दुर्गापूजा के बाद से ही हमें दीपावली का इंतज़ार रहता. हम चारों बहनें मिट्टी के घरौंदे बनाने में जुट जाते. जहां वह ठीक से नही बनता वहां मां साथ देती. इस बात का खास ख्याल रखा जाता कि वह ऐसी जगह बनाया जाये, जहां धूप आती हो नहीं तो वो सूखेगा नहीं.
सहेलियों से कॉम्पिटिशन के चक्कर में कई बार हम चार-चार तल्लों के घरौंदे बना लेते और उसकी सजावट में हमारी कलात्मक अभिव्यक्ति का शानदार प्रदर्शन झलकता. दीपावली के दिन उस घरौंदे में खील-बताशे कुल्हिया-चुकिया में भर कर रखते. फिर मां लक्ष्मी और गणेश की पूजा करती और फिर पटाखों का दौर शुरू होता.
अब घर से दूर रहते हुए हर साल बहुत मिस करती हूं वह घरौंदा, मिट्टी और रंगों से सने हम-सबके नन्हे-नन्हे हाथ, वो मस्ती, वो पटाखों का दौर… धीरे-धीरे दौर बदला. मिट्टी के घरौंदों की जगह लकड़ी और कार्टन से बने घरौंदों ने ले ली. मिट्टी के दीपों की जगह बिजली से चलने वाले रंगीन बल्बों की झालरें घरों की शोभा बढाने लगीं. पर जाने क्यूं उम्मीद है कि मेरे शहर पटना में दीवाली अब भी वही स्वरूप बचा होगा.
मां हर साल दीपावली के दिन फोन कर कहती हैं- दीये जला लेना. पूजा कर देना. मिठाई खा लेना. दीवाली मना लेना, लेकिन कैसे मना लूं ऐसे दीवाली. यह दीवाली भी कोई दीपावली है, जब अपने साथ न हों.
– मंजरी श्रीवास्तव, स्वतंत्र पत्रकार, दिल्ली