पोते-पोती के सामने सारी भूल माफ कर देते हैं माता-पिता
माना कि बहू की मां भी नाती को उतनी ही ललक से देखना चाहती थी, जितना दादी अपने पोते को. बेटी के विवाह के बाद तो अभिभावक मानसिक रूप से तैयार होते हैं कि बेटी अपने घर गयी. मगर बेटे के विवाह के बाद यह नहीं सोचा जाता. वह तो नौकरी के चलते ही बेटे […]
By Prabhat Khabar Digital Desk |
June 28, 2017 12:27 PM
माना कि बहू की मां भी नाती को उतनी ही ललक से देखना चाहती थी, जितना दादी अपने पोते को. बेटी के विवाह के बाद तो अभिभावक मानसिक रूप से तैयार होते हैं कि बेटी अपने घर गयी. मगर बेटे के विवाह के बाद यह नहीं सोचा जाता. वह तो नौकरी के चलते ही बेटे दूर जाते हैं. जब बच्चा होने के बाद उस छोटे से घर में सास छोटे बच्चे के साथ रह सकती है, तो क्या कुछ दिनों के लिए मां को नहीं बुलाया जा सकता था? मां रोती रही, मगर जब सास वापस गयी तब मां को बुलाया. यह कैसा बरताव है मां के प्रति!
हम क्यों अपनी झूठी भावनाओं, झूठे प्यार, भेदभाव में इतने अंधे हो जाते हैं कि अपने जन्म दिये बच्चों में ही फर्क करने लगते हैं. बेटा हो या बेटी, दोनों को ही मां नौ महीने गर्भ में पालती है. ऐसा तो नहीं कि बेटे को वह नौ महीने में जन्म देती है और बेटी को 5-6 महीने में? बेटा हो या बेटी, होनेवाली मां दोनों को बहुत सावधानी से नौ महीने गर्भ में रखती है. जितनी फिक्र वह अपनी नहीं करती, उससे कहीं ज्यादा अपने होनेवाले बच्चे की करती है. हां, आज भी कुछ स्थानों पर भ्रूण हत्याएं हो रही हैं. उनमें हमारी बहनें भी शामिल हैं और बराबर की जिम्मेदार भी. कुछ बेबस हैं, तो कुछ पूरी तरह से दोषी. वह भी अलग मुद्दा. उस पर भी जरूर चर्चा करूंगी, क्योंकि भ्रूण हत्या हमारे समाज पर आज भी एक कलंक है, लेकिन वह मां जो नौ महीने एक बच्चे को हर पल अपने साथ रखती है. सोते-जागते, खाते-पीते हर समय उसका ख्याल रखती है, उसकी ममता यह जानने पर कैसे बदल जाती है कि उसका बच्चा बेटा नहीं बेटी है? क्या उसने उसे जन्म नहीं दिया? दोनों को ही जन्म देने में मां को प्रसव पीड़ा से गुजरना पड़ता है. तो फिर मां उनमें फर्क कैसे कर सकती है? मां होकर यह फर्क करना गले के नीचे नहीं उतरता. मगर फर्क तो महिलाएं करती ही हैं. माएं शायद कम करती हैं.
