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मानसरोवर-कैलास यात्रा

– हरिवंश – इसी मानसरोवर-कैलास परिक्रमा में जाना हुआ. अत्यंत कठिन यात्रा. चिन्मय मिशन रांची के स्वामी माधवानंदजी की देखरेख में. इस यात्रा क्रम में कुछेक समूह ही परिक्रमा कर पाये. जिनमें हम सब भी रहे. फिर 26 जून से (नेपाल होकर जानेवाली) यह बंद है. उल्लेखनीय है कि 1981 में कैलास-मानसरोवर की यात्रा पुन: […]

– हरिवंश –

इसी मानसरोवर-कैलास परिक्रमा में जाना हुआ. अत्यंत कठिन यात्रा. चिन्मय मिशन रांची के स्वामी माधवानंदजी की देखरेख में. इस यात्रा क्रम में कुछेक समूह ही परिक्रमा कर पाये. जिनमें हम सब भी रहे.
फिर 26 जून से (नेपाल होकर जानेवाली) यह बंद है. उल्लेखनीय है कि 1981 में कैलास-मानसरोवर की यात्रा पुन: शुरू हुई. 1961 में संभवतया यह यात्रा हुई थी. 1962 के चीन आक्रमण के बाद यह बंद हुई. दो स्रोतों से अब यह यात्रा होती है. भारत सरकार के विदेश मंत्रालय की ओर से दो बैच जाते हैं. आमतौर से जून से सितंबर तक यात्रा चलती है.
हिमालय का चुंबकीय आकर्षण रहा है, पर सांसारिक चक्र में फुरसत-मुक्ति कहां? सो, जाना, देखना और निरखना नहीं हुआ था. लेकिन हिमालय से जुड़े प्रसंग
खोज-खोज कर पढ़ता रहा. खासतौर से आध्यात्मिक अंश. 1887 में पहली बार तिब्बत गये स्वामी अखंडानंदजी (परमहंस श्रीकृष्ण देव के अनन्यतम) का विवरण ‘देवात्मा हिमालय’, तो पढ़ाई के दिनों से साथ है. पॉल ब्रंटन की पुस्तक ‘ए हरमिट इन द हिमालयाज’ में जब से स्वामी प्रणवानंद के बारे में पढ़ा, उनकी पुस्तक ‘कैलास-मानसरोवर’ ढुंढ़वाया. अनोखा प्रामाणिक ग्रंथ. 68 वर्ष पूर्व 1943 उन्होंने यह पुस्तक लिखी. पहली बार वह 1928 में कैलास-मानस (मानसरोवर) गये.
वह शब्दातीत कैलास की पंद्रह और मानसरोवर की सत्रह परिक्रमा कर चुके थे. वह तब बार-बार गये, जब इस यात्रा में पग-पग पर मौत थी. उस इलाके को उन्होंने वैज्ञानिक दृष्टि से समझा. दुनिया की प्रामाणिक संस्थाओं ने उनकी खोज को मान्यता दी. उद्धृत किया. वह पहले भारतीय थे (दूसरे राहुल सांकृत्यायन), जिन्हें वहां के सबसे पूज्य बौद्ध मठ में एक वर्ष रहने का निमंत्रण मिला था.
स्वामीजी 1936-1937 में लगातार एक वर्ष कैलास-मानसरोवर में रहे. वहां के प्राकृतिक परिवर्तनों को, कैलास को वैज्ञानिक पद्धति से निरखा-परखा. तिब्बत पर अनेक दूसरे ग्रंथ देखे. अत्यंत चर्चित ‘द वे ऑफ द ह्वाइट क्लाउड्स’ (लामा अंगरिका गोविंदा) का 40वां सालाना संस्करण पढ़ा. हाल में एक अमेरिकी स्वामी की आत्मकथा ‘द जर्नी होम’ पढ़ी. यह सूची लंबी है. हिंदी में राहुलजी और मेरे प्रिय कृष्णनाथजी के संस्मरणों-यात्रा वृत्तांतों को पढ़े बिना, हिमालय की झलक कहां मिल पाती?
