भारतीय परंपरा में मॉनसून : उम्मीदों की झमाझम
मीलों लंबी लगनेवाली तपती दोपहरों के बाद जब आसमान में मेघ छाते हैं, तो मॉनसून की दस्तक से मन भीगने लगता है. बारिश की बूंदें जैसे ही धरती पर पड़ती हैं, मिट्टी में घुल कर एक सोंधी-सी खुशबू में तब्दील हो जाती हैं. पेड़-पौधे खिल उठते हैं, नदियों, ताल-तलक्ष्यों, पोखरों, कुओं, बाबड़ियों, गंधेरों की मंद […]
मीलों लंबी लगनेवाली तपती दोपहरों के बाद जब आसमान में मेघ छाते हैं, तो मॉनसून की दस्तक से मन भीगने लगता है. बारिश की बूंदें जैसे ही धरती पर पड़ती हैं, मिट्टी में घुल कर एक सोंधी-सी खुशबू में तब्दील हो जाती हैं. पेड़-पौधे खिल उठते हैं, नदियों, ताल-तलक्ष्यों, पोखरों, कुओं, बाबड़ियों, गंधेरों की मंद हो रही सांसें फिर अपनी रौ में आ जाती हैं.
आसमान में सतरंगी इंद्रधनुष मुस्कुराने लगता है. मॉनसून का आना जैसे, जीवन का आना बन जाता है. आषाढ़ के दिन शुरू होते ही उल्लास की झमा-झम लिए जिंदगी में दाखिल होनेवाले मॉनसून की हमारी परंपरा से लेकर साहित्य तक अनगिन तसवीरें हैं. पेश है इन तसवीरों का एक कोलाज.
दक्षिण भारत के समुद्र तटों को भिगोते हुए मॉनसून चल पड़ा है उत्तर भारत के ऊंचे शिखरों को छूने. धरा में जीवन का संगीत घोलने. मरू हो रहे मन में हरियर करने. ‘मेघदूत’ बन यक्ष के मन की विरह को जगाने. ‘आषाढ़ के एक दिन’ में कालिदास संग मल्लिका को आषाढ़ की पहली फुहार में भिगोने.
आसमानी रंग के मैदान में उड़ती रुई के फाहों-सी बादल की पोटलियां अपने भीतर एक सम्मोहित कर देनेवाला सांवलापन छुपाए, चाहे प्रकृति हो या इंसान, हर किसी के लिए कुछ न कुछ लिए हुए आगे बढ़ रही हैं.
जैसे-जैसे बादलों की सफेद ये पोटलियां, सांवले मेघों में बदलेंगी और मॉनसून की बूंदे धरती पर बरसेंगी, सबके हिस्से का कुछ-न-कुछ उसे मिलता जायेगा. भारत में कन्याकुमारी से कश्मीर तक मॉनसून का आना कुछ इस तरह ही होता है, जैसे देश के इस छोर से उस छोर तक बादलधरती पर झमाझम उल्लास बरसाने के सफर पर चल पड़े हों.
बोहेमियन बादल बरसते चलते हैं धरती के कैनवस को गहरे हरे से रंगते हुए. परवीन शाकिर के शेर की मानिंद,‘बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गये, मौसम के हाथ भीग के सफ्फाक हो गये.’
मॉनसून यानी वर्षा ऋतु भारतीय जीवन, परंपरा और साहित्य सबमेंगहरे बसी है. आसमान से बरसनेवाले पानी का यूं तो कोई रंग नहीं होता, लेकिन धरती को छूते ही मॉनसून की बूंदें कोई न कोई रंग पा लेती हैं. प्रकृति हो या मन, सब इन रंगों से खिल उठते हैं.
अभिव्यक्ति के मेघ
मॉनसून किसी के लिए मतवाला बादल बन कर आता है, तो किसी के यहां मेघदूत. इसके लिए बरखा, यायावर, अकरुण, असंवेदी जैसे अनगिन संबोधन मिलेंगे. साहित्य में मॉनसून की सबसे प्रचलित और प्रभावी उपस्थिति तुलसीदास रचित महाकाव्य ‘रामचरित मानस’ में मिलती है. वर्षा ऋतु से प्रभावित राम, लक्ष्मण से कहते हैं-‘बरषा काल मेघ नभ छाए. गरजत लागत परम सुहाए.’(वर्षाकाल में आकाश में छाये हुए बादल गरजते हुए बहुत ही सुहावने लगते हैं.)