जो महिलाएं-पुरुष यह मानते हैं कि बेटे उनके बुढ़ापे का सहारा हैं, तो वे यह बात दिमाग से निकाल दें. आजकल आप यह भविष्यवाणी भी नहीं कर सकते. पहली बात तो आज की जो परिस्थितियां हैं, उनको ध्यान में रख कर सोचें तो आपको बातें खुद स्पष्ट हो जायेंगीं. हालांकि पहले भी यही स्थिति थी. नौकरी के लिए बच्चे दूसरे राज्यों में ही नहीं, बल्कि विदेश भी जाते थे, लेकिन उस वक्त एक या दो बच्चे नहीं होते थे. एक बेटा बाहर गया, तो दूसरे बच्चे मां-पिता, परिवार का ख्याल रखते थे. जो खेती संभालते थे, वहीं या आस-पास नौकरी करते थे. मगर आज एक-दो बेटे या बच्चे होते हैं. सभी कैरियर को लेकर सचेत हैं, होना भी चाहिए. माता-पिता भी जागरूक हैं. वे भी चाहते हैं कि उनके बच्चे अच्छी से अच्छी जगह नौकरी करें. बेटा ही नहीं, बेटी भी अपना भविष्य खुद गढ़े, बनाये, अपने पैरों पर खड़ी हो. तो ऐसे हालातों में क्या बेटे का सहारा खोजना और क्या बेटी का? दोनों को ही नौकरी और एक सुखद, बेहतर, खुशहाल भविष्य के लिए बाहर निकलना पड़ेगा. उसे आपको छोड़ कर जाना ही है. जहां से वह वर्ष में एक बार, ज्यादा-से-ज्यादा दो बार ही आ सकता है. कुछ बच्चे मां-पिता को साथ ले जाते हैं, तो कुछ इतना नहीं कमाते कि दो कमरे का घर लेकर मां-पिता को साथ रख सकें. ऐसा वे सोचते हैं. हालांकि माता-पिता कई बच्चे एक कमरे में पाल लेते हैं. जो बेटा-बहू माता-पिता को घर छोटा होने की वजह से साथ नहीं रखते और यही दलील भी देते हैं कि एक कमरे में मां-पापा को कैसे साथ रखें, वही अपने बच्चों को उसी एक कमरे में पालते हैं.
इतना ही नहीं, मेरे सामने से ऐसे कई उदाहरण गुजरे जब बेटों ने अपने मां-पापा को इग्नोर करके सास-ससुर को विदेश बुलाया. एक किस्सा- एक बेटे ने भारत से माता-पिता को इसी तर्क पर नहीं बुलाया कि घर छोटा है, लेकिन जब उसका परिवार बढ़ा तो होनेवाली दादी का मन मचल गया, वह पोते को देखने के लिए बेताब हो गयी. उन्होंने खुद टिकट कराया, मगर बेटे ने मना कर दिया, क्योंकि बहू ने पहले अपनी मां को बुलाया और बेटे ने पत्नी का पक्ष लेते हुए कहा कि ‘’मां तुम समझो न, वह अपनी मां के साथ ज्यादा कम्फरटेबल रहेगी.’’ पहले छह महीने बहू की मां रही, फिर जब वह भारत लौटीं, तब दादी का नंबर आया. तब तक वह अपने पोते को वीडियो कॉल करके देखती और बाद में खूब रोती. सबसे दुखद बात- बेटे ने सासू मां का टिकट कराया. मां बाद में भी अपना टिकट खुद कराकर गयी थीं. कारण- पोते का मोह जो स्वाभाविक था.
अब यहां कई सारे प्रश्न उठते हैं. क्या बेटे को मां का ख्याल नहीं आया? माना कि बहू की मां भी नाती को उतनी ही ललक से देखना चाहती थी जितना दादी पोते को. बेटी के विवाह के बाद तो अभिभावक मानसिक रूप से तैयार होते हैं कि बेटी अपने घर गयी. मगर बेटे के विवाह के बाद यह नहीं सोचा जाता. वह तो नौकरी के चलते ही बेटे दूर जाते हैं. जब बच्चा होने के बाद उस छोटे से घर में सास छोटे बच्चे के साथ रह सकती है, तो क्या कुछ दिनों के लिए मां को नहीं बुलाया जा सकता था? मां रोती रही, पोता हुए छह माह बीत गये, जब सास वापस गयी तब मां को बुलाया. यह कैसा बरताव है मां के प्रति! अब एक महिला की भावनाओं की बात करते हैं. क्या उस सास ने जो एक महिला है, मां है और नानी भी है, एक बार भी सोचा कि जैसे वह अपने नाती के साथ खेल रही है- एक दादी भी तड़प रही होगी अपने पोते को गोदी में उठाने के लिए, उसे प्यार करने के लिए, उसे छूने के लिए? जबकि हम सब बचपन से सुनते आ रहे हैं कि ‘असल से सूद ज्यादा प्यारा होता है.’ माता- पिता कितना ही क्यों न नाराज हों, जहां पोते-पोती सामने आये, सारे गिले-शिकवे मिट जाते हैं. वे अपने बच्चों की सारी गलतियां माफ कर देते हैं.
वीना श्रीवास्तव
साहित्यकार व स्तंभकार, इ-मेल : veena.rajshiv@gmail.com, फॉलो करें –
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