जिन रिवाजों से नुकसान हो उन्हें बदलना ही सही

वीना श्रीवास्तव साहित्यकार व स्तंभकार, इ-मेल : veena.rajshiv@gmail.com, फॉलो करें – फेसबुक : facebook.com/veenaparenting. ट्विटर : @14veena एक महिला ने लिखा है कि उसकी ननद की शादी नहीं हो रही है. उसके बेटे की आदतें खराब होती जा रही हैं. वह सिगरेट पीने लगा है. उन्होंने लिखा है कि उनके यहां हड़िया पी जाती है, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 27, 2017 1:53 PM
वीना श्रीवास्तव
साहित्यकार व स्तंभकार, इ-मेल : veena.rajshiv@gmail.com, फॉलो करें –
फेसबुक : facebook.com/veenaparenting. ट्विटर : @14veena
एक महिला ने लिखा है कि उसकी ननद की शादी नहीं हो रही है. उसके बेटे की आदतें खराब होती जा रही हैं. वह सिगरेट पीने लगा है. उन्होंने लिखा है कि उनके यहां हड़िया पी जाती है, मगर बेटा हड़िया के अलावा शराब पीने लगा. पति पहले से ही पीता था. घर के माली हालात ठीक नहीं हैं. इस वजह से शादी के लिए रुपये नहीं जोड़ पा रहे हैं.
उस महिला ने यह भी लिखा है कि पहले मैं भी पीती थी, मगर मैंने पीना छोड़ दिया मगर न तो पति मानता है और न ही बेटा. सबसे दुखद यह है कि उनके बेटे ने दसवीं ही पास की है. अब दसवीं में पढ़नेवाला बच्चा सिगरेट पी रहा है, शराब पी रहा है, तो मां के लिए इससे ज्यादा दुखद क्या होगा? पिता कुछ नहीं कह रहा, लेकिन मां दुखी है और उसने हड़िया भी पीनी छोड़ दी. अभिभावक का कर्तव्य है कि बच्चों को नशे की चीजों से दूर रखें. मगर जब आप खुद ही पियेंगे तो बच्चों को कैसे मना करेंगे?
बच्चे ने अगर आपसे सवाल कर दिया कि आप मुझे मना कर रहे हैं, तो खुद क्यों पीते हैं ? वैसे भी जब हम बच्चों को किसी बात के लिए मना करते हैं, तो पहले हमें खुद को देखना होगा कि कहीं वह आदत हमारे अंदर तो नहीं? अगर हमारे अंदर वह गलत आदत है, तो हमें बच्चों को नसीहत देने का हक नहीं. हमें उपदेश नहीं देना है, बल्कि पहले खुद अमल करना है. उन्हें न लगे कि जब खुद वही काम कर रहे हैं, तो हमें क्यूं मना कर रहे हैं ?
आदिवासियों में हड़िया पीने की रिवाज है. उनके त्योहारों में हड़िया पी जाती है और देवी-देवताओं को भी चढ़ती है. मैं कुछ समय पहले एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में गुमला, लोहरदगा और लातेहार के कुछ गांवों में गयी थी. वहां रास्ते में हड़िया खूब मिलती है और महिलाएं बेचती हैं. वहीं क्यों, सभी जगह महिलाएं हड़िया बेचती दिखायी देती हैं. खैर, मैंने वहां कई महिलाओं से बात की. कुछ तो हिंदी समझ ही नहीं सकीं. मगर कुछ ने जवाब दिये. उन्होंने हड़िया बनाने का प्रोसेस भी बताया.
उन्होंने बताया कि वे सभी अपने बच्चों को स्कूल भेजती हैं. उनके पति खूब हड़िया, दारू पीते हैं, लेकिन उनके घर में झगड़े नहीं होते. उन्होंने बताया कि हम सभी त्योहारों को खूब एनज्वॉय करते हैं. जब मैंने उनसे कहा आपको पता है न कि हड़िया-शराब पीना खराब होता है और हड़िया भी तो एक तरह का नशा ही है, इसलिए नहीं पीनी चाहिए, तो कुछ ने तो अनभिज्ञता जाहिर करते हुए मुझसे ही प्रश्न किया- ‘नहीं पीनी चीहिए ?’ मगर कुछ ने कहा- ‘क्या करें, जानते तो हैं कि नशा करना अच्छा नहीं, पर का करेंगे, हमरे तो देवी-देवता भी यही पीते हैं.