महाकवि कालिदास के ‘मेघदूत’ में जेठ के ठीक बाद आषाढ़ के पहले मेघ का वर्णन आज भी प्रासंगिक है-‘आषाढ़ मास के पहले दिन/पहाड़ की चोटी पर झुके हुए मेघ को उसने देखा तो/ ऐसा जान पड़ा जैसे ढूसा मारने में मगन कोई हाथी हो..’ यही मेघ मोहन राकेश के ‘आषाढ़ के एक दिन’ में मल्लिका के पास चले आते हैं और वह कहती है-‘आषाढ़ का पहला दिन और ऐसी वर्षा, मां !..ऐसी धारासार वर्षा ! दूर-दूर तक की उपत्यकाएं भीग गयी..और मैं भी तो ! देखो न मां, कैसी भीग गयी हूं!’ साहित्य में कहीं विस्तार से तो, कहीं कहानी के किसी हिस्से में बारिश का होना बना रहता है. निर्मल वर्मा के ‘अंतिम अरण्य’ उपन्यास में एक जगह हिचकी बारिश मिलती है और मन में ठहर जाती है-‘हम बरामदे में बैठे हुए शाम के कुहासे में बारिश का गिरना देखते रहते थे.
बारिश की झड़ी अब अंधेरे में नहीं दिखाई दे रही थी, सिर्फ उसके गिरने की आवाज सुनाई दे रही थी. ‘अब पानी के लिए जुलूस नहीं निकालना पड़ेगा!’ मुरलीधर ने हंसते हुए कहा ‘अब आप आराम से सो सकते हैं.’
‘देखो ऐसा कब तक रहता है.’‘आप घबराइये नहीं.. एक बार झड़ी शुरू हो जाये, तो जल्दी रुकती नहीं.. यहां हम लोग इसे हिचकी बारिश कहते हैं..हिचकियों में चलती है- दो दिन बंद , फिर शुरू, बंद, फिर शुरू..’
वर्षा ऋतु साहित्य की हर विधा में मिलती है लेकिन इसे कविता में बार-बार देखा जा सकता है.‘रामचरित मानस’,‘ऋतुसंहार’ और ‘मेघदूत’ से आगे बढ़ें, तो मलिक मोहम्मद जायसी के ‘षट्-ऋतु-वर्णन’ में भी आषाढ़ का वर्णन मिलता है- ‘चढ़ा आषाढ़ गगन घन गाजा, साजा बिरह दुंद दल बाजा.’ वर्षा ऋतु का प्रभाव आधुनिक कविता में और विस्तृत होता जाता है. इन कविताओं में बारिश की बूंदें, जिंदगी से घुल-मिल जाती हैं. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता ‘मेरी सांसों पर मेघ उतरने लगे हैं’ में मेघ महज शब्द नहीं, अनुभूति हैं.
जीवन का संगीत है बरखा
वर्षा ऋतु अपने साथ जीवन का संगीत ले कर आती है. यह संगीत एक बार फिर सुनायी देने लगा है. बेशक इसकी गति अभी मद्धिम है लेकिन झमाझम बारिश का भरोसा ओढ़ आषाढ़ के दिन आ गये हैं..
निर्मल वर्मा के ‘अंतिम अरण्य’ उपन्यास में एक जगह हिचकी बारिश मिलती है और मन में ठहर जाती है-‘हम बरामदे में बैठे हुए शाम के कुहासे में बारिश का गिरना देखते रहते थे. बारिश की झड़ी अब अंधेरे में नहीं दिखाई दे रही थी, सिर्फ उसके गिरने की आवाज सुनाई दे रही थी.
‘अब पानी के लिए जुलूस नहीं निकालना पड़ेगा!’ मुरलीधर ने हंसते हुए कहा ‘अब आप आराम से सो सकते हैं.’ ‘देखो ऐसा कब तक रहता है.’‘आप घबराइये नहीं.. एक बार झड़ी शुरू हो जाये, तो जल्दी रुकती नहीं.. यहां हम लोग इसे हिचकी बारिश कहते हैं..हिचकियों में चलती है- दो दिन बंद , फिर शुरू, बंद, फिर शुरू..’
