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अपने पराभव से चिंतित पश्चिम

-ब्रिटेन से लौट कर हरिवंश- युगों के बाद ब्रिटेन बाहरी ताकतों की भूमिका नहीं तलाश रहा, बल्कि अपने अंदर झांक रहा है. वह मानता है कि राष्ट्रीय आय के आधे से अधिक हम समाज कल्याण पर खर्च करते हैं, फिर भी यह स्थिति क्यों हुई?क्यों घर टूट गये और समाज नैतिक रूप से अपंग हो […]

-ब्रिटेन से लौट कर हरिवंश-
युगों के बाद ब्रिटेन बाहरी ताकतों की भूमिका नहीं तलाश रहा, बल्कि अपने अंदर झांक रहा है. वह मानता है कि राष्ट्रीय आय के आधे से अधिक हम समाज कल्याण पर खर्च करते हैं, फिर भी यह स्थिति क्यों हुई?क्यों घर टूट गये और समाज नैतिक रूप से अपंग हो गया? प्रधानमंत्री कैमरन तब से लगातार लोगों से कह रहे हैं कि वह वर्षों से सोशल ब्रेकडाउन (सामाजिक टूटन) की बात करते रहे हैं. उन्होंने कहा हमारे समाज में रिस्पांसिबिलिटी (उत्तरदायित्व) की मौत हो चुकी है. लोग जवाबदेही से बचना चाहते हैं. फर्ज से बचना चाहते हैं. काम और ड्यूटी से जी चुराते हैं. लंदन के बारे में मेरे प्रिय मित्र कृष्णनाथ जी ने ‘पृथ्वी परिक्रमा’ पुस्तक में दशक पहले लिखा था-
कर्ज पर जीना यहां का ढंग है. मकान, गाड़ी, धुलाई की मशीन, टेलीविजन वगैरह कर्ज पर मिलते हैं. बैंक को ही बोल देते हैं. वहीं से किस्त कट कर पहुंचती रहती है. जैसे कोई तीन सौ पौंड पाता है, तो डेढ़ सौ पौंड, तो किस्तों में कटा देता है. डेढ़ सौ पौंड में जीता है. ॠणी है, इसलिए दुखी है. लेकिन इसके बिना भी जीना मुश्किल है…
लंदन की अपनी संस्कृति है. ब्रिटिश म्यूजियम और लाइब्रेरी संसार के श्रेष्ठ संग्रहालयों में से हैं. नेशनल थिएटर, नेशनल गैलरी, टेंट गैलरी, अलबर्ट हॉल जैसे अनेक संगीत, कला के केंद्र हैं. इनके ईद-गिर्द भी बहुत हरकत रहती है, जैसे नेशनल थिएटर के सामने कुछ युवक पटरी पर ही लोक नृत्य कर रहे हैं. यह ‘मोर डांसर्स’ कहलाते हैं. लोक नृत्य है. मेलों में बहुत होते रहे हैं, लंदन में आज भी होते हैं.
