मॉरिशस यात्रा : सागर पार भोजपुरी, हिंदी और बिहार की बातें

– हरिवंश (राष्ट्रपति के साथ मॉरिशस यात्रा से) – अपने विशेष विमान (एयर इंडिया ए1-1, आगरा) में राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटील ने (दिल्ली से मॉरिशस उड़ान) पत्रकारों को बताया कि मेरी यात्रा का मकसद मॉरिशस और भारत के बीच खास रिश्ते को और मजबूत करना है. भारत की राष्ट्रपति चार दिनों की विशेष यात्रा […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 6, 2015 10:31 AM
– हरिवंश (राष्ट्रपति के साथ मॉरिशस यात्रा से) –

अपने विशेष विमान (एयर इंडिया ए1-1, आगरा) में राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटील ने (दिल्ली से मॉरिशस उड़ान) पत्रकारों को बताया कि मेरी यात्रा का मकसद मॉरिशस और भारत के बीच खास रिश्ते को और मजबूत करना है. भारत की राष्ट्रपति चार दिनों की विशेष यात्रा पर 24 अप्रैल शाम (मॉरिशस समय) यहां पहुंचीं. 24 अप्रैल से 28 अप्रैल तक की यात्रा. पोर्ट लुई स्थित सर शिवसागर रामगुलाम अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उनका (भारतीय राष्ट्रपति व उनके साथ आये प्रतिनिधिमंडल का) खास स्वागत देख कर दोनों देशों के बीच आत्मीय संबंध की पहली झलक मिली.
राष्ट्रपति ने अपने विमान में सही ही कहा कि दोनों देशों को महज एक समुद्र ही नहीं जोड़ता, दोनों देशों के तटों पर एक ही विशाल सागर (हिंद महासागर) की लहरें ही नहीं पखारतीं, बल्कि भारत मूल से जुड़े लोगों का बड़ा तबका भी यहां हैं.
भारतीय राष्ट्रपति, मॉरिशस के राष्ट्राध्यक्ष, पक्ष-विपक्ष, उच्चतम न्यायालय के शिखर पदों पर बैठे लोगों से ही नहीं मिलेंगी, बल्कि अनेक सांस्कृतिक आयोजनों में भी शरीक होंगी. भारतीय मूल के लोगों से मिलेंगी.
दोनों देशों के व्यवसाय-उद्योग जगत के शिखर पर बैठे लोगों से भी बातचीत करेंगी. वह उन ऐतिहासिक जगहों पर भी जायेंगी, जहां की स्मृतियां-अतीत, भारत के मानस-इतिहास में सजीव दर्ज हैं. आज भी.
दिल्ली से लगभग 6000 किमी दूर पोर्ट लुई पर उतरते ही भारत के प्रति विशेष भाव झलका. एयरपोर्ट से लगभग 70 किमी उत्तर, समुद्र के किनारे या गोद में बने होटल मार्तिम पहुंचते ही इस भाव का एक और चेहरा मिला. होटल के लोग गर्मजोशी से मिले. मुझे कमरे तक छोड़ने आये प्रीत विराज ने कहा, हम घर में भोजपुरी बोलते हैं. फ्रेंच, किरोल, अंगरेजी, हिंदी विराज जानते हैं, पर भोजपुरी का जलवा है.
वह कहते हैं, मेरा मूल बिहार का है. मैं कभी गया नहीं. 150-180 वर्ष पूर्व पूर्वज आये. तब से घर में आज भी वही रीति-रिवाज, परंपराएं हैं. पर्व-त्योहार हैं. मंदिर हैं. बोली है. कमरे में मेरा सामान सहेजते हैं, प्रीत विराज, फिर कहते हैं, मेरा सरनेम है, राम झूरिया. अंगरेजी में लिख कर स्पष्ट करते हैं. यहां की एक-एक चीज बारीकी से बताते हैं. फिर मिलेंगे, कह कर जाते हैं.
आज 25 अप्रैल को जब कमरे की बॉलकनी में बैठा विशाल सागर देख रहा हूं, अथाह नीला समुद्र, श्यामवर्ण का अपरिमित आकाश, तब दशकों पहले पढ़ी पंक्तियां याद आ रही हैं. इस पार प्रिये मधु है, तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा? यह सृष्टि का रहस्य है. इस सागर के छोर-छोर या उस पार से आये भारतीय मूल के लोग यहां हैं. उधर भी.
यह तो 200 वर्षों का सिलसिला है. पर सृष्टि में यह जोड़ने का सिलसिला तो लाखों-करोड़ों वर्ष पुराना है. कौन कहां से आया, कहां गया और कहां जायेगा? माइग्रेशन (एक जगह से दूसरी जगह) सृष्टि-संसार की प्रगति का मूल स्रोत ही नहीं रहा है, वह ध्रुव सत्य की तरह है. कौन कहां का? किसकी कौन धरती? कौन मूलवासी और कौन बाहरी? डॉ राममनोहर लोहिया ने जब विश्व सरकार की बात की, तो लोग हंसे. पर धरती को कायम रहना है, तो यह मानव संबंध समझना ही होगा.
