चेन स्मोकिंग करनेवाले जल्दी होते हैं शिकार
डॉ डी बराट एचओडी, मेडिसिन आइजीआइएमएस पटना : यह समस्या फेफड़ों में रुकावट के कारण होती है. इसे होने में लंबा समय लगता है. यह कई कारणों से हो सकता है. वैसे लोग जो अमूमन 20 सिगरेट रोज पीते हैं, उनकी श्वास नली में इसकी परत जम जाती है और रुकावट उत्पन्न होती है. इससे […]
डॉ डी बराट
एचओडी, मेडिसिन आइजीआइएमएस
पटना : यह समस्या फेफड़ों में रुकावट के कारण होती है. इसे होने में लंबा समय लगता है. यह कई कारणों से हो सकता है. वैसे लोग जो अमूमन 20 सिगरेट रोज पीते हैं, उनकी श्वास नली में इसकी परत जम जाती है और रुकावट उत्पन्न होती है. इससे लोग सांस तो लेते हैं, लेकिन छोड़ते समय परेशानी होती है. हवा ठीक से निकल नहीं पाने से फेफड़े का साइज बढ़ जाता है.
अंदर में हवा मौजूद रहने से बाहर से हवा नहीं जा पाती है. इससे शरीर में ऑक्सीजन की कमी होती है.
इसके अलावा शहरों में तेजी से बढ़ रहे प्रदूषण के कारण भी यह समस्या हो रही है. गांव में लकड़ी का चूल्हा इस्तेमाल होने के कारण भी इसके रोगी अधिक मिलते हैं. बार-बार खांसी होना और बलगम निकलना इसके प्रमुख लक्षण हैं. इसमें मरीज को शुरुआती साल में दो या तीन महीने लगतार कफ निकलता है. दवा लेने से यह ठीक होता है किंतु कुछ समय बाद फिर हो जाता है.
इन्फेक्शन से बलगम पीला होता है. कभी-कभी खून भी आता है. अधिक दिनों तक रहने पर सांस फूलने की शिकायत होती है. हार्ट का साइज बढ़ सकता है. चेहरा भी फूल जाता है और ब्लू हो जाता है. फेफड़े के फूलने से मरीज की मृत्यु हो सकती है. इस अवस्था को एम्फीसेमा कहते हैं. इसका इलाज श्वास नली को फैला कर किया जाता है. ब्रॉन्कोडायलेटर दवा इसमें प्रभावी है.
बातचीत : अजय कुमार
उपचार है संभव
डॉ धीरेंद्र सिंघानिया
सीनियर फिजिशियन और प्लमोनोलॉजिस्ट, पुष्पांजलि क्रॉसले अस्पताल, दिल्ली
यदि उचित समय पर इलाज करा लिया जाये, तो काफी हद तक इस बीमारी को कंट्रोल किया जा सकता है.प्रारंभिक स्तर पर उपचार : प्रारंभिक स्तर पर सीओपीडी की पुष्टि होते ही धूम्रपान एकदम छोड़ दें. इसके अलावा प्रदूषित वातावरण में जाने से बचें. चिकित्सक को दिखा कर ट्रीटमेंट कराएं. नियमित रूप से दवाइयों का सेवन करें. इसके अलावा सुबह-शाम शुद्ध हवा में सैर करें. प्रारंभिक स्तर पर ट्रीटमेंट शुरू कराने से मरीजों को काफी हद तक आराम मिलता है.
सभी सावधानियां बरतने और समय पर दवाई लेने के बाद सांस की तकलीफ में कमी आती है, खांसी से पूरी तरह छुटकारा मिलने की संभावना बन जाती है, बलगम में भी कमी आती है. काम करते वक्त सांस फूलने की समस्या भी कम हो जाती है.
गंभीर स्तर पर उपचार : गंभीर स्तर पर पहुंचने पर यदि सीओपीडी की पुष्टि होती है, तो ऐसे मरीजों को काफी सावधानी बरतने की जरूरत है. प्रारंभिक स्तर पर बरती जानेवाली सावधानियों के अलावा ऐसे मरीजों को ठंड के मौसम में विशेष सावधानी बरतनी चाहिए. सर्दी से बचने के लिए विशेष इंतजाम करें. यदि किसी व्यक्ति को खांसी हो, तो ऐसे लोगों से सीओपीडी के मरीज दूरी बनाएं. गंभीर अवस्था में छोटी-सी लापरवाही भी सेहत के लिए काफी खतरनाक हो सकती है.अत: अवश्यक बचाव करें.
वजन घटाना भी है जरूरी
चूंकि यह रोग सांस की नलियों के सिकुड़ने के कारण होता है. अत: मरीज यदि मोटापे से ग्रस्त है, तो यह बीमारी अधिक घातक हो सकती है. मोटापे की समस्या होने पर लोगों को ऑब्सट्रक्टिव स्लीप एप्निया सिंड्रोम हो जाता है. इसमें सांस की नलियां अधिक अवरूद्ध हो जाती हैं और शरीर में ऑक्सीजन का प्रवाह कम होता जाता है. इसलिए सीओपीडी की पुष्टि होते ही अपना वजन घटाने का प्रयास करना शुरू कर दें.
बातचीत व आलेख : कुलदीप तोमर
क्या है ब्रॉन्कोडायलेटर
ये ऐसी दवाइयां हैं, जिनसे श्वासनली की मांसपेशियों को आराम मिलता है. आराम मिलने से श्वासनलियां फैल जाती हैं और हवा को फेफड़ों तक पहुंचने में आसानी होती है. कई प्रकार के ब्रॉन्कोडायलेटर मौजूद हैं. इनका विभाजन इनके प्रभाव के समय द्वारा किया गया है अर्थात् लंबे समय तक और कम समय तक प्रभावी रहनेवाले डायलेटर. इनके तीन ग्रुप होते हैं- बीटा अगोनिस्ट, एंटीकोलीनेजिर्क्स और थियोफायलिन्स. ये खांसी और बलगम को रोकने का कार्य करती हैं. सीओपीडी के मरीज को इनमें से कम-से-कम एक डायलेटर की जरूरत पड़ती है. कभी-कभी एक मरीज को एक से अधिक ग्रुप की दवाइयां भी दी जाती हैं. ये टेबलेट या इन्हेलर के रूप में होते हैं.