जैसे-जैसे नये शोधों का आगाज हो रहा है, डायबिटीज के इलाज की दुरूहता बढ़ती जा रही है. 5 अक्टूबर, 2018 को बर्लिन (जर्मनी) में ईएएसडी (यूरोपियन एसोसिएशन फॉर द स्टडी ऑफ डायबिटीज) एवं एडीए (अमेरिकन डायबिटीज एसोसिएशन) की सम्मिलित गाइडलाइन डायबिटीज के इलाज के लिए जारी हुई. वैसे सभी देशों ने ऐसे ही गाइडलाइन्स बना रखे हैं, मगर वस्तुतः ईएएसडी एवं एडीए की गाइडलाइन ही प्रामाणिक माना जाता है. भारत में तो इसी का डंका बजता है. ऐसी गाइडलाइन्स चिकित्सकों को दिशा-निर्देश देती हैं कि किस तरह डायबिटीज के मरीजों का इलाज किया जाये. एक ओर जहां यह नयी गाइडलाइन आधुनिकतम शोधों के निचोड़ से ओत-प्रोत है, वहीं इसने इलाज को बिजनेस क्लास एवं इकोनॉमी क्लास में बांट दिया है.
वर्ष 2007 में न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित एक शोध ने डायबिटीज के इलाज की दिशा ही बदल दी. उस शोध को डायबिटीज के इलाज में मील का पत्थर या टर्निंग प्वाइंट कहा जाता है. डायबिटीज की अत्यंत उपयोगी दवा ‘रोजीग्लीटाज़ोन’ को डॉ निसेन के मेटा-एनालाइिसस ने दिखाया कि यह हार्ट अटैक का रिस्क बढ़ा देती है. इस शोध ने रातों-रात पूरी दुनिया में अरबों डॉलर के इसके मार्केट को तहस-नहस कर दिया. अमेरिकन एफडीए (फूड एवं ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन) ने तब यह दिशा-निर्देश जारी किया कि डायबिटीज की कोई भी दवा बिना कार्डिओ वास्कुलर सुरक्षा की प्रामाणिकता सिद्ध किये नहीं बेची जायेगी.
यही समय था जब दशकों पुराने मेटफारमिन एवं सल्फोनिल यूरिया ग्रुप (ग्लीबेनक्लामाइड, ग्लीमीपेराआइड) के बाद ग्लिपटीन (सिटाग्लीपटीन, विलडाग्लीपरीन), एसजी, एलटी इन्हिबिटर (एम्पाग्लिफोजीन, कानागलीफोजीन, डापागलीफोजीन) एवं जीएलपी वन एगोनिस्ट (लीराग्लुटाइड) का बाजार में पदार्पण (2007 से 2010) हो रहा था. फिर शुरू हुआ अरबों डॉलर शोधों में लगाकर दवाइयों की हार्ट एवं किडनी की सुरक्षा को लेकर ट्रायल का दौर.
वर्ष 2015 में एम्पाग्लिफोजीन (एसजीएलटी-2 इन्हीबीटर) पर किया गया ऐतिहासिक एमपारेग ट्रायल प्रकाशित हुआ और डायबिटीज की दुनिया यह जानकर हक्की-बक्की रह गयी कि यह दवा न केवल हृदय के लिए सुरक्षित थी, बल्कि कार्डिओ वास्कुलर डेथ को 38 प्रतिशत तक कम करने में सक्षम थी. इसी ग्रुप में कानागलीफोजीन पर हुआ कैनवास ट्रायल (2017) एवं डापागलीफोजीन पर हुआ ट्रायल डिक्लेयर टीमी (2018) ने लगभग ऐसे ही रिजल्ट दिखाये. इन दवाइयों ने किडनी फेल होने की संभावना भी घटती दिखायी. 2018 में मेदांता, दिल्ली के डॉ अमबरीश ग्रुप ने शोध कर इन दवाइयों द्वारा लिवर में चर्बी घटने की क्षमता का खुलासा किया और यह शोध पूरी दुनिया में हेडलाइन बना. इन दवाइयों के प्रभाव से करीब साढ़े तीन किलो तक वजन भी कम जाता है, जो डायबिटीज के लिए एक वरदान की तरह है.