वर्षा ऋतु साहित्य की हर विधा में मिलती है लेकिन इसे कविता में बार-बार देखा जा सकता है.‘रामचरित मानस’,‘ऋतुसंहार’ और ‘मेघदूत’ से आगे बढ़ें, तो मलिक मोहम्मद जायसी के ‘षट्-ऋतु-वर्णन’ में भी आषाढ़ का वर्णन मिलता है- ‘चढ़ा आषाढ़ गगन घन गाजा, साजा बिरह दुंद दल बाजा.’ वर्षा ऋतु का प्रभाव आधुनिक कविता में और विस्तृत होता जाता है. इन कविताओं में बारिश की बूंदें, जिंदगी से घुल-मिल जाती हैं. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता ‘मेरी सांसों पर मेघ उतरने लगे हैं’ में मेघ महज शब्द नहीं, अनुभूति हैं.
वर्षा ऋतु के आते ही धरती मुस्कुरा उठती है और आसमान भी. भवानी प्रसाद मिश्र की कविता की एक पंक्ति-‘ये वर्षा के अनोखे दृश्य जिसको प्राण से प्यारे/ जो चातक की तरह ताकता है बादल घने कजरारे’ में इसे देखा जा सकता है, तो केदारनाथ सिंह के यहां यह,‘पत्तियों से गिरती है, सिप् सिप् सिप् सिप्..’ के रूप में मिलती है. कवि नागाजरुन की कविता में आषाढ़ की बारिश ‘मौसम का पहला वरदान..’ है, तो सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के यहां,‘अलि घिर आए घन पावस के..’
उम्मीदों की झमाझम
हमारे यहां मॉनसून आषाढ़, सावन, भादों के महीनों में एकसार हो जीवन का संगीत रचता है. एक बड़ी आबादी के लिए मॉनसून का आना, महज पानी का बरस जाना भर नहीं है. यह जीवन की फुहार है.
धरती का उपजाऊपन है, बीज का अंकुरण है. बच्चों की कागज की नाव के लिए बारिश का पानी ओरिया से बह कर एक राह बनाता है और उसमें उमंगों की नाव डूबती-उतराती चल पड़ती है. कब बूंदों की ङिामिर-ङिामिर जरा थमे और बीरबहूटी (रेड वेलवेट माइट) निकलें, उन्हें देखने के लिए बच्चों के मन मचल उठते हैं. बरखा से रीते आसमान में इंद्रधनुष के निकलते ही एक सतरंगी खुशी फैलती जाती है. बारिश में भीगते मोर का नाच हो या मेढक की टर्र टर्र सब मन को सुहाता है.
मॉनसून की बारिश बताती है कि इस साल कितना अनाज उपजेगा, कितने चूल्हों में अदहन चढ़ेगा, कितने घरों में सुख के कदम पड़ेंगे. बेटी का ब्याह, छोटे की पढ़ाई, पुराने कर्ज की देनदारी, ट्रैक्टर की किस्त, मां के गिरवी रखे कंगनों की वापसी जैसे अनगिनत छोटे-बड़े काम पूरे होंगे या नहीं, ये मॉनसून के कद से तय होता है. अच्छा मॉनसून, अच्छा कल लेकर आता है.
छप्पर से टपक रहे पानी के नीचे खाली बर्तन रखते हुए किसान का मन उम्मीद से भर जाता है कि धान का रोपा लगाने के लिए इस दफे पानी कम नहीं पड़ेगा. नहरों, नदियों, तालाबों सहित धरती के भीतर में इतना पानी समा जायेगा कि गेहूं और चने की सिंचाई भी जी भर हो सकेगी. मॉनसून और उपज का रिश्ता अटूट जो है.
लोकगीतों की ऋतु
हमारी लोकगीतों की परंपरा भी मॉनसून से तरनजर आती है. कजरी, आल्हा, झूला खासतौर पर वर्षा ऋतु में गाये जाते हैं. बिहार के मिथिलांचल के लोक गीत, ‘हाली-हाली बरसू हे इनर देवता.
पानी बिना पड़इअ अकाल हो राम..’ में बारिश के देवता इंद्र से याचना है, तो अवधी कजरी में ‘कहंवा से आवै रामा कारी हो बदरिया/ कहंवा से आवै अंधियरिया ना/पूरबै से आवै रामा कारी हो बदरिया/ पछिमैं से आवै अंधियरिया ना..’ बादल के आने का वर्णन.