चुस्त पैंट, ऊनी बंडी, पांव में बड़े-बड़े घुंघरू बांध कर पुरुष नाचते हैं. एक नाच में जैसे जंगल से काट कर लायी हुई लकड़ी है. एक-दूसरे से टकराते हैं, ऊंचा उछलते हैं. टांगों और बांहों को जैसे आकाश तक पहुंचाते हैं और खूब शोर करते हैं. कभी गोलाई में, कभी एक पांव आगे, एक पांव पीछे, नाचते हैं. आते-जाते नर-नारी उन्हें देखते हैं. जब नाच खत्म होता है, तो वे ताली बजाते हैं. फिर दूसरा नाच शुरू करते हैं…
एक बड़ा-सा मंडप जैसा है, खुला. एक अकेला वादक वहां बजा रहा है. अकेला बाजा, अकेला बजानेवाला. लोग खा-पी रहे हैं. सुन रहे हैं, नहीं सुन रहे हैं. अपना हैट बगल में रख छोड़ा है. उसमें कोई एक, कोई पांच, कोई दस पेंस छोड़ जाते हैं. छोड़े न छोड़े, वह अपने में मगन है. बजाता जाता है…
लंदन बड़ा बाजार है. लंदन एक बड़ा संग्रहालय है. लंदन एक बड़ा पुस्तकालय है. लंदन एक बड़ा चिड़ियाघर है. लंदन एक बड़ा अजायबघर है. इसमें भांति-भांति के बंदे रहते हैं. भांति-भांति की चीजें हैं. यह पहले तो अंगरेजों का है, फिर औरों का भी है. यह सिर्फ कमाई का नहीं, जीने का ढंग है. इस ढंग में जो प्रवासी आते हैं, वह कुछ तो पढ़ते हैं और कुछ सिर्फ कमाने के चक्कर में रहते हैं. सभी जैसे दौड़ते रहते हैं. यहां गति तेज है. अगर तेज गति न हो, तो सड़क पार नहीं कर सकते. लेकिन फिर तो आदत पड़ जाती है. दो जने दौड़ रहे हैं. पूछिए कि क्यों दौड़ रहे हैं, तो पता नहीं. बस, दौड़ रहे हैं…
अंगरेज जैसे एक ‘ट्राइब’ हैं. स्त्री-पुरुष के संबंध, ‘मोर’ नृत्य, देह के माध्यम से सत्य की खोज, बाहरी के लिए दूरी वगैरह सब ‘ट्राइब’ जैसी है. अपना-अपना एकांत है…
इस बार लंदन-ब्रिटेन की यात्रा के बाद लगा इतिहास चक्र पश्चिम के खिलाफ है. हमारे एक मित्र गहराई से दुनिया में होनेवाले फेर बदल पर नजर रखते हैं. बृजेश बियाणी जी. उन्होंने एक नोट भेजा है. विंड्स ऑफ चेंज (बदलाव की हवा). उसका सारांश दुनिया की स्थिति समझने में मददगार है.
‘हाल में अमेरिकी ॠण के मामले में अमेरिका का डाउनग्रेड होना, बेरोजगारी का सीमा पार कर जाना या अमेरिका-पश्चिम या जापान की नाजुक आर्थिक स्थिति पर बिलकुल आश्चर्य नहीं होना चाहिए. यह होना लाजिमी है.
जब दुनिया के अन्य हिस्सों में एक बड़े आर्थिक संसाधन (मानव श्रम) की कीमत लगातार आसमान छूती जाये, खतरनाक ढंग से बढ़े. खासतौर से उस समय में, जब दुनिया में चीजों और सेवाओं का भोग कुछ खास समय तक सीमित न रह गया हो. यहां मानव श्रम की कीमत का आशय मजदूरी और तनख्वाह से है.
60 के दशक के शुरू में विकसित देशों ने अपनी टेक्नोलॉजी (बड़े पैमाने पर उत्पादन करनेवाली चीजों की) दुनिया से छिपा कर रखी. अत्यंत चौकसी से. टेक्नोलॉजी से प्रगति और बदलाव होता रहा है और श्रम उत्पादकता भी बढ़ती रही है. चीजों की गुणवत्ता में विकास हुआ है. कीमतें गिरती रहीं, इससे उपभोग की आंधी आयी. इससे अधिकाधिक चीजों की और सेवाओं की मांग बढ़ी.
उत्पादन बढ़े और अधिक से अधिक नौकरियों-अवसरों का सृजन हुआ. इस तरह इन देशों की मुद्रा तेजी से ऊपर भागने लगी. 1966 के आसपास एक डॉलर चार रुपये के बराबर था और आज 49 रुपये के आसपास है. इस तेजी के दौर में या गर्मबाजारी के दौर में विकसित देशों में असल वेतन-तनख्वाह या मजदूरी तेजी से ऊपर भागती रही. इस तरह वेतन या मजदूरी विकसित देशों में विकासशील देशों की तुलना में काफी अधिक बढ़ती भी गयी. बड़ा अंतर आया.