हर त्योहार में हड़िया चढ़ती है. आदिवासी का सब परब में हड़िया जरूर होगा. सब देवता को हड़िया-दारू चढ़ता है और पूर्वज भी हड़िया पीते थे, तो हम काहे नहीं पियेंगे ? अभी बुढ़िया कर्म आ रहा है, उसमें भी हम पियेंगे और देवता को भी चढ़ायेंगे.’ मैंने कहा कि ‘चलिए देवता को चढ़ाया जाता है, तो चढ़ा दीजिए, यह पूजा का एक हिस्सा है, लेकिन खुद मत पीजिए, प्रसाद के रूप में चख लीजिए’. तो दूसरी महिला ने कहा- ‘दीदी जी, हमरे देवता नाराज हो जायेंगे. हम नहीं पियेंगे, नहीं चढ़ायेंगे, तो हमारे पुरखे जो नहीं रहे, वे हमको मार देंगे. हमरा बुरा करेंगे. जो-जो बूढ़ा-बूढ़ी मर गये हैं, उन्हीं को न बैठाते हैं परब में ? उनको तो हड़िया- दारू देना ही है और नहीं देंगे तो हमको पकड़ेगा, दुख देगा, फिर कहीं दिखेगा, तो कहेगा तुम ऐसा नहीं कर रहा है, तभी हम ऐसा दुख दे रहे हैं. ऐसा हम लोगों में है. जैसे पहले का आदमी किया, वैसे ही न करना पड़ता है !’.
वह बार-बार इस बात पर जोर दे रही थीं कि अगर हड़िया नहीं चढ़ायी, तो पूर्वज दुख देंगे. पटक कर मारेंगे. अब इसको आदिवासियों का भोलापन कहा जाये या यह माना जाये कि उनमें जागरूकता और शिक्षा की कमी है. अभी भी जो उनके हालात हैं, चिंतनीय हैं, लेकिन इसका परिणाम है कि आदिवासी आज भी हड़िया पीते हैं. आज भी उन गांवों में जागरूकता की, शिक्षा की कमी है. वहां जरूरत है उनकी सोच को सही दिशा देने और उनको मुख्य धारा में शामिल करने की.
रिवाज- परंपराएं माननी चाहिए मगर जिन रिवाजों से हमें, हमारे परिवार और समाज को नुकसान हो, उसे बदलना ही बेहतर है. देवी- देवता पर हड़िया चढ़ना रिवाज है, तो रिवाज मानते हुए जरूर चढ़ाना चाहिये, मगर खुद नहीं पीना चाहिए या त्योहार-पर्व में पीते भी हैं, तो यह उसी दिन तक सीमित होना चाहिए. सामान्य दिनों में नहीं पीना चाहिये.
इससे बच्चों पर गलत असर पड़ता है. जो लोग पढ़-लिख कर यह बात समझ रहे हैं, वह तो कोशिश करते हैं कि यह रिवाज-त्योहार तक सीमित रहे, मगर सब नहीं समझते. जैसा कि उस महिला ने लिखा कि उसने पीना छोड़ दिया, मगर पति नहीं मानता और अब उसका बेटा हड़िया के साथ शराब भी पीने लगा. एक तरफ तो स्वास्थ्य पर खराब असर पड़ता है, दूसरी तरफ रुपये-पैसों की दिक्कत होती है.
हालांकि आदिवासियों में बहुत सारी खूबियां भी हैं, जो पढ़े-लिखे तबके में नहीं. दहेज प्रथा और बाल विवाह बहुत कम है, नहीं के बराबर. पुरुष पीते हैं, लेकिन घर में मार-पीट कम करते हैं. यह बात भी सही है कि बुरी आदतें लगने में देर नहीं लगतीं, जबकि अच्छी बातों को अपनाने में समय लगता है. हम और हमारे समाज का ढांचा इस कदर बिगड़ चुका है कि उसे सुधरने में शायद कई दशक लग जायेंगे.
क्रमश:

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