कैंसर, यानी एक ऐसी बीमारी, जिसका नाम सुनते ही डर लगने लगता है. इसका मुख्य कारण यह है कि कैंसर का पता अक्सर ऐसे स्टेज में चलता है, जब यह जानलेवा हो चुका होता है. दुनियाभर के चिकित्सा विज्ञानी शुरुआती चरण में ही इस बीमारी का पता लगाने के लिए नयी तकनीकों के विकास में जुटे हैं. कैंसर के कुछ प्रकार की रोकथाम के लिए टीके भी तैयार किये जा रहे हैं. आज के नॉलेज में हम कुछ ऐसी तकनीकों के बारे में बता रहे हैं, जिनकी पूरी कामयाबी के बाद उम्मीद है कि कैंसर जानलेवा नहीं रह जायेगा.
नॉलेज डेस्क
दुनियाभर में कैंसर के मरीजों की बढ़ती संख्या के बीच इस बीमारी को समय रहते जानने के संबंध में एक अच्छी खबर आयी है. ल्यूकेमिया रिसर्च फाउंडेशन का कहना है कि ब्लड कैंसर जैसे मरीजों का इलाज मुमकिन हो सकता है, लेकिन इसके लिए जरूरी है कि इस बीमारी को बिलकुल आरंभिक स्टेज पर डिटेक्ट कर लिया जाये. इस शोधकार्य में जुटे चिकित्सा वैज्ञानिकों के हवाले से ‘टेक टाइम्स’ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि यदि कैंसर के मामलों के बारे में समय रहते पता लगा लिया जाये, तो प्रत्येक चार मिनट में एक कैंसर पीड़ित का इलाज किया जा सकता है.
शोधकर्ताओं का कहना है कि कुछ व्यक्तियों में खास मार्कर्स होते हैं, जो उनके ब्लड में ब्लड कैंसर के बढ़ रहे रिस्क को बताते हैं, जैसे- मेलोडीप्लास्टिक सिंड्रोम, ल्यूकेमिया और लिंफोमा. इन इंडिकेटर्स को सोमेटिक म्यूटेशंस कहा जाता है, जो इंसान में जन्म के समय नहीं होते, बल्कि उम्र के साथ-साथ शरीर के भीतर धीरे-धीरे पनपते हैं यानी विकसित होते हैं. शोधकर्ताओं ने उन खास लोगों को तलाशा है, जिनमें डीएनए ब्लड सैंपल्स उत्परिवर्तन के तहत पांच फीसदी तक बढ़े पाये गये हैं.
न्यू इंगलैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन की एक रिपोर्ट के हवाले से ‘टेक टाइम्स’ में मेसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल के सिद्धार्थ जैसवाल ने बताया है कि अनेक उत्परिवर्तनों से कैंसर के इलाज में मदद मिल सकती है. साथ ही उन्होंने यह भी उम्मीद जतायी है कि इस बीमारी के घातक होने से पहले यानी बीमारी के आंरभिक चरण में इसे डिटेक्ट किया जा सकता है. अपने अध्ययन के लिए जैसवाल और उनके साथियों ने सोमेटिक म्यूटेशंस (दैहिक उत्परिवर्तन) की मौजूदगी में इंसान के शरीर में कैंसर के जोखिम पैदा होने की परिस्थितियों को बढ़ाने वाले 160 जीन्स का परीक्षण किया.
विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से जारी एक हालिया रिपोर्ट में भी कहा गया है कि कैंसर को समय रहते जानने के लिए दो प्रमुख घटक हैं. पहला, इसे जल्द डायग्नोज करने के लिए लोगों में जागरूकता फैलाना और दूसरा इसकी स्क्रीनिंग. स्क्रीनिंग का अर्थ स्वस्थ व्यक्ति के एक सामान्य टेस्ट से है, जिससे उस व्यक्ति में इस बीमारी के लक्षणों का पता लगाया जा सकता है, भले ही बाहरी तौर पर उसमें इस बीमारी के लक्षण नहीं दिख रहे हों.
कैंसर के जांच की सामान्य तकनीक
इमेजिंग : इमेजिंग तकनीक के माध्यम से डॉक्टर हमारे शरीर को खोले बिना आंतरिक हिस्सों की विस्तृत तसवीर लेकर देखते हैं कि भीतर कहां, क्या गड़बड़ी है.
एंडोस्कॉपी : एंडोस्कोप एक लंबी और पतली व फ्लेक्सिबल ट्यूब होती है, जिसके सिरे पर एक कैमरा लगा होता है. शरीर में किसी तरह की गड़बड़ी की दशा में डॉक्टर इस उपकरण को शरीर के भीतर प्रविष्ट कराते हुए उसे देख और समझ सकते हैं. कई बार डॉक्टर इसे शरीर गुहा के एनस या गुलेट (गुदा या नरेटी) में प्रविष्ट करा देते हैं.