जापान पहला देश था, जिसने इस टेक्नोलॉजी बैरियर (अवरोध) को तोड़ा. यूरोप और अमेरिका में विकसित टेक्नोलॉजी की नकल करने में जापानी सिद्धहस्त साबित हुए. तुलनात्मक रूप से कम मजदूरी-वेतन से उत्पादित चीजों से उन्होंने विकसित देशों के बाजार को भर दिया. कम दाम की और मध्यम दाम की चीजों को अत्यंत स्पर्द्धात्मक कीमत पर बाजार में उतार दिया. शुरू के उस दौर में ‘मेड इन जापान’ का लेबल आज ‘मेड इन चाइना’ की तरह था.
फिर आनेवाले दौर में जापान में आरएंडडी (शोध और विकास पर) निवेश करना शुरू किया और मैनुफैक्चिरिंग टेक्नोलॉजी में विश्व लीडर बन गया. इससे विकसित देशों में मैनुफैक्चिरिंग टेक्नोलॉजी को बड़ी चुनौती मिली. इतिहास दोहराता है. जापान की मुद्रा भी ऊपर भागने लगी. वहां भी तनख्वाह-मजदूरी ऊपर भागने लगी. हालात यहां तक पहुंचे कि वेतन-मजदूरी के मामले में कुछ विकसित देशों से भी जापान आगे निकल गया. इसी कतार में, इसी अनुभव के दौर से ताइवान और साउथ कोरिया गुजरे.
ताइवान और साउथ कोरिया दोनों ने जापान के आर्थिक मॉडल की नकल की. वहां भी तुरंत जापान की तरह मजदूरी-तनख्वाह-वेतन बढ़ गये. वहां भी विकसित देशों की तुलना में वेतन समानता बनाये रखने की कोशिश हुई और विकसित देशों में जैसे नौकरियां के अवसर खत्म हुए या घटे थे, वहां भी हुआ.
पश्चिमी आर्थिक विकास के इस मॉडल में प्रवेश करनेवाला नया खिलाड़ी चीन है. चीन 80 के दशक में पश्चिम की इसी राह चला. 1960 के दशक में जिन रास्तों पर जापान चला या चीन ने भी वही राह पकड़ी और दुनिया के बाजारों को कम मूल्यों की चीजों से पाट दिया.
विकसित देशों के बाजारों को भी. चूंकि चीन में काम करनेवालों की तादाद और जनसंख्या बहुत अधिक है, इसलिए वहां मजदूरी और वेतन जापान की तरह तेजी से नहीं बढ़े. आज भी बहुत कम है. इसका उत्पादन लागत दर पर सीधा असर पड़ता है, इसलिए चीन में उत्पादित चीजें सस्ती होती हैं. जहां मजदूरी या वेतन अधिक है, वहां चीजें महंगी होती हैं. इसलिए चीन की चीजों की मांग दुनिया के बाजारों में बढ़ी. इस प्रक्रिया में विकसित देशों की बड़ी और पुरानी मशहूर मैनुफेक्टिरिंग कंपनियां अनइकनामिकल हो गयीं, अनकंपटीटिव हो गयीं.