एंथ्रोपलोजिस्ट और डीएनए शोध से सृष्टि और मानव उद्गम को समझनेवालों की बात याद आती है. आदिमानव अफ्रीका से निकला, इन्हीं तटों से होते हुए संसार में फैला. अब वे स्मृतियां या चिट्ठी नहीं हैं. पर भारत से मॉरिशस आये लोगों ने अपनी धरोहर-स्मृतियां बचा रखी हैं. वह एक अलग अध्याय है.
पर बिना देखे, यह नहीं जान सकते कि मॉरिशस का सौंदर्य कैसा है? शांत सागर, चौतरफा हरियाली और ऊर्जावान लोग. 1890 के आसपास दुनिया को देखते मार्क ट्विन ने लिखा था, आप आकलन करिए कि पहले मॉरिशस बना होगा, इसके बाद इसकी नकल पर स्वर्ग बना. पर यह स्वर्ग बना कैसे?
अनुमान है कि दस लाख वर्ष पहले भयानक ज्वालामुखी विस्फोट से यह द्वीप बना. उसका क्रेटर क्यूपिप के पास अब भी है. पर ये अब ‘डेड वालकेनो'(मृत) है, ‘एक्टिव’ (जिंदा) नहीं. बहुत ही सख्त चट्टानें. नागफनी का फैलाव. कंटीली-जहरीली झाड़ियां. बिच्छुओं का जाल.
हालांकि भारत और अरब के समुद्री व्यापारी इसे 10वीं सदी से जानते थे. पर पुर्तगाली नाविकों ने 16वीं शताब्दी में इसे तलाशा. पहले यूरोपीय यहां बसे. यह निर्जन द्वीप था. यहां कोई मूल बाशिंदा नहीं है. 1638 में डच लोगों ने इसे ले लिया. अपने राजकुमार के नाम ‘इले डी मारिश’ पर इसका नाम रखा. डचों ने यहां ईख की खेती शुरू की. जावा से लाकर. फ्रांस और ब्रिटेन के यहां से गुजरनेवाले जहाजों से कर लेना शुरू किया. बाद में डच इस्ट इंडीज कंपनी ने इसे ‘अनप्राफिटेबल'(अलाभकर ) कह कर छोड़ दिया.
1810 में ब्रिटेन ने फ्रांस को हरा कर मॉरिशस को ले लिया. पेरिस संधि के तहत, अंगरेजी यहां की राजभाषा जरूर बनी. पर फ्रेंच भाषा, संस्कृति और कानून का गहरा असर हुआ और है. ब्रिटेन ने 12 जून 1833 को ब्रिटिश पार्लियामेंट के कानून के तहत गुलामी को हटा दिया. एक फरवरी 1835 से मॉरिशस में यह लागू हुआ.
तब 1834 में शुरुआत हुई ‘गिरमिटिया’ मजदूरों को अफ्रीकी देशों में लाने की प्रक्रिया. खासतौर से बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और तटीय आंध्र में भारतीय मजदूर लाये जाने लगे. 80 वर्षों तक भारतीय मजदूर यहां लाये जाते रहे. 1834 से 1910 या 1920 तक गांधी के विरोध-उदय तक. उन मजदूरों का जीवन सामयिक इतिहास के सबसे दुखद इतिहासों में से एक है.
बहरहाल मॉरिशस में उतरते ही सुना, वह मॉरिशस जिसे मार्क ट्विन ने स्वर्ग से भी सुंदर कहा, वह बिहारी ब्लड, स्वेट एंड टीयर्स (खून, पसीना और आंसू) से बना. यह मुहावरा मॉरिशस के एक साथी ने सुनाया.
राष्ट्रपति ने मॉरिशस के प्रधानमंत्री से बात करने के बाद कहा भी कि बदलते समय के अनुसार हमने तय किया है कि उच्च शिक्षा, सूचना तकनीक, विज्ञान-टेक्नोलॉजी, टूरिज्म, संस्कृति के क्षेत्रों में कैसे दोनों देशों के बीच संबंध हो. इसके लिए एक व्यावसायिक प्रतिनिधिमंडल भी (बिजनेस डेलीगेट्स) आया है.
पर कल 26 अप्रैल को राष्ट्रपति उस आप्रवासी घाट पर जानेवाली हैं, जहां भारतीयों का पहला दल उतरा था. जहां वे भारतीय ‘कुली दासता’ का पहला कदम रखते थे. ‘दासता’ से ‘निर्णायक’ स्थिति में पहुंचे भारतीयों (खासतौर से हिंदी भाषी लोगों की दास्तां) का इतिहास सचमुच धरोहर है. भावी पीढ़ियों के लिए. उस स्मृति को ताजा करने और भविष्य के रिश्तों को मजबूत करने के लिए ही मॉरिशस पधारी हैं, भारत की राष्ट्रपति.

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