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म्यांमार में याद आयी भारत की आजादी

म्यांमार (बर्मा) से लौट कर हरिवंश यांगून के भव्य इनया लेक होटल के प्रांगण में बड़ी झील है. इनया झील. बड़े-बड़े गाछ-वृक्ष ताड़ के लंबे-लंबे पेड़. शरद बाबू का साहित्य अनायास याद आता है. चांदनी रात है. देर रात का पहर है. ठीक-ठीक समय नहीं मालूम. नींद खुलती हैं, तो झील में चांद झलकता हैं. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 25, 2015 5:42 PM
म्यांमार (बर्मा) से लौट कर हरिवंश
यांगून के भव्य इनया लेक होटल के प्रांगण में बड़ी झील है. इनया झील. बड़े-बड़े गाछ-वृक्ष ताड़ के लंबे-लंबे पेड़. शरद बाबू का साहित्य अनायास याद आता है. चांदनी रात है. देर रात का पहर है. ठीक-ठीक समय नहीं मालूम. नींद खुलती हैं, तो झील में चांद झलकता हैं. प्रकृति का दाहक सौंदर्य. आगे बढ़ कर खिड़की-दरवाजा खोलता हूं. ठंडी हवा चुभती है. पर प्रकृति का अक्षत सौंदर्य लुभाता है. कमरे से निकल कर झील के किनारे जाता हूं. कहीं कोई नहीं है, फिर भी झील के किनारे-किनारे टहलने में आनंद आता है. भय नहीं है. वतन से हजारों मील दूर. सैनिक शासन के देश में. अनजानी जगह. फिर भी हवा में भय की गंध नहीं.
सोचता हूं कि क्या रात के इस पहर में रांची में ऐसा घूमा जा सकता है? बिहार में यात्रा पर निकला जा सकता है? अपने यहां तो सैनिकतंत्र या राजतंत्र नहीं, लोकतंत्र है. यांगून की इस झील के किनारों पर अपनी मिट्टी की तसवीरें उभरती हैं. क्यों रंगून या बर्मा (सीमांत क्षेत्रों में नहीं) की आबोहवा में अपराध, भय और तनाव की वह गंध नहीं है, जो भारत या खासतौर से बिहार में है? सैनिकतंत्र का उद्गम या ऊर्जा स्रोत तो भय है. लोकतंत्र में तो कल्पना हैं कि मनुष्य स्वतंण है. क्या वाकई हम स्वतंत्र हैं? अगर नहीं, तो स्वतंत्रता की बाधक ताकतें कौन हैं? बिहार की हवा में यह अपराध, ईर्ष्या, द्वेष, तनाव की गंध क्यों है? स्वतंत्रता का जितना दुरुपयोग हमारे यहां हो रहा है, उसकी कीमत हम जल्द ही चुकायेंगे. काम न करने की स्वतंत्रता, भ्रष्टाचार-घूसखोरों की स्वतंत्रता, न्याय न मिलने की स्वतंत्रता, परनिंदा, अपराध करने की स्वतंत्रता हर राजनेता इसी ख्वाब में डूबा है कि उसके इशारे पर मुल्क चल रहा है. वह प्रतिबंध से परे हैं. उसके लिए आचरण-व्यवहार की कोई सीमा नहीं मर्यादा नहीं. अफसरों का हाल यह है कि जो सही काम वे नहीं करना चाहते, उसके लिए हजार दलीलें वे पेश कर देंगे, जो नितांत गलत काम करना चाहते हैं, उसके लिए कोई बंधन नहीं और इनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता. हम नागरिकों का हाल यह है कि या तो हम चुप हैं या लूट-अराजकता के इस बहाव में बह रहे हैं. युवकों-विद्यार्थियों में पश्चिमी जीवन दर्शन-टीवी कार्यक्रम के प्रबल आकर्षण हैं. उन्हें फुरसत नहीं है. हम यह समझने के लिए तैयार नहीं हैं कि स्वतंत्रता मानव इतिहास की अनमोल धरोहर है. पर आत्मसंयम और आत्म अनुशासन के बिना उसकी यात्रा लंबी नहीं हो सकती.
आज कौन सी स्वतंत्रता है? रात-बिरात मुक्त होकर घूम नहीं सकते. रोजी-रोटी नहीं मिल सकती, जिसके पास राजनीतिक सत्ता है या पैसा, वही स्वतंत्र है? जो ताकतवर है, वह निर्बलों को सताता है, यहां स्वतंत्रता है? आजादी की लड़ाई के हमारे मनीषियों ने हमें मानव इतिहास की सबसे अनमोल दौलत स्वतंत्रता (लोकतंत्र) दी. जब तक उस पीढ़ी का असर रहा, आत्मानुशासन से उन्होंने भारतीय लोकतंत्र को जीवित बनाया. तप, त्याग से सींचा. वह पीढ़ी गयी, उसके साथ वह विरासत भी गयी. आज यहां आजादी का अर्थ अराजकता है, जो चाहें, कर लें. सड़क पर मवेशी हांकें. ट्रेन में आरक्षित सीटों पर धावा बोल दें. सरकारी संपत्ति तोड़ फोड़ दें, जहां संभव हो थूक दें. गंदगी कर दें. पिशाब कर दें. किसी को हत्या कर दें, जो अफसर सही-सही काम करना चाहते हैं, उन्हें मार दें. या बदलवा दें. व्यवस्था के अंदर धीरे-धीरे जो माफिया गुट उभर रहे हैं. उन्होंने समाज की स्वतंत्रता हर ली है. राजसत्ता, अफसरशाही से मिल कर. यही स्वतंत्रता हमारे यहां फल-फूल रही है. आंतरिक अनुशासन के बिना स्वतंत्रता का क्या मोल है?
लोग अधिकार चाहते हैं, नंगे होने की. फिल्मी दुनिया की नयी तारिकाओं में नग्न तसवीरें देने की स्पर्द्धा है. अश्लील गानों पर थिरकने की होड़ है. युवाओं के लिए यह नाच-गान ही आदर्श है. किसी नयी फिल्म की कूल्हे मटकाती अभिनेत्री का दृश्य याद आता है. बोल भी बर्मा रवाना होने से पहुंचे कलकत्ता एयरपोर्ट की टीवी पर दिखा था.
रूप दिया राम ने ता
क्यों न दिखाऊं?
कानून के क्षेत्र में अपराध कर बच निकलने की छूट है. राजनीति में महाघोटाले कर निर्द्वंद्व रहने का माहौल है. इन प्रवृत्तियों को गिनने लगें, तो इस आजादी से भय होता है.
फिर रास्ता, क्या है? लोक को जगाने का जो गांधी, विनोबा, जेपी ने किया. हालांकि यह धारा आज नितांत कमजोर हैं. पर यही विकल्प है. सूकी, गांधी से प्रेरित होकर बर्मा में लोक जागरण कर रही हैं. नया समाज-मानस बताने के लिए दुख उठा रही हैं. पर भारत में आज यह दुख उठाने के लिए कोई तैयार नहीं हैं?

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