वे अपने को बचा नहीं सकीं और विवश होकर कम मजदूरी-वेतनवाले देशों में अपनी इकाई खोलनी शुरू की. दक्ष मजदूरों (स्किल्ड लेबर) के बल. चीन इस खेल में सबसे बड़ा लाभ पानेवाला देश था. तरह-तरह के उद्योग और बड़े उपभोक्ता वर्ग का बाजार वहां पहले से था. बड़ी विदेशी कंपनियां जब चीन या अन्य विकसित देशों में फैलनी-बढ़नी शुरू हुईं, तो वे अपने-अपने देशों में नौकरियां घटाने लगीं, क्योंकि वहां अधिक मजदूरी और तनख्वाह देने के कारण वे अनइकनॉमिकल हो गयी थीं. समय गुजरने के साथ मैनुफैक्चरिंग कंपनियां कम मजदूरी देनेवाले देशों में बड़ी संख्या में चली गयीं. आज विकसित देशों के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है या राह या आर्थिक मॉडल नहीं है, जिनसे वे बड़े पैमाने पर मैनुफैक्चरिंग यूनिट के बंद होने से हुए बड़ी संख्या के बेरोजगारों को कोई अवसर या नौकरी दे सकें.
विकसित देशों ने अपनी घरेलू नौकरियां बचाने के लिए या तनख्वाह को बचाने के लिए बाहर से आनेवाले इमीग्रेशन के रास्ते में अवरोध खड़ा किया. हालांकि जिस मुल्क ने भी अपने यहां इमीग्रेशन की इजाजत नहीं दी, वहां एक सीमा तक तनख्वाह बढ़ोतरी पर सीमा भी लगी. पर अब यह बैरियर या अवरोध टूट गया है, क्योंकि बड़ी कंपनियां कम मजदूरी देनेवाले देशों में बड़े पैमाने पर शिफ्ट कर गयीं.
एक ओर चीन मैनुफैक्चरिंग हब बन रहा था, तो दूसरी ओर दुनिया में एक दूसरी क्रांति हो रही थी. टेलीकॉम क्रांति. आज टेलीफोन की लीज लाइनें बहुत सस्ते दर पर उपलब्ध हैं. एक जगह से दूसरी जगह बड़ी संख्या में डाटा, तथ्य आंकड़े वगैरह भेजने के लिए, बहुत तेज गति से, बहुत कम समय में.
इंटरनेट और वेब ने दुनिया को और छोटा कर दिया है. आज हर तरह के काम, सर्विस सेक्टर के काम, लो इंड बैक ऑफिस जॉब, कॉल सेंटर से हाइ इंड के जॉब मसलन आरएंडडी, इंजीनियरिंग, डिजाइनिंग और डेवलपमेंट से एनीमेशन तक के काम सबसे कम मजदूरी या तनख्वाहवाले देशों में आसानी से आउटसोर्स किया जा रहा है या किया जा सकता है.
एक तरफ चीन मैनुफेक्टिरिंग हब बन गया है, तो भारत सर्विस हब के रूप में उभरा है. बड़ी तादाद में अंगरेजी बोलनेवालों के कारण. इस तरह विकसित देशों ने इमीग्रेशन बैरियर खड़ा करके जो हालात अपने पक्ष में करना चाहा, वो आधार ही ध्वस्त हो गया. अब विकसित देशों में नौकरियों का घटना अवश्यंभावी है. चीन और भारत में अधिक जनसंख्या है.
यहां मजदूरी या वेतन विकसित देशों के अनुपात में तेजी से नहीं बढ़ी. हालांकि लगता है कि दुनिया के फलक पर मजदूरी या वेतन का यह अंतर कम होगा. इसका दुनिया पर गहरा असर होगा. विकसित देशों यानी यूरोप-अमेरिका वगैरह की जनसंख्या या आबादी असंतुष्ट परेशान और तकलीफ में होगी. उनकी आमद घटेगी. नौकरियां घटने से टैक्स की वसूली कम होगी. उपभोग पर असर पड़ेगा.
पर सामाजिक सुरक्षा के मद में खर्च और दबाव और बढ़ेगा. दूसरी ओर विकासशील देशों में जहां भोग-उपभोग में कई गुणा वृद्धि होगी, वहां अधिक नौकरियों का सृजन होगा. मजदूरी में बढ़ोतरी होगी. जनसंख्या अधिक होगी, तो उपभोग कई गुणा बढ़ेगा, अधिक लोगों को नौकरी मिलने के कारण, तनख्वाहों में वृद्धि के कारण और अधिक जनसंख्या होने के कारण.