इतना कुछ देखने-पढ़ने के बाद भी कृष्णनाथजी के शब्दों में कहूंगा ‘हिमालय को कौन पूरा-पूरा जान या जना सकता है’. हिमालय को हिमालय ही जानता है या शायद वह भी नहीं जानता ?
इस हिमालय में ‘फैटल अट्रैक्शन’ (जानलेवा आकर्षण) है. तभी तो हिमालय के हंगेरियन योगी अलेक्जेंडर चोमा दे कोरोश (1784-1842) के वृत्तांत पढ़ने को मिले. इसी तरह की तिब्बत पर खूब बिकनेवाली किताबों में सोग्याल रिनपोछे की (संपादित पैट्रिक गैफने व एंड हार्वे) पुस्तक है, ‘द तिब्बतियन बुक ऑफ लिविंग एंड डाइंग’. स्विटजरलैंड के दो पर्वतारोही हाइम और गंसेर 1936 में कैलास-मानसरोवर गये. उनके अनुभव ‘सेंट्रल हिमालय’ पुस्तक में हैं.
तब से लेकर अब तक तक न जाने कितने मशहूर विदेशियों ने हिमालय, तिब्बत वगैरह पर अपने अनुभव और यात्रा वृत्तांत लिखे, जो आज भी दुनिया में सर्वाधिक बिकनेवाली पुस्तकों की सूची में हैं. कैलास-मानसरोवर के यात्रियों में आज भी बड़ी संख्या विदेशी लोगों की है. युवा, औरत-मर्द और अधेड़ सभी आयुवर्ग के.
दुनिया के जाने-माने मशहूर यात्रा अनुभव लिखनेवालों में गिने जाते हैं, कोलिन थाबरान. उनकी ताजा पुस्तक है ‘टू ए माउंटेन इन तिब्बत’. यह कैलास परिक्रमा अनुभव है. इस पुस्तक के संबंध में दुनिया की विश्वविख्यात पत्रिका ‘द इकोनॉमिस्ट’ (2 अप्रैल 2011) में टिप्पणी छपी है.
(आशय है कि यह पर्वत (कैलास), हिंदुओं, बौद्धों और तिब्बत के पुराने धर्मावलंबियों के लिए महत्वपूर्ण तीर्थ है. मान्यता है कि इस पर्वत की परिक्रमा से आध्यात्मिक ऊर्जा मिलती है. हालांकि रास्ता अत्यंत कठिन और शरीर के लिए चुनौतीपूर्ण है. इस प्रयास में कुछेक मरते हैं, अन्य अधबीच लौट जाते हैं, पर सबमें गहरी आस्था है कि वे किसी दैवी ऊर्जा-शक्ति के सानिध्य में हैं.)
इस पूरी यात्रा में खुद विदेशी लेखक कोलिन थाबरान अपने गुजरे पिता, मां और बहन की स्मृतियों का पग-पग पर एहसास करते हैं. शायद इसी कारण कई दशकों पहले स्वीडन के विख्यात भूगोलविद् डॉ स्वेन हेडिन ने लिखा ‘कोई परदेशी भी क्यों न हो, कैलास के पास एक गंभीर मनोभाव और श्रद्धा के साथ जाता है. निस्संदेह कैलास संसार भर में विख्यात पर्वत है-एवरेस्ट शिखर और माउंट ब्लाक उसके सामने प्रतियोगिता में ठहर नहीं सकते.’
इसी मानसरोवर-कैलास परिक्रमा में जाना हुआ. अत्यंत कठिन यात्रा. चिन्मय मिशन रांची के स्वामी माधवानंदजी की देखरेख में. इस यात्रा क्रम में कुछेक समूह ही परिक्रमा कर पाये. जिनमें हम सब भी रहे. फिर 26 जून से (नेपाल होकर जानेवाली) यह बंद है. उल्लेखनीय है कि 1981 में कैलास-मानसरोवर की यात्रा पुन: शुरू हुई. 1961 में संभवतया यह यात्रा हुई थी.
