गर्भावस्था में होनेवाली समस्या से नवजात को होता है हृदय रोग
डॉ वीरेश महाजन, डायरेक्टर पिडियाट्रिक कार्डियोलाॅजी, एशियन इंस्टीट्यूट आॅफ मेडिकल साइंस, फरीदाबाद जन्मजात हृदय रोग जन्म के समय हृदय में होनेवाली समस्या है, जो प्रति 1000 बच्चों में से 8-10 बच्चों में देखी जाती है. इनमें से करीब एक-तिहाई समस्या माइल्ड कैटेगरी की होती है, जिनमें ट्रीटमेंट की जरूरत नहीं होती. इसमें हृदय में छेद […]
डॉ वीरेश महाजन, डायरेक्टर पिडियाट्रिक कार्डियोलाॅजी, एशियन इंस्टीट्यूट आॅफ मेडिकल साइंस, फरीदाबाद
जन्मजात हृदय रोग जन्म के समय हृदय में होनेवाली समस्या है, जो प्रति 1000 बच्चों में से 8-10 बच्चों में देखी जाती है. इनमें से करीब एक-तिहाई समस्या माइल्ड कैटेगरी की होती है, जिनमें ट्रीटमेंट की जरूरत नहीं होती. इसमें हृदय में छेद हो सकता है, जो समय के साथ-साथ भर जाते हैं. 25-30 फीसदी माइनर कैटेगरी के डिफेक्ट होते हैं. 15-20 फीसदी मेजर कैटेगरी के डिफेक्ट होते हैं. इन्हें जन्म के दो महीने के अंदर ही ठीक करना पड़ता है. बच्चा जब मां के पेट में 16-18 सप्ताह का होता है, तब उसके हृदय का विकास होता है. यदि हृदय के निर्माण के समय कोई कोई समस्या आये, तो जन्म के बाद उसे कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है. ऐसा मां को गर्भावस्था के दौरान होने वाली समस्या के कारण सकता है. यदि उस समय मां मिर्गी जैसी बीमारी के लिए मेडिसन ले रही हो, मां की उम्र ज्यादा हो, मां कैंसर का ट्रीटमेंट करा रही हो, जिसके कारण बच्चा रेडिएशन के संपर्क में आ गया हो, मां शराब या धम्रपान का सेवन करती रही हो. इसके अलावा कई आनुवंशिक कारण भी हो सकते हैं.
गर्भावस्था में भी हो सकती पहचान
गर्भावस्था के 18-20 सप्ताह के बीच में अल्ट्रासाउंड करने पर इसकी पहचान हो सकती है. बच्चा जब पेट में होता है, तब बच्चे का हार्ट सर्कुलेशन मां पर निर्भर करता है. इसलिए स्पाइन हार्ट डिफेक्ट होने पर भी बच्चा विकसित होता रहता है. 10 फीसदी मामले ऐसे होते हैं, जिसमें बच्चे की स्थिति गंभीर हो जाती है, जिससे गर्भपात हो सकता है. जब हृदय रोग से ग्रसित बच्चे पैदा होते हैं, तो आमतौर पर पहले चार सप्ताह तक कोई लक्षण नजर नहीं आता है. उसके बाद में उनके शरीर का रंग नीला पड़ने लगता है. सांस तेज चलने लगती है, बार-बार निमोनिया हो सकता है, वजन नहीं बढ़ पाता है. जब डाॅक्टर स्टेटसस्कोप से दिल की धड़कन की जांच करते हैं, तो अजीब-सी आवाज सुनाई देती है.
बच्चों की स्थिति के हिसाब से होता है उपचार
माइल्ड डिफेक्ट्स में 25 प्रतिशत मरीजों के हृदय के छेद इतने बड़े नहीं होते कि बच्चे का विकास प्रभावित हो. ऐसे मरीजों की सर्जरी नहीं की जाती, उन्हें दवाई की सपोर्ट दी जाती है. उन छेदों को कैथटेराइजेशन तकनीक से बंद कर दिया जाता है. इसमें कोई निशान नहीं पड़ता, न ही ब्लड की जरूरत होती है. उन्हें 3-6 महीने तक फॉलो-अप पर रखा जाता है. यदि समस्या फिर भी ठीक न हो, तब सर्जरी की जरूरत पड़ सकती है. यदि डिफेक्ट मेजर हो, जिससे बच्चे का ग्रोथ नहीं हो रहा हो, आॅक्सीजन लेवल मेंटेन नहीं हो पा रहा हो, बार-बार छाती में संक्रमण हो रहा हो, तो आॅपरेशन की जरूरत पड़ती है. 95-97 फीसदी आॅपरेशन सफल रहते हैं. अगर बच्चे के हृदय का एक हिस्सा विकसित न हुआ हो, तो 2-3 सर्जरी होती है. ऐसे बच्चे 90 फीसदी तक नाॅर्मल लाइफ जी सकते हैं.
बातचीत : रजनी अरोड़ा