विकासशील देशों को बढ़ती महंगाई और मांगों के प्रति चौकस रहना होगा. इंफ्रास्ट्रक्‍चर को बेहतर बनाना होगा. पर्यावरण को साफ करना होगा. हाई क्वालिटी गवर्नेंस की जरूरत होगी. आनेवाले 20-30 वर्षों में नयी दुनिया बन रही है, जिसमें शायद समता अधिक हो.’
दुनिया में बदलते हालातों का यह सटीक विश्लेषण है. पर ब्रिटेन यात्रा के समय लगा कि पश्चिम अपने इस पराभाव से अत्यंत चिंतित और बेचैन है. वह अपनी खोई जगह को पाने के लिए गंभीर विमर्श में लगा है. बड़े पैमाने पर इस संदर्भ में साहित्य लिखा जा रहा है. इस क्रम में दुनिया के जाने-माने इतिहासकार नील फर्गुसन की किताब ‘सिविलाइजेशन द वेस्ट एंड द रेस्ट’ एक महत्वपूर्ण कृति है. वह ब्रिटेन के सर्वाधिक चर्चित इतिहासकारो में से हैं.
लंदन स्कूल ऑफ इकानॉमिक्स में थे, अब हार्वर्ड में हैं. वह मानते हैं कि पिछले कई सौ वर्षों से पश्चिम ने दुनिया पर राज किया, अपने छह हथियारों या तरकीबों से, जिसमें पहला है कंपीटीशन यानी स्पर्द्धा, दूसरा है विज्ञान, तीसरा है डेमोक्रेसी (लोकतंत्र), चौथी है मेडिसीन यानी एलोपैथी चिकित्सा, पांचवां कंज्यूमरिज्म यानी उपभोक्तावाद तथा छठा वर्क-एथिक्स यानी कार्य संस्कृति. वह मानते हैं कि अगर पश्चिम इन छह चीजों से अपना एकाधिकार खो दे, तो यह पश्चिम के पराभाव की शुरुआत होगी. इसी तरह अमेरिका के दुनिया स्तर पर प्रख्यात पत्रकार थॉमस फ्रीडमैन और माइकल मंडेलबम की पुस्तक आयी है, ‘दैट यूज टू वी यूएस वाट वेंट रांग विद अमेरिका एंड हाउ इट कैन कम बैक.’
पश्चिम का आधिपत्य
गुजरे कुछ सालों की पहचान तो पश्चिम से ही है. अठारहवीं सदी के मध्य में ब्रिटिश उद्यमियों ने भाप और कोयले की अपूर्व ताकत की पहचान दुनिया को करायी और इस नये ऊर्जा-शोध ने संसार को हमेशा के लिए बदल दिया.
कल-कारखानों, रेलवे, समुद्री जहाज, बंदूक, तोप वगैरह की ईजाद ने पश्चिम की ताकत को नयी ऊंचाई तक पहुंचा दिया. बीसवीं सदी में कंप्यूटर और न्यूक्लियर पावर की योजना ने पश्चिम को विश्व की बादशाहत सौंप दी. लेकिन अब बादशाहत का वह ताज खतरे में है. पश्चिम विश्लेषक मानते हैं कि चीन, भारत जैसे देशों के उदय से यह खतरा है.
पर 2010 के आरंभ में विश्व चर्चित पुस्तक आयी इयॉन मोरिश की ‘वाय द वेस्ट रूल्स फॉर नाव.’ इयान स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं. अपनी पुस्तक (लगभग 760 पेज) में इस सवाल पर इयान ने गहराई से विचार किया है कि कितने दिनों तक पश्चिम का यह प्रभुत्व या ताकत या दबदबा बना रहेगा?’
