आदिवासी संस्कृति और खान-पान की पैरवीकार

रचना प्रियदर्शिनीआज आधुनिकीकरण के दौर में जनसंख्या के एक बड़े हिस्से को अपनी कला-संस्कृति से जोड़े रखना एक बड़ी चुनौती बन गयी है. खास तौर से युवाओं को, जो पश्चिमी संस्कृति से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं. वहीं कुछ ऐसे भी लोग हैं, जिन्हें अपनी कला-संस्कृति से बेइंतहा मुहब्बत है और जो उसे अपने-अपने तरीके से […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 19, 2020 11:26 AM

रचना प्रियदर्शिनी
आज आधुनिकीकरण के दौर में जनसंख्या के एक बड़े हिस्से को अपनी कला-संस्कृति से जोड़े रखना एक बड़ी चुनौती बन गयी है. खास तौर से युवाओं को, जो पश्चिमी संस्कृति से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं. वहीं कुछ ऐसे भी लोग हैं, जिन्हें अपनी कला-संस्कृति से बेइंतहा मुहब्बत है और जो उसे अपने-अपने तरीके से प्रोमोट करने का काम कर रहे हैं. ऐसी ही एक शख्सीयत हैं अरुणा उरांव.

झारखंड की राजधानी रांची के कांके डैम वाले रास्ते पर आगे जाने के दौरान सड़क के दायीं ओर आपको एक बोर्ड लगा दिखेगा, जिस पर लिखा है- Ajam Emba (एजम एंबा). एजम एंबा कुरुख भाषा का एक शब्द है, जो उरांव जनजाति की लोकभाषा है. इसका अर्थ है- ‘अति स्वादिष्ट खाना’. हम बात कर रहे हैं वर्ल्ड बैंक की पूर्व कर्मचारी अरुणा उरांव की, जो मूल रूप से रांची के कांके प्रखंड की निवासी हैं. वर्ष 1999 में सेंट जेवियर्स कॉलेज से पेास्ट ग्रेजुएशन करने के बाद अरुणा ने देश के विभिन्न राज्यों में रह कर महिलाओं एवं बच्चों के लिए कार्य किया.

इस दौरान उन्हें लंबे समय तक उन राज्यों के आदिवासी समाज में रहने और वहां की वस्तुस्थिति को जानने और समझने का मौका भी मिला. अरुणा ने महसूस किया कि आदिवासी समाज भी अब पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति से अछूता नहीं है. आदिवासी युवाओं में भी अपने पारंपरिक भोजन के बजाय फास्ट फूड का कल्चर तेजी से बढ़ता जा रहा है. इससे कई तरह की गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं पैदा हो रही हैं. इसी वजह से मैं अपने आदिवासी खान-पान को प्रोमोट करना चाहती थीं.

प्राकृतिक और मौसम के अनुरूप परोसती हैं भोजन : अरुणा की मानें, तो आदिवासी समाज का खान-पान बेहद स्वादिष्ट और स्वास्थवर्द्धक होता है. इसमें विशुद्ध रूप से प्राकृतिक और मौसमी चीजों का ही उपयोग किया जाता है. इसी कारण कोई भी मेन्यू साल भर नहीं मिल पाता. मौसम में जो चीज उपलब्ध होती है, जैसे मड़ुआ, बेंग साग, रूगड़ा, खुखरी, गोंदली (wild rice), मेक मछली, गेतू मछली आदि, हम उसके अनुरूप ही अपना मेन्यू डिसाइड करते हैं. ‘एजम एंबा’ में आपको आदिवासी भोजन की एक विस्तृत रेंज मिलेगी, जैसे- माड़ झोर, राइस टी, धुस्का, घुघनी, डुंबू, मड़ुआ मोमोज, छिलका रेाटी, खपरा रोटी, गोरगोरा रोटी, सुंधी भात, गोंदली हलवा, आदि.

इनके अलावा कई सारी चटनी और भरता भी है. विदेशी मेहमानों में भी है क्रेज : 2016 में झारखंड सरकार की ओर से आदिवासी खान-पान को बढ़ावा देने के लिए एक प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था. अरुणा ने उसमें प्रथम पुरस्कार जीता. उसके बाद उन्होंने गोवा के फूड फेस्टिवल में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवायी. अक्तूबर, 2019 में जापान में आयोजित ‘वुमेन एंड इंडिजेनस फूड’ विषय पर आयोजित एक पैनल डिस्कशन में अरुणा को उसमें भारत का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला.

वहां करीब 130 देशों के लोग आये हुए थे. वहां अरूणा ने वहां भी ‘स्लो फूड’ (फास्ट फूड कल्चर के विरोध में प्राकृतिक खान-पान को बढ़ावा देने के लिए) की पैरवी झारखंड फूड कल्चर का परचम लहराया. उनके रेस्टोरेंट में आनेवाले लोगों में झारखंड के स्थानीय निवासियों के अलावा देश-विदेश के लोग भी शामिल हैं.

‘झारखंड’ और ‘महिलाओं’ पर विशेष फोकस
अरुणा की मानें, तो महिलाएं संस्कृति और परंपरा की बेहतर जानकार होती हैं. आदिवासी महिलाओं को इसमें विशेष दक्षता हासिल है. कच्चे अनाज के उत्पादन में भी उनकी भागीदारी होती हैं. फिर भी उन्हें विशेष पहचान नहीं मिलती. इसी वजह से उन्होंने अपने रेस्टोरेंट में महिला कर्मचारियों को ही प्राथमिकता दी है. फिलहाल उनके साथ कुल सात महिला स्टाफ जुड़ी हैं.” अपने इस रेस्टोरेंट से अरुणा हर माह एक से डेढ लाख कमा लेती हैं.

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