जीवनशैली में अनेक परिवर्तनों के कारण आजकल बांझपन की समस्या काफी बढ़ गयी है. विश्व में लगभग 15-20 फीसदी दंपती इस समस्या से ग्रसित हैं. यह एक बड़ी समस्या है, लेकिन समय पर जांच से इससे बचा जा सकता है.
बांझपन के मामले में बड़ी समस्या यह है कि लोग इसके लिए मेडिकल एडवाइज लेना उचित नहीं समझते हैं और इसके कारण उनके रिश्ते और मानसिक स्वास्थ्य दोनों प्रभावित होते हैं. करीब एक तिहाई मामलों में बांझपन के लिए महिलाओं में रोग जिम्मेवार होते हैं. यह समस्या किसी एक रोग के बजाय कई रोगों के कारण भी हो सकती है. अत: इसके लिए जांच भी कइ करवाने पड़ सकते हैं. यदि दंपती को शादी के एक साल के बाद भी गर्भधारण में किसी भी प्रकार की समस्या आ रही हो, तो तुरंत स्त्री रोग विशेषज्ञ से सलाह लेनी चाहिए.
जांच के लिए कब जाएं
बांझपन से संबंधित जांच कराने से पहले यह जानना अधिक जरूरी है कि प्रेग्नेंसी के लिए उपयुक्त समय क्या है. आमतौर पर देखा जाता है कि अधिकतर जोड़े सबसे उपयुक्त दिनों में डॉक्टर से सलाह लेने के बजाय प्रयास और इंतजार में ही समय बरबाद कर देते हैं. बांझपन के जांच की शुरुआत डॉक्टर एचएसएफ यानी हसबैंड सिमेन फ्लूड की जांच से शुरू करते हैं क्योंकि यह बहुत ही मामूली जांच है, जिसमें मामूली सा खर्च आता है और एक तिहाई जोड़े में इसी में खराबी पायी जाती है. फिर स्त्री की जांच होती है. कुछ प्रमुख जांच इस प्रकार हैं –
कंप्लीट ब्लड काउंट (सीबीसी) : इस जांच से शरीर में रेड ब्लड सेल्स, व्हाइट ब्लड सेल्स और प्लेटलेट्स का पता चलता है. इससे कई प्रकार के इन्फेक्शन, एनिमिया और रक्त से जुड़ी अन्य समस्याओं की पहचान में मददगार है. इस जांच से आइवीएफ में भी सहायता मिलती है.
ब्लड शूगर : रेंडम ब्लड शूगर पहले किया जाता है. इसमें गड़बड़ी पाये जाने पर, खाली पेट और खाने के 2 घंटे बाद टेस्ट करते हैं. यह भी काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि ब्लड शूगर लेवल न सिर्फ प्रेग्नेंसी के चांस को प्रभावित करता है बल्कि बार-बार गर्भपात का कारण भी बनता है.
इएसआर : ये पुराने इन्फेक्शन, टीबी और एनिमिया की जांच में सहायक होता है. टीबी भारत में इन्फर्टिलिटी का बहुत बड़ा कारण है.
हॉर्मोनल टेस्टिंग : बांझपन में हॉर्मोन में गड़बड़ी भी जिम्मेवार होती है. इससे बहुत सारी बीमारियों का पता चलता है. टीएसएच, एफएसएच, एलएच, प्रोलेक्टिन, खास हॉर्मोन है. इससे पीसीओडी यानी पॉलीसिस्टिक ओवेरियन सिंड्रोम नाम की बीमारी का पता चलता है. इस बीमारी में स्त्रियों का वजन अधिक होता है और वे गर्भधारण नहीं कर पाती हैं. थायरॉयड रोग में भी गर्भधारण की समस्या आती है. प्रोलेक्टिन की अधिक मात्र रहने से ये अंडे बनानेवाले हॉर्मोन को कम कर देता है. इससे अंडे नहीं बन पाते. ये सभी हॉर्मोन में गड़बड़ी होने से अंडे नहीं बन पाते हैं. इसी कारण इसके लिए हॉर्मोन की जांच भी जरूरी है.
अल्ट्रासाउंड : इससे गर्भाशय में गड़बड़ी या अंडाशय में गड़बड़ी का पता चलता है. इसके अलावा इससे फोलिक्यूलोमेट्री भी की जाती है जो मासिक के 9वें दिन से शुरू की जाती है और एक-एक दिन छोड़ कर होती है. तब तक अंडे फटते हैं. यदि यह नहीं फटता है, तो उस स्त्री में अनओव्यूलेशन है. यानी अंडे नहीं बनते हैं.
एचएसजी : जो मासिक के 7वें से 10वें दिन के बीच किया जाता है. इससे गर्भाशय और उसके रास्ते के सही होने का पता चलता है.
यदि टी बी की आशंका हो, तो टीबी पीसीआर नाम की जांच मासिक के रक्त से करनी चाहिए.
एएमएच (एंटी मुलेरियन हॉर्मोन) : यह हॉर्मोन ओवेरियन फॉलिकिल से निकलता है. यह उम्र के साथ घटता है. इसकी कम मात्र के होने से भी बांझपन की पुष्टि होती है.
डॉ प्रीति राय
स्त्री रोग विशेषज्ञ इनसाइट केयर क्लिनिक, बूटी मोड़, रांची