इयान की इस पुस्तक के बाद हार्वर्ड के प्रोफेसर और मशहूर इतिहासकार नील फर्गुसन की किताब आयी ‘सिविलाइजेशन द वेस्ट एंड द ईस्ट’, 2011 में. इसी कड़ी में थॉमस फ्रीडमैन और माइकल मैंडेलबाम की किताब ‘दैट यूज्ड टू वी यूएस वाट वेंट रांग विद अमेरिका एंड हाउ इट कैन कम बैक’ है.
इसमें अमेरिका के फिसलने के कारणों की तलाश है, साथ ही अमेरिका कैसे यह गौरव फिर पाया, इस पर भी चर्चा है. इन तीन प्रख्यात पुस्तकों के अलावा भी अनेक प्रकाशन हुए हैं. अखबार और टीवी पर तो कई वर्षों में यह बहस चल रही है, इस आत्ममंथन की प्रक्रिया से साफ है कि पश्चिम में बेचैनी है. अपनी फिसलन, पतन या कमजोरी के कारण वह तलाश रहा है.
पर पूरब के जो देश, पश्चिम के अधोपतन के कारण बनी चीजों के बल अपने भविष्य का सपना बुन रहे हैं, क्या उनमें अपने टूटते समाज को परखे जाने की बेचैनी है? अनेक लोगों में यह चिंता है कि पश्चिमी विश्वास या मूल्यों की राह पर वे हजारों-हजारों वर्ष के भारतीय मूल्यों-संस्कारों को छिन्न-भिन्न कर रहे हैं.
परिवार विघटित हो रहे हैं. समाज का ताना-बाना टूट रहा है. समृद्धि पाकर भी पश्चिम बिखर रहा है, क्योंकि उसके पास ‘सोशल कैपिटल’ (सामाजिक पूंजी) नहीं थी. हम अपना सोशल कैपिटल खो रहे हैं. बाजार की पूंजी के पीछे भाग रहे हैं.
क्या भारत में इस विषय को लेकर कोई चिंता-बहस है? इस प्रासंगिक विषय पर कोई गंभीर पुस्तक छपी है? इस पर कहीं गंभीर विचार हो रहा है? 9/11 के पहले अमेरिका में बजट सरप्लस था.
तेल प्रति बैरल 28 डॉलर था. अमेरिका के मुकाबले चीन की अर्थव्यवस्था 8वें नंबर पर थी. आज अमेरिका का डेफिशिट 1.3 ट्रिलियन डॉलर है. वहां तेल 115 डॉलर प्रति बैरल है. फ्रीडमैन मानते हैं कि अमेरिका के सामने बड़ी चुनौतियां उनके अनुसार चार हैं, जिन पर अमेरिका का भविष्य निर्भर है, वे हैं.
ग्लाबेलाइजेशन, रिवोल्यूशन इन आइटी, द नेशन क्रोनिक डिफेक्ट्स, पैटर्न ऑफ एनर्जी कंजम्शन. इस पुस्तक में यह भी बताया गया है कि अमेरिका क्या करे, ताकि उसकी ताकत पुन: उभरे.
एक तरफ पश्चिम की यह हालत है, पर उसके संकट और अनुभवों से सीखने के लिए शायद भारत जैसा मुल्क तैयार नहीं है.
30.09.11 के इकानामिक्स टाइम्स के अनुसार भारत पर कुल कर्ज 2.2 लाख करोड़ है. सरकार ने बजट में प्रावधान किया था 1.67 लाख करोड़ का, पर अब बाजार से उसे 92,800 करोड़ और अधिक लेने होंगे. इस तरह कर्ज लेकर विकास के परिणाम पश्चिम के अनुभवों से दुनिया ने देख लिये हैं. पर लगता है भारत अभी सीखने को तैयार नहीं है.
दिनांक : 21.10.11

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