टिश्यू सैंपल्स : कैंसर के इलाज के लिए एक मात्र सटीक उपाय कोशिका के नमूने लेकर उसे माइक्रोस्कोप से जांच करना होता है, जिस प्रक्रिया को बायोप्सी कहा जाता है. इस प्रक्रिया के तहत अक्सर प्रभावित हिस्से में नीडल घोंप कर वहां से कुछ कोशिकाएं बाहर निकाली जाती हैं. डॉक्टरों को उम्मीद है कि बायोप्सी के विश्लेषण से कैंसर कोशिकाओं में सक्रिय विविध जीन्स के बारे में जाना जा सकेगा और इससे इलाज में सुविधा होगी.
कैंसर स्क्रीनिंग : कैंसर स्क्रीनिंग इस बीमारी को आरंभिक अवस्था में डिटेक्ट करता है. खासकर सर्वाइकल कैंसर के मामलों में शरीर में इस बीमारी के पनपने के बारे में जानकारी देता है. यह टेस्ट ज्यादा महत्वपूर्ण इसलिए भी है क्योंकि इसके माध्यम से किसी स्वस्थ व्यक्ति के भीतर कैंसर के लक्षणों के विकसित होने से जुड़े लक्षणों के बारे में बताता है.
(स्रोत : कैंसर रिसर्च यूके डॉट ओआरजी)
नैनोपार्टिकल्स से गूगल बतायेगा कैंसर के बारे में
कैंसर समेत कुछ अन्य बीमारियों के बारे में गूगल उस बीमारी के घातक अवस्था में पहुंचने से पहले ही हमें सचेत करेगा. मौजूदा विश्लेषणों के आधार पर यह हमें संभावित परिणामों के बारे में भी जानकारी देने में सक्षम होगा. ‘बीबीसी’ के मुताबिक, गूगल एक ऐसी तकनीक पर काम कर रहा है, जो बीमारी की पहचान करने वाले नैनोपार्टिकल्स के साथ मिल कर काम करेंगे. कलाई में बांधी जाने वाली सेंसर बैंड के साथ निगलने वाले पिल के माध्यम से इसे मरीज के रक्तप्रवाह में प्रविष्ट कराया जायेगा. हालांकि, यह अनुसंधान अभी अपने प्राथमिक स्टेज में ही है और इसमें व्यक्तियों की बायोकेमिस्ट्री के आधार पर कुछ बदलाव किया जा सकता है, जो उसके लिए पूर्व चेतावनी सिस्टम की भांति कार्य करेगा. किसी बीमारी को समय रहते जान लेने से उसका निदान मुमकिन है. लेकिन पैन्क्रियाटिक जैसे कई कैंसर की पहचान ही तब हो पाती है, जब वे घातक अवस्था में पहुंच चुके होते हैं और उनका इलाज मुश्किल हो जाता है. इस मामले में दिक्कत यह है कि कैंसर से प्रभावित और स्वस्थ ऊतकों में बहुत कम अंतर होता है. गूगल की कोशिश है कि रक्त की नियमित निगरानी के माध्यम से इसे समय रहते जाना जा सके. गूगल की रिसर्च यूनिट गूगल एक्स में इस प्रोजेक्ट के तहत शोधकार्य जारी है.
ब्रेस्ट कैंसर से बचायेगी वैक्सिन
कैंसर के उपचार के लिए अब तक प्रभावी टीके का इजाद नहीं हो पाया है. लेकिन इस बीच एक अच्छी खबर यह भी आयी है कि ब्रेस्ट कैंसर के उपचार के लिए वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ मेडिसीन द्वारा विकसित की गयी नयी वैक्सिन को मरीजों के लिए सुरक्षित माना जा रहा है. एक चिकित्सकीय शोध में इस बात के संकेत मिले हैं. ‘जर्नल क्लिनिकल कैंसर रिसर्च’ में बताया गया है कि प्राथमिक प्रमाणों के मुताबिक यह टीका मरीजों के प्रतिरक्षा तंत्र के लिए सुरक्षित और कारगर है और कैंसर की गांठ का उपचार कर शरीर में इसके संक्रमण की गति को धीमा करने में सहायक है.
सर्जरी विभाग के प्रोफेसर और वरिष्ठ लेखक विलियम ई गिलैंडर्स के मुताबिक, स्तर कैंसर के 80 फीसदी मामलों में मैमाग्लोबीन नामक प्रोटीन की मौजूदगी का पता चला है, लेकिन यह दूसरे ऊतकों में इतना प्रभावी नहीं है. बताया गया है कि ब्रेस्ट कैंसर के इस नये टीके का कोई दुष्प्रभाव मरीजों में नहीं देखा गया है. गिलैंडर्स ने उम्मीद जतायी है कि अब हम ब्रेस्ट कैंसर के ज्यादा से ज्यादा मरीजों का उपचार कर सकते हैं और वह भी संभावित रूप से दवा के दुष्प्रभाव के बिना. गिलैंडर्स और उनके साथी अध्ययन के नतीजों को देखते हुए बड़े पैमाने पर टीके के परीक्षण की योजना बना रहे हैं और ब्रेस्ट कैंसर के नये मरीजों पर टीके के प्रयोग पर भी विचार कर रहे हैं.