मुखाग्नि दी, बल्कि प्रत्येक वर्ष उनकी बरसी की रस्म भी निभाती आ रही हैं.

सोनाली गुप्ता

गया जिले की निवासी सोनाली गुप्ता तीन भाई-बहनों में सबसे छोटी हैं. इसी कारण शुरू से ही अपने माता-पिता की लाडली संतान रहीं. हालांकि, छोटी उम्र में ही उनलोगों के सिर से पिता का साया उठ जाने की वजह से कई वर्षों तक उन्हें काफी तकलीफें झेलनी पड़ीं. इसी बीच बड़ी बहन की शादी दुर्गापुर कोलकाता में हो गयी और बड़े भाई की जॉब मुंबई हो गयी. एक सीधी-सादी घरेलू महिला होने की वजह से सोनाली की मां आपाधापी से भरे मुंबई शहर में जा कर रहना नहीं चाहती थीं. ऐसे में सोनाली ने मां को अपने साथ पटना स्थित अपने घर में ही रखने का निर्णय लिया और अच्छी बात यह रही कि उनके पति आशीष गुप्ता ने भी अपनी पत्नी के इस निर्णय का पूरा समर्थन किया. आशीष खुद को लकी मानते हैं कि उन्हें एक साथ दो मांओं का प्यार पाने का मौका मिला है. यही नहीं, वे अपने घर के हर निर्णय में अपनी सासूं मां के नजरिये को भी उतनी ही तरजीह देते हैं, जितना कि अपनी मां के नजरिये को.

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