ठीक इसी तरह के मिलते-जुलते परिणाम इन्जेक्शन द्वारा दी जानेवाली दवा जीएलपी (वन) एगोनिस्ट (लीराग्लुटाइड, डुलाग्लुटाइड, सीमाग्लुटाइड) द्वारा भी शोधों द्वारा सामने आया. वजन की कमी कराने एवं सुरक्षात्मक दृष्टि से इनको सर्वोत्तम पाया गया. साइंस जब यह सब दिखा रहा था और जब यह फैक्ट पता है कि डायबिटीज के मरीजों में 60 प्रतिशत मौत का कारण कार्डिओ वास्कुलर डिजीज है, तो फिर यह स्पष्ट है कि मरीजों को वही दवा दी जानी चाहिए, जो शुरुआती दौर से उनके हृदय एवं किडनी की रक्षा करे. यही वह कारण है कि डायबिटीज के इलाज में जीएलपी (वन) एगोनिस्ट (इन्जेक्शन द्वारा) एवं एसजी, एलटी इन्हिबिटर के टेबलेट को इएएसडी एवं एडीए के नवीनतम गाइडलाइन ने मेटफारमिन दवा के बाद कम-से-कम हृदय की बीमारी एवं ज्यादा वजन वाले मरीजों में तुरंत शुरू करने की सलाह दी है.
अब विडंबना यह है कि एसजी, एलटी इन्हिबिटर के टेबलेट की एक गोली 45 से 50 रुपये में आती है और जीएलपी (वन) एगोनिस्ट की सूई का खर्चा प्रतिमाह चार-पांच हजार रुपये आता है. स्पष्ट है कि चाहे जितना भी आकर्षण हो इनका, साधारण जनों के लिए इसे वहन करना संभव नहीं है. नये गाइडलाइन ने साफ दिखाया है कि यदि मामला पैसे का नहीं हो, तो मेटाफारमिन के बाद ग्लीमीपेराइड एवं पायोग्लीटाजोन ही शुरू की जाये. यह है इकोनॉमी क्लास का कांसेप्ट. अजीब बात है कि कम पैसे वाले डायबिटीज के मरीजों में भी 60 प्रतिशत डेथ हृदय की बीमारी से ही होगी, मगर उनके लिए अलग गाइडलाइन ईजाद हुए हैं. ग्लीमीपेराइड साफ-सुथरी, प्रभावकारी एवं सस्ती दवा है, मगर यह वजन कम नहीं करती और शरीर में शूगर घटने का खतरा बना रहा है और इसके साथ कोई कार्डिओ वास्कुलर ट्रायल नहीं हुआ है.
पायोग्लीटाजोन बहुत अच्छी दवा है, मगर वजन बढ़ा सकती है और हृदय के फेल्योर में नहीं दी जा सकती, क्योंकि हड्डी कमजोर होने का खतरा और आंख में मेकुलर एडिमा (सूजन) कर सकती है. बहरहाल, इसके द्वारा मूत्र की थैली में कैंसर होने का जो तमाशा था, वह थम गया है. इन सबके बीच ग्लीपटीन ग्रुप की दवाइयों (सीटाग्लिप्टीन एवं लीनाग्लीपटीन खासकर) पर हुए कार्डिओ वास्कुलर सेफ्टी ट्रायल ने यह दिखाया है कि ये सुरक्षित हैं, मगर हृदय की बीमारी को कम करने की क्षमता नहीं रखतीं. ग्लीपटीन ग्रुप भी 40 से 45 रुपये एक गोली की कीमत होने से महंगी है. यह वजन बढ़ाती नहीं और न ही कम करती है. इस ग्रुप में टेनालीग्लीपटीन केवल 7 से 10 रुपये में आती है और यह दवा आज भारत में आंधी की तरह बिक रही है. इस दवा के साथ कोई कार्डियक सेफ्टी ट्रायल नहीं हुआ है और यह यूरोप एवं अमेरिका में इस्तेमाल नहीं की जाती. मजे की बात है कि यह जापान में ईजाद की गयी दवा है एवं स्वयं जापान में इसका इस्तेमाल नहीं के बराबर होता है.
दवाइयों के इस घमसान के बीच दशकों पुरानी एवं सबसे सस्ती दवा मेटफारमीन नंबर वन के पोजीशन पर बनी हुई है. यह गुणों से भरी है, थोड़ा वजन भी घटाती है, हृदय के लिए सुरक्षित है और आपकी आयु भी बढ़ाती है. यह सरताज दवा है और इसके बिना डायबिटीज की दुनिया वीरान मानी जाती है. अगले दशक में डायबिटीज की दुनिया पूर्णतः बदल जायेगी और शायद इस तरह के गाइडलाइन्स की जरूरत ही नहीं होगी. यह प्रिसिजन मेडिसिन के आने के बाद संभव होगा जब क्लिनिक में दस मिनट में मरीज की जेनेटिक मैपिंग की जायेगी और दवा मरीज के लिए कितनी हितकारी है, यह कंप्यूटर बतायेगा.
डॉ एनके सिंह
(निदेशक-डायबिटीज हार्ट सेंटर धनबाद, चेयरमैन, रिसर्च सोसाइटी फॉर स्टडी ऑफ डायबिटीज, झारखंड)