पूजा के दौरान मूर्तियों को देखकर लोगों के मुंह से बरबस निकल जाता है- वाह! पंडालों में एक से बढ़कर एक मूर्ति स्थापित होती. हर मूर्ति दिखने में अलग-अलग होती है पर कहीं न कहीं इनमें कई समानताएं भी होती हैं. जैसे मां का ओज, मां की सुंदरता और मां का अलौकिक रूप. इन सभी के अलावा एक और समानता है, जिसे बताना यहां बहुत जरूरी है. यह समानता है मूर्तिकार परिवार का. सिटी में कुल मूर्तिकारों की संख्या करीब 70 है और इनमें 50 मूर्तिकार एक ही परिवार के हैं. सिटी के लोग इन्हें पाल परिवार के नाम से जानते हैं. रजनीश तिवारी जमशेदपुर की खास रिपोर्ट..
सटी में हैं कुल 70 मूर्तिकार
सिटी में दुर्गा मां की प्रतिमा बनाने वाले करीब 70 मूर्तिकार हैं. आपको जानकर हैरानी हो सकती है कि इनमें से करीब 50 मूर्तिकार एक ही परिवार के हैं. जी हां, सिटी में पाल परिवार के करीब 50 मेंबर्स मूर्ति बनाने का काम कर रहे हैं. ये सभी एक ही परिवार का हिस्सा हैं. डिमना रोड, टीचर्स कॉलोनी मूर्ति लाइन में रहने वाले मूर्तिकार नारायण चंद्र पाल ने बताया कि सिटी में 70 में से करीब 50 मूर्तिकार एक ही खानदान से हैं. ये सिटी के अलग-अलग क्षेत्र में मूर्ति बनाते हैं.
1920 में हुई मूर्ति बनाने की शुरुआत इस परिवार द्वारा मर्ति बनाने की शुरुआत 1920 में हुई थी. नारायण चंद्र पाल बताते हैं कि 1920 में उनके दादा शशिकांत पाल जमशेदपुर में आये थे. यहां मूर्ति बनाने का काम किया. शशिकांत के चार बेटे थे. सबसे बड़े बेटे और नारायण चंद्र पाल के पिता वल्लभ पाल के पांच बेटे हुए- सुदर्शन पाल, रामचंद्र पाल, लखन पाल, नारायण चंद्र पाल और कुबेर पाल. दूसरे नंबर के संतोष पाल के दो बेटे- संदीप पाल और भोला पाल थे. इसके बाद तीसरे नंबर के माधव पाल के चार बेटे (भरत पाल, समीर पाल, गणोश पाल, कार्तिक पाल) थे, जबकि चौथे नंबर के केशव पाल के तीन बेटे (सुनील पाल,सोमनाथ पाल, बबलू पाल) थे. शशिकांत पाल के बाद उनके बेटों ने करीब 1940 में इस प्रोफेशन की बागडोर संभाली. इसके बाद चारों बेटों के साथ-साथ 14 पोतों ने भी इसी प्रोफेशन को अपनाया. नारायण पाल ने बताया कि हमारे कई रिश्तेदार भी हमारी देखी-देखा इस शहर में आ गये और इस प्रोफेशन से जुड़ गये. इस तरह देखते ही देखते मूर्ति बनाने के मामले में पाल परिवार सिटी में फेमस हो गया.
सीजनल बिजनेस है
बिरसा नगर के मूर्तिकार बाबू पाल ने बताया कि मूर्तियां बनाना कला तो है ही साथ ही यह हमारी रोजी-रोटी भी है, लेकिन यह बिजनेस सीजनल है. दुर्गा पूजा, सरस्वती पूजा, गणोश पूजा, काली पूजा, विश्वकर्मा पूजा और दीवाली के दिनों में मूर्तियां बनाने का काम किया जाता है. बाकी दिनों में हमारे पास कोई काम नहीं होता. इन दिनों हमें घर पर खाली बैठना पड़ता है. अब तो मूर्तियों के लिए पहले जितने पैसे भी नहीं मिलते. ऐसे में खाली दिनों में काफी तकलीफ होती है. गवर्नमेंट को मूर्तिकारों के लिए कुछ रोजगार के साधन उपलब्ध कराने चाहिए, ताकि खाली दिनों में भी वे बेकार न बैठें.
पहले था मुनाफा ही मुनाफा
काशीडीह रोड नंबर पांच में मूर्ति बनाने का काम करने वाले और पाल परिवार के मेंबर संदीप पाल ने बताया कि जब हमने इस प्रोफेशन को आज से करीब 35-40 साल पहले अपनाया. तब जमशेदपुर में मूर्तियों का मार्केट काफी अच्छा था. उस जमाने में यहां केवल 19 से 20 पंडाल ही सजाये जाते थे. उन दिनों मूर्ति बनाने का रॉ मैटेरियल काफी सस्ता था. हमारी मूर्तियां जमशेदपुर के अलावा आस-पास के क्षेत्रों में भी जाती थीं. लेकिन, जैसे-जैसे दिन बीतते गये मार्केट टफ होता गया. कंपीटीशन बढ़ता गया. इसके अलावा रॉ मैटेरियल का रेट भी आसमान छूने लगा. आज जमशेदपुर में 230 से भी ज्यादा पंडाल सजते हैं. आज भी इस प्रोफेशन में प्रॉफिट है, लेकिन मेहनत के हिसाब से हमें पैसा नहीं मिलता. जहां पहले के दिनों में एक मूर्ति में 50 से 60 प्रतिशत तक मुनाफा हो जाया करता था. वहीं अब ज्यादा से ज्यादा 15 से 20 प्रतिशत मुनाफा ही मिल पाता है.
रॉ मैटेरियल के लिए जाना पड़ता है कोलकाता
बारीडीह के मूर्तिकार और पाल परिवार का हिस्सा गणोश पाल ने बताया कि हमारे लिए सबसे बड़ी परेशानी तो ये है कि सिटी में मूर्ति बनाने का पूरा सामान नहीं मिलता. सिटी में मूर्तियां का सामान केवल दो ही दुकानों में मिलता है. एक दुकान साकची में है तो दूसरी गोविंदपुर में. यहां पर दुगने रेट में सामान मिलता है. ऐसे में कपड़ा, रंग, आंख आदि के लिए हमें कोलकाता ही जाना पड़ता है. इतना ही नहीं मूर्तियों का बेस बनाने के लिए यूज की जाने वाली चीटा और बलुई मिट्टी तो यहां मिल जाती है लेकिन फिनिशिंग देने के लिए यूज की जाने वाली गंगा मिट्टी के लिए भी हमें कोलकाता का ही मुंह देखना पड़ता है. अगर मूर्ति बनाने के दौरान अगर छिटपुट सामान की अचानक से जरूरत होती है तभी हम यहां से सामान लेते हैं. ये हाल सिटी के सभी मूर्तिकारों का है.
अप्रैल से शुरू हो जाती है मेहनत
सुंदर मूर्ति को देखकर लोगों के मुंह से अपने आप वाह निकल जाता है. इस वाहवाही के लिए मूर्तिकारों को कई दिनों तक कड़ी मेहनत करनी पड़ती है. दुर्गा पूजा को लेकर अप्रैल से ही मूर्ति बनाने का काम शुरू कर दिया जाता है. मतलब, पूजा के करीब छह से सात महीना पहले. मूर्तियों को बनाने के लिए कोलकाता से भी कारीगर आते हैं. कारीगर प्रतिदिन करीब 1000-1500 रुपये मेहनताना लेता है, जबकि कलाकारों को हेल्प करने के लिए हेल्पर्स को भी करीब 400-500 रुपये दिहाड़ी दी जाती है. ये कारीगर दिन-रात एक कर मेहनत करते हैं तब जाकर मूर्तियां तैयार हो पाती हैं, इनमें सुंदरता आ पाती है. नारायण चंद्र पाल ने बताया कि हमारे पास सीजन में एक बार में कई सारी मूर्तियों के ऑर्डर्स आते हैं. फरवरी और मार्च से ही मूर्तियों का ऑर्डर आना शुरू हो जाता है. पूजा के पहले-पहले सभी मूर्तियां बुक हो चुकी होती हैं. उन्होंने बताया कि अगर एक मूर्ति (करीब 8 फिट ऊंची) को एक करीगर बनाये तो वो 24 घंटे काम करने पर इसको पूरा करने में कम से कम एक सप्ताह लेगा और इसके लिए उसको कम से कम दो हेल्पर्स की जरूरत होगी.