रजनीश रमण, छात्र
प्रवेश करते ही प्राचीनता का एक ख़ुशनुमा माहौल बन गया. हमलोगों ने नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेषों को देखा. जो कभी भारतीय शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात केंद्र हुआ करता था. इसकी स्थापना 450-470 ईसा पूर्व के बीच में सम्राट कुमारगुप्त प्रथम के ने करवायी थी. तब यहां विदेशों से भी छात्र शिक्षा ग्रहण करने के लिए आते थे. खंडहर की दीवारों की मोटाई को देखकर. हमलोग थोड़े चकित भी हुए. पर सभी खंडहर के प्रति अपने-अपने दृष्टिकोण को एक दूसरे से साझा करते रहे. तस्वीरों के जरिये इन सारी यादों को कैद करने में भी हमलोगों ने कोई कसर बाकी नहीं रहने दी. यहां करीब एक घंटे घूमने के बाद हम आगे के सफर पर निकल गये.
अब हमारी बस ने राजगीर की ओर रुख किया. फ़िर हमलोग गाते-गुनगुनाते, शायरने अंदाज़ को आजमाते हुये राजगीर पहुँचे. लगभग 12 बजे हमलोग बस से उतर गए थे। राजगीर जो कभी मगध साम्राज्य की राजधानी हुआ करती थी. पौराणिक साहित्य के अनुसार राजगीर ब्रह्मा की पवित्र यज्ञ भूमि, संस्कृति और वैभव का केन्द्र तथा जैन धर्म के 20 वें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ स्वामी के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान कल्याणक एवं 24 वे तीर्थंकर महावीर स्वामी के प्रथम देशना स्थली भी रहा है.
यहां पहुंचने के बाद हमलोगों ने रोपवे के सहारे डरावनी औऱ सुहावने एहसासों के साथ एक आसमानी सफ़र तय किया. ये सफ़र हमलोगों ने गृद्धकूट पर्वत पर पहुँचने के लिए किया. जहां पर बुद्ध ने कई महत्वपूर्ण उपदेश दिये थे। इस पर्वत की चोटी पर एक विशाल “शांति स्तूप” था. जिसका निर्माण जापान के बुद्ध संघ ने करवाया था. स्तूप तक पहुंचने के लिए हमलोगों को पैदल चढ़ाई करनी पड़ी. इस मार्ग का नाम था “रज्जू मार्ग”. इस रज्जो मार्ग पर प्राचीन काल की कई रंग बिरंगी वस्तुएं, बुद्ध सहित अन्य देवताओं की तस्वीरें, जड़ी बूटियां आदि बिक रही थी. स्तूप के चारों कोणों पर बुद्ध की चार प्रतिमाएं स्थपित थी.
यहां घूमना तो और चाहता था, लेकिन समय की कमी थी, अब हमारा अगला पावापुरी था. यहां पहुंच कर साढ़े चार बजे हम जल मंदिर की ओर निकले. कैमूर की पहाड़ी पर बसे इस शहर की शोभा देखते ही बनती थी. दिन भर के सफर के बाद साढ़े पांच बजे करीब हम वापस पटना की ओर लौटने के लिए बस में आकर बैठ गए. बस चल पड़ी थी और शुरू हो गया था यह मनोहर यात्रा की स्मृतियों का सफर.