1962 के चीन आक्रमण के बाद यह बंद हुई. दो स्रोतों से अब यह यात्रा होती है. भारत सरकार के विदेश मंत्रालय की ओर से दो बैच जाते हैं. आमतौर से जून से सितंबर तक यात्रा चलती है. एक आकलन के अनुसार प्राइवेट ट्रेवल एजेंट (चीन के रास्ते परमिट लेकर) सालाना पांच हजार लोगों को इस यात्रा पर ले जाते हैं.
कैलास-मानसरोवर हिमालय के तीर्थों का तीर्थ कहा जाता है. यह आखिरी तीर्थयात्रा भी मानी जाती है. स्कंद पुराण में कैलास-मानसरोवर के लिए विशेष मानसखंड है. इस यात्रा के पौराणिक मार्ग का संक्षेप में वर्णन है. यह तीन धर्मों का पवित्रतम तीर्थ है.
तिब्बत के सबसे पुराने बोन धर्म का, महायान बौद्ध धर्म का और सनातन हिंदू धर्म का.
पर, यह यात्रा आज भी अत्यंत कठिन है. शारीरिक रूप से, मौसम -जलवायु की दृष्टि से, ऑक्सीजन की कमी, उग्र ठंड, बुनियादी सुविधाओं का तिब्बत यात्रा मार्ग में अभाव जैसे गंभीर संकट और कठिनाइयां हैं. पर हिमालय का सौंदर्य, वह एहसास, मौन प्रकृति और विराट के सानिध्य में होने का बोध, भला आसानी से कैसे मिल सकते हैं?
हम परिक्रमा के बाद लौट रहे थे. रात फिर मानसरोवर के दूसरे छोर पर गुजरनी थी. मानसरोवर का सौंदर्य भी शब्दों से परे हैं.
पर तबीयत खराब थी. हम 10 लोग ‘मड हाउस’ (कच्चा मिट्टी का घर) में सोये थे. सांस लेने में पहली बार गंभीर कठिनाई महसूस की. एक तो ऑक्सीजन की कमी, ऊपर से कमरे में 10 लोग. सफोकेशन (दम घुटना) का एहसास. चुपचाप उठा. धीरे से कमरा खोला, ताकि कोई जगे न. परेशान न हो. बाहर आकर राहत मिली.
बाहर तेज ठंड, षष्ठी का चांद, साफ आसमान में चमकते तारे और सामने विशाल पवित्र जलाशय मानसरोवर. पूरा दृश्य-माहौल देखकर कृष्णनाथ जी की पुस्तक (यात्रा वृत्तांत) ‘स्पीति में बारिश,का एक अंश याद आया. यह भी हिमालय के एक दूसरे सिरे का अनुभव है.
‘सामने, बायें और दाहिने सब दूर हिम शिखरों पर बर्फ है और नीले गढ़े हैं. और इन पर चांदनी फिसल रही है. घाटी में यह चांदनी बरस रही है. सब ओर उजियार है. मैंने सागर तीरे शरद की जुन्हाई में स्नान किया है. लेकिन एक साथ इतनी शीतल और इतनी दाहक चांदनी मैंने नहीं भोगी. मैं चांदनी में नहाता हूं. गंध ढूंढ़ता हूं. आकाश को सुनता हूं’.
पागल हुए हो. यह गंध विषयों में नहीं है, न इंद्रियों में है. न इन दोनों के बीच है! न इनके अलावा कहीं और है. तो फिर यह गंध कहां है?
यह गंध तो हिमगंध है. हिमगिरि और हिमगंधों की गंध है. इस गंध का कोई विग्रह नहीं है. कोई मूरत, कोई शरीर नहीं है. गंध तो अशरीरी है. उसका शरीर कहां? भला मानसरोवर की इस गंध के बारे में बताने की मेरी क्षमता कहां है.
दिनांक : 26